Breaking News

आवश्यक सूचना: प्रदेश जागरण के सभी निर्गत परिचय पत्र निरस्त किये जा चुके हैं | अगस्त 2022 के बाद के मिलने या दिखने वाले परिचय पत्र फर्जी माने जाएंगे |

independence day special story: azadi ki ladai se judi 6 aisi kahaniyan jinhein shayad apne kabhi nahi suni hogi unknown facts independence day : आजादी से जुड़ीं 6 कहानियां जिन्हें शायद आप नहीं जानते होंगे

[ad_1]

आजादी की लड़ाई में कई ऐसे दिग्गज शामिल हैं जिन्होंने अंग्रेजी सरकार से सीधे मोर्चा संभाला। यही नहीं अपने आंदोलन से ये अंग्रेजी हुकूमत की आंखों की किरकिरी बन गए थे। इनमें मालवा-निमाड़ में चैन सिंह का नाम सबसे अहम है, जिन्होंने सबसे पहले विद्रोह का बिगुल फूंका था। बाद में अंग्रेजों से लड़ाई में अपनी जान कुर्बान कर दी लेकिन उनका शरीर तक अंग्रेजों को नहीं मिला था। रांची के नागेश्वर प्रसाद भी थे जिन्होंने अंग्रेज अफसर पर गोली चलाई थी। इसी तरह गोंडवाना साम्राज्य के अंतिम शासक राजा शंकर साह ने अंग्रेजों के खिलाफ बगावती तेवर अख्तियार किया। बाद में अंग्रेजों ने उन्हें और उनके बेटे को तोप से उड़ा दिया। ऐसे ही रणबांकुरों की बहादुरी और आजादी की लड़ाई से जुड़ी अनसुनी घटनाओं को हम आपके के सामने पेश करने जा रहे हैं।

अंग्रेज अफसर पर चलाई थी गोली…रांची के नागेश्वर प्रसाद ने ली अंग्रेजों से टक्कर

आजादी की लड़ाई में रांची के नागेश्वर प्रसाद ने कई ऐसे कदम उठाए जिसकी वजह से वो अंग्रेजों की आंखों में किरकिरी बन गए थे। उन्होंने अंग्रेजी हुकूमत की तमाम बंदिशों के बावजूद अपने दो-तीन साथियों के साथ लोहरदगा के बगड़ू पहाड़ स्थित घने जंगल में प्रेस की स्थापना की। वे इस हस्त लिखित प्रिंटिंग प्रेस के माध्यम से लोगों को क्रांति के लिए जागरूक करते थे। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में इन्होंने कई प्रदर्शन किए। इतिहास में काकोरी कांड जैसी दूसरी घटना को अंजाम देते हुए अंग्रेजी सरकार के खजाने और हथियार को लूटने का काम किया। इस घटना को रांची-डालटनगंज मार्ग पर अंजाम दिया था।

नागेश्वर बाबू की एक अंग्रेज अधिकारी से सीधी भिड़ंत हो गई। इन्होंने उन पर गोली भी चलायी, वह किसी तरह से बच गया। जवाबी कार्रवाई में अंग्रेज अधिकारी ने भी गोली चलायी, जो उनके पैर में लगी और जीवन पर्यंत फंसी रही। 23 जुलाई 1942 को मांडर के पास घेर कर उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और बर्फ की सिल्लियों पर घंटों लिटा कर पिटाई की, उनके नाखूनों के बीच सुई चुभोई गयी। पूरी स्टोरी पढ़ें यहां

स्वतंत्रता दिवस: देश के लिए दिल की बात

गोंडवाना साम्राज्य के अंतिम शासक और बेटे ने बुलंद की अंग्रेजों को खिलाफ आवाज

अंग्रेजों की ज्यादती और क्रूरता के खिलाफ बगावत का बिगुल फूंकने वालों में गोंडवाना साम्राज्य के अंतिम शासक राजा शंकर साह और उनके बेटे कुंवर रघुनाथ साह का भी नाम शामिल है। जिसकी वजह से अंग्रेजों ने उनको तोप से उड़ा दिया था। राजा शंकर शाह गोंडवाना साम्राज्य के कुशल शासक थे। लेकिन उनके कार्यकाल में अंग्रेजों ने जबलपुर में अपने पैर पसार लिए थे। 52वीं रेजिमेंट का कमांडर क्लार्क जब जबलपुर आया तो उसने यहां की जनता के साथ क्रूरता शुरू कर दी थी। यह बात राजा शंकर शाह को पता चली तो उन्होंने अंग्रेज कमांडर को चेतावनी भी दी थी।

क्लार्क ने राजा की एक नहीं सुनी। फिर राजा ने अपनी कविताओं के माध्यम से प्रजा को अंग्रेजों के खिलाफ एकजुट होने का आह्वान किया। क्लार्क को जब ये बात पता चली तो उसने 14 सितम्बर 1857 को राजा शंकर शाह और उनके पुत्र रघुनाथ शाह को तोप के आगे बांधकर उड़ा दिया। बावजूद इसके अंग्रेजों के मंसूबे पूरे नहीं हुए और स्वतंत्रता संग्राम के दौरान जबलपुर प्रमुख केंद्र बना रहा।

मालवा-निमाड़ में चैन सिंह ने सबसे पहले फूंका था विद्रोह का बिगुल

देश में जब अंग्रेजी शासन का दौर चल रहा था, तब उन्हें सीधे चुनौती देने और ललकारने का साहस मालवा में सीहोर की धरती पर कुंवर चैनसिंह ने दिखाया। उन्होंने अपने साथियों के साथ फिरंगियों से लोहा लिया, उन्हें नाको चने चबवाए, लेकिन अंत में वीरगति को प्राप्त हो गए। देश में अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ पहली सशस्त्र क्रांति का पहला शहीद मंगल पांडे को माना जाता है। मगर कुंवर चैन सिंह की शहादत मंगल पांडे के शहीद होने की घटना से भी करीब 33 वर्ष पहले की है। नरसिंहगढ़ रियासत के युवराज कुंवर चैन सिंह ने अंग्रेजों से जड़े कई फैसले मानने से इनकार कर दिया। उन्होंने इसे गुलामी की निशानी मानते हुए स्वीकार नहीं किया।

अंग्रेजों की आंखों की किरकिरी बन चुके कुंवर चैन सिंह ने रियासत से गद्दारी कर रहे अंग्रेजों के पिट्ठू दीवान आनंदराम बख्शी और मंत्री रूपराम बोहरा को मार दिया। 24 जून 1824 को सीहोर पहुंचने का आदेश दिया। अंग्रेजों की बदनीयती का अंदेशा होने के बाद भी कुंवर चैन सिंह नरसिंहगढ़ से अपने विश्वस्त साथी सारंगपुर निवासी हिम्मत खां और बहादुर खां सहित 43 सैनिकों के साथ सीहोर पहुंचे। वहां पॉलिटिकल एजेंट मैडॉक और अंग्रेज सैनिकों से उनकी जमकर मुठभेड़ हुई। यहीं अंग्रेज तोपची ने उनकी गर्दन पर तलवार का प्रहार कर दिया। ताज्जुब यह कि इसके बाद भी अंग्रेजों को उनका मृत शरीर नहीं मिल पाया था। यहां पढ़ें डिटेल स्टोरी

स्वतंत्रता सेनानी मोतीलाल अमेठिया को मिली थी 30 कोड़ों की सजा

-30-

स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान महात्मा गांधी के नेतृत्व में सविनय अवज्ञा नमक सत्याग्रह जैसा आंदोलन जोरों पर था। आए दिन धरना प्रदर्शन हुआ करता था। इनमें मोतीलाल अमेठिया पर भी इसका प्रभाव पड़ा और छात्र राजनीति में सक्रिय हो गए थे। 1941 में वो आजादी की लड़ाई में आ गए। 13 अगस्त 1942 को रांची जेल गेट पर करीब 5000 छात्रों और युवाओं का उग्र प्रदर्शन हुआ। मोतीलाल ने जेल दफ्तर के सरकारी फोन को तोड़ डाला और जेल गेट पर नियुक्त वार्डर को मारकर गिरा दिया और चाभी भी छीन ली। लेकिन तभी भारी संख्या में अंग्रेजी फोर्स आई और मोतीलाल अमेठिया को गिरफ्तार कर लिया। उस समय रांची के तत्कालीन डिप्टी कमिश्नर आरपीएन शाही ने मोतीलाल और उनके एक अन्य साथी शालिग्राम अग्रवाल को तीस-तीस बेत (कोड़ा) की सजा दी। इस आदेश पर उन्हें लकड़ी के पोल में रस्सी से बांध कर और ऊपर जूट का पतला बोरा बांध कर बेदर्दी से पिटाई की गई थी, जिसके बाद उनकी तबीयत बिगड़ गयी। उनके पुत्र राकेश सिंह अमेठिया ने कहा कि आजादी की लड़ाई में उनके पिता जैसे कई अनाम लोगों ने अपनी कुर्बानी दी है, जिसके बारे में लोगों को बताने की जरूरत है।

