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यौन उत्पीड़न की शिकार महिलाओं के कपड़े जमा करती है ये महिला

 

चाहे घर हो या दफ्तर यौन उत्पीड़न एक बड़ी समस्या बन चुकी है। पूरी दुनिया में यौन उत्पीड़न की शिकार महिलाओं को कई सवालों का सामना करना पड़ता है और इन सवालों में सबसे पहला सवाल होता है, ‘तुमने क्या कपड़े पहने थे?’

बैंगलुरू निवासी एक कलाकार और कार्यकर्ता जसमीन पाथेजा यौन उत्पीड़न की शिकार महिलाओं के कपड़े जमा करती हैं जिससे दुनिया के इस बेतुके सवाल का जवाब दिया जा सके।

पाथेजा के घर का एक कमरा किसी म्यूज़ियम में तब्दील हो चुका है। कमरे में हर तरफ़ ऐसे कपड़े दिखेंगे जो आम महिलाएं रोज़मर्रा में पहनती हैं लेकिन इन कपड़ों की अपनी-अपनी कहानी हैं।

हर कपड़ा कुछ कहता है

जसमीन के घर में रखा लाल और काले रंग का जम्पसूट उन्हें उस महिला ने दिया जो बीते साल बेंगलुरू में हुई सामूहिक छेड़छाड़ का शिकार हुई थी।

पाथेजा बताती हैं, ‘उस महिला ने बताया कि वह नए साल का जश्न मना रही थी तभी अचानक वहां मौजूद भीड़ पगला सी गई और महिलाओं के साथ छेड़छाड़ करने लगी।’

इसके बाद पाथेजा एक क्रीम रंग के कुर्ते को उठाती हैं, जिस पर लाल और काले रंग का प्रिंट है, यह कुर्ता जिस महिला ने दिया था उसके साथ कोयंबटूर में एक ट्रेन में दुर्व्यवहार किया गया था। उस महिला ने बताया कि उसे उत्पीड़न की रिपोर्ट दर्ज करवाने से भी रोका गया।

अब पाथेजा जिस गुलाबी रंग की ड्रेस को उठाती हैं, वह उन्हें मॉन्ट्रियल से आई एक महिला ने दी थी। पाथेजा बताती हैं, ‘उस महिला ने मुझसे कहा कि अगर मैंने यह ड्रेस नहीं ली तो वह इसे फेंक देंगी क्योंकि यह ड्रेस उन्हें उनकी कमज़ोरी का अहसास दिलाती है।’

कपड़े या उम्र देखकर नहीं होता उत्पीड़न

एक सफेद ड्रेस, एक स्विम सूट, एक शैम्पेन रंग का गाउन, एक जोड़ी पैंट और एक स्कूल यूनिफॉर्म-ऐसे बहुत से कपड़े हैं जो दिखाते हैं कि हर उम्र की महिला यौन उत्पीड़न की शिकार होती है।

पाथेजा बताती हैं, ‘यह कभी मायने नहीं रखता कि आपने क्या पहना है। इस तरह की हिंसा के लिए कोई बहाना नहीं चल सकता। कोई महिला नहीं चाहती कि उसके साथ ऐसा हो। इसी के चलते उन्होंने अपने अभियान का नाम ‘आई नेवर आस्क फ़ॉर इट’ रखा है।

यौन उत्पी़ड़न के ख़िलाफ़ पाथेजा की यह लड़ाई लगभग डेढ़ दशक से चली आ रही है, जब वे पढ़ाई करने कोलकाता से बेंगलुरू आई। वे कहती हैं, ‘ऐसा नहीं है कि कोलकाता में महिलाओं के साथ उत्पीड़न नहीं होता था, लेकिन बेंगलुरू में मैं नई थी। मैं महज़ 23 साल की थी और मेरा परिवार भी यहां मेरे साथ नहीं था जो मेरी सुरक्षा कर सके।’

