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मुठभेड़ पर भी सियासत उचित नहीं – नरेंद्र कुमार त्रिपाठी

इस बार दिवाली के जश्न में भोपाल सेंट्रल जेल में कैद सिमी के आठ आतंकियों के फरार होने की घटना ने रंग में भंग डालने का काम किया। दिवाली के अगले दिन सुबह जैसे ही यह खबर आई कि सिमी के आतंकी जेल के एक प्रहरी को मारकर भागने में कामयाब हो गए हैं, सारा देश सन्न् रह गया। यह अच्छी बात है कि इस घटना की सूचना मिलने पर स्थानीय पुलिस तुरंत सक्रिय हुई और इंटेलिजेंस विंग भी हरकत में आई। प्रदेश के साथ-साथ अन्य सभी राज्यों और आईबी को भी सतर्क कर दिया गया। तत्काल सभी प्रकार की नाकेबंदी कर दी गई। यह त्वरित सक्रियता और समन्वित कार्रवाई का ही परिणाम था कि जेल से फरार आतंकी ज्यादा दूर तक नहीं भाग सके और पुलिस व एटीएस के दल ने मिलकर इन आतंकियों को आठ घंटे बाद ही एक मुठभेड़ में मार गिराया। इन आतंकियों के मारे जाने पर आमजन समेत प्रशासन ने भी राहत की सांस ली, वरना ये आतंकी यदि सुरक्षा बलों को पुन: चकमा देने में कामयाब हो जाते तो हमारे लिए एक बड़ा खतरा बन सकते थे।

बहरहाल, पुलिस के साथ मुठभेड़ में जेल से फरार ऐसे आतंकियों के खात्मे के बाद किसी भी अन्य देश में घटनाक्रम को यहीं समाप्त मान लिया जाता। पर यह विडंबना ही है कि हमारे प्रजातंत्र में ऐसा नहीं होता। यहां ऐसी घटनाओं पर भी तुरंत सियासत शुरू हो जाती है। इस घटनाक्रम के तुरंत बाद विभिन्न् राजनीतिक दलों की ओर से राष्ट्रीय स्तर के नेताओं समेत स्थानीय नेताओं के भी बयान आने शुरू हो गए। दोपहर तक सोशल मीडिया व कुछ टीवी चैनलों पर इस मुठभेड़ को फर्जी बताने वाला एक वीडियो भी वायरल होना शुरू हो गया। यह सब देखना दुखद था। एक ओर जहां आम जनमानस जेल से फरार आतंकियों के मारे जाने की वजह से हर्ष में डूबा था, वहीं अफसोसनाक ढंग से कुछ राजनेताओं की ओर से इस मसले पर सर्वथा अनापेक्षित जोर-आजमाइश शुरू हो गई।simi_encounter_01_11_2016

इस घटना के केंद्र में सिमी यानी स्टूडेंट इस्लामिक मूवमेंट ऑफ इंडिया नामक आतंकी संगठन है। यह संगठन 25 अप्रैल 1977 को अलीगढ़, उत्तर प्रदेश में मुहम्मद अहमदुल्ला सिद्दीकी नामक एक शख्स ने बनाया था। शुरुआत में इस संगठन को जमाते-इस्लामी हिंद के छात्र विंग के रूप में विकसित किया गया था। कुछ दिनों बाद इन दोनों संगठनों में मतभेद हो गए और सिमी की विचारधारा कट्टरपंथी व उग्रवादी हो गई। अस्सी व नब्बे के दशक में देश के विभिन्न् हिस्सों में हुए सांप्रदायिक दंगों के चलते सिमी संगठन और ज्यादा कट्टर होता गया तथा भारतीय संविधान में अविश्वास व्यक्त करते हुए इसने जिहाद के नाम पर आतंकवाद का रास्ता अख्तियार कर लिया। वर्ष 2001 में अमेरिका में हुए 9/11 हमले के बाद सिमी पर प्रतिबंध लगा दिया गया, क्योंकि इसके कुछ सदस्यों की गतिविधियां वहां भी देखी गई थीं। तबसे केवल दो-तीन छोटी अवधियों को छोड़कर सिमी पर लगातार प्रतिबंध लगा हुआ