भीलवाड़ा में इस जगह पर फहराया गया था जश्न-ए-आजादी का पहला तिरंगा

राजस्थान के भीलवाड़ा में पंद्रह अगस्त 1947 को आजादी के दिन जहां सबसे पहले देश की शान तिरंगा फहराया गया था वह जगह है भोपाल छात्रावास। स्वाधीनता सेनानी रमेश चन्द्र व्यास को यहां तिरंगा फहराने का यह गौरव हासिल हुआ था। आजादी के दीवाने रमेश चंद्र व्यास को अंग्रेजी हुकूमत ने डोगरा शूटिंग केस में आरोपी बनाया था। उनके साथ अजमेर के स्वाधीनता सेनानी ज्वाला प्रसाद शर्मा भी आरोपी थे। इसके खिलाफ उन्होंने अजमेर सेंट्रल जेल में नब्बे दिन की लम्बी भूख हड़ताल की थी। व्यास ने 51 दिन की भूख हड़ताल उदयपुर की सराड़ा जेल में और 21 दिन की भूख हड़ताल उदयपुर सेंट्रल जेल में की थी। स्वाधीनता सेनानी रमेश चंद्र व्यास के बेटे कैलाश व्यास ने एनबीटी से खास बातचीत में कई बातों का जिक्र किया।

रांची में नजरबंद रहने के दौरान मौलाना अबुल कलाम आजाद ने तय की थी आधुनिक शिक्षा की रूपरेखा

आजादी की लड़ाई के दौरान मौलाना अबुल कलाम आजाद रांची में करीब साढ़े तीन साल (30 मार्च 1916 से 31 दिसंबर 1919) तक नजरबंद रहे। इसी दौरान उन्होंने आधुनिक शिक्षा की रूपरेखा अपने मन-मस्तिष्क में तय कर ली थी। रांची में नजरबंदी में रहने के दौरान मौलाना आजाद ने गरीबों के लिए उच्च शिक्षा की व्यवस्था करने का प्रयास किया और स्वतंत्रता मिलने के बाद उन्हें देश के पहले शिक्षामंत्री का दायित्व मिला, तो उन्होंने देश में आधुनिक शिक्षा की बुनियाद रखी। सऊदी अरब के मक्का में जन्मे मौलाना आजाद के पिता सपरिवार कोलकाता आये थे। मौलाना अबुल कलाम आजाद ने रांची में नजरबंदी के दौरान कई पुस्तकें भी लिखी। 1940 में रामगढ़ अधिवेशन के दौरान उन्हें कांग्रेस का अध्यक्ष चुना गया। इससे पहले वे 1923 में भी कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए थे।

अंग्रेजों की क्रूरता के खिलाफ गोंडवाना साम्राज्य के अंतिम शासक ने उठाई थी आवाज

आजादी के नायकः अंग्रेजों की क्रूरता के खिलाफ गोंडवाना साम्राज्य के अंतिम शासक और उनके बेटे ने उठाई थी आवाज

झारखंड के ‘लाल’ ने आजादी की लड़ाई में जंगल से चलाया अभियान, काकोरी कांड जैसी घटना को दिया अंजाम

Jharkhand Freedom Fighter : झारखंड के ‘लाल’ ने आजादी की लड़ाई में जंगल से चलाया अभियान, काकोरी कांड जैसी घटना को दिया अंजाम

रांची जेल का गेट खुलने ही वाला था कि पकड़े गए अमेठिया, आजादी के दीवाने की कहानी

Jharkhand Freedom Fighter : रांची जेल का गेट खुलने ही वाला था कि पकड़े गए अमेठिया, आजादी के दीवाने की कहानी

यहां फहराया गया था भीलवाड़ा में जश्ने आजादी का पहला तिरंगा

Independence Day Celebration 2021: यहां फहराया गया था भीलवाड़ा में जश्ने आजादी का पहला तिरंगा

[ad_2]
Source link