जसमीन की आवाज़ में तक़लीफ़ झलकती है, ‘यह वो वक़्त था जब सड़क पर होने वाले उत्पीड़न को महज़ छेड़छाड़ कहकर निपटा दिया जाता था, माना जाता था कि लड़के तो छेड़छाड़ करते ही हैं और लड़कियों को उसे सहना ही पड़ता है। इन घटनाओं को सामान्य बनाने की कोशिश की जा रही थी। लोग मानते ही नहीं थे कि कुछ ग़लत हो रहा है। समाज की मौन सहमति के चलते ऐसी घटनाएं लगातार हो रही थीं।’

कहीं से तो शुरुआत करनी होगी

जसमीन ने फ़ैसला किया कि वे इस मौन को तोड़ने के लिए आवाज़ उठाएंगी जिससे समाज इसकी अनदेखी न कर सके। एक दिन मैंने सभी छात्राओं को एक कमरे में बुलाया और उनसे ऐसे शब्दों की सूची बनाने के लिए कहा। सिर्फ़ तीन मिनट में हमारे सामने बुरे अनुभवों की लंबी फेहरिस्त थींं। ये नतीजे हैरान करने वाले नहीं थे, सार्वजनिक स्थानों पर सभी लड़कियां इस तरह का उत्पीड़न झेलती हैं, जिसमें भद्दी टिप्पणियों से लेकर जबरन छूना या नोच-खसोट शामिल हैं।

इस पर सवाल उठाइए तो बताया जाता है कि ग़लती महिलाओं की ही है- उसने ज़रूर भड़काऊ कपड़े पहने होंगे, उसके कपड़ों में से शरीर दिख रहा होगा, वह देर रात तक बाहर रही होगी, शराब पी रखी होगी या वो ख़ुद लोगों को ऐसे संकेत दे रही होगींं। आसान शब्दों में कहें तो वो चाहती होगी कि उसके साथ ऐसा हो।

डर के माहौल में बड़ी होती हैं महिलाएं

पाथेजा की नाराज़गी अब उनके शब्दों में सुनाई दे रही है, ‘लड़कियों को हमेशा सतर्क रहने की हिदायत दी जाती है, हमें ऐसे डर के माहौल में पाला जाता है जहां हर कदम फूंक-फूंक कर रखना पड़े। हमें बताया जाता है कि हमारे साथ उत्पीड़न होने का मतलब है कि हम पूरी सतर्कता नहीं बरत रहे थे। कहे कोई कुछ भी लेकिन उसमें छिपा संदेश हमेशा यही होता है।”

इसी डर का ‘सामना’ करने के लिए जसमीन ने 2003 में ‘ब्लैंक नॉइस’ की शुरुआत की। हमारा मानना है कि दोषी ठहराने से शर्मिंदगी बढ़ती है, शर्मिंदगी से अपराध का अनुभव होता है, अपराध का अनुभव होने से हम और खामोश हो जाते हैं, और इस खामोशी से ही यौन उत्पीड़न को बढ़ावा मिलता है।

सड़क पर जाकर महिलाओं से जानकारी मांगी

‘आई नेवर आस्क फ़ॉर इट’ के हिस्से की तरह काम करने वाले ‘ब्लैंक नॉइस’ का मक़सद महिलाओं के अनुभव इकट्ठे करना है। क्योंकि किसी भी डर का सामना करने की दिशा में पहला कदम उसके बारे में बात करना है।

इसके लिए उन्होंने बेंगलुरू और अन्य शहरों में महिलाओं और लड़कियों से बात करनी शुरू की और उनसे कहा कि वे अपने अनुभव लिखकर दें।

जसमीन के मुताबिक़ ”जब एक इंसान अपना अनुभव लिखता है तो दूसरों को भी ऐसा करने के लिए बढ़ावा मिलता है।

जल्दी ही उनका व्हाइट बोर्ड जानकारी से भर गया। महिलाओं के नाम, उम्र, उत्पीड़न की घटना, क्या हुआ, कहां हुआ, किस वक़्त हुआ, उन्होंने क्या पहना था, उन्होंने क्या किया और उन्हें क्या करना चाहिए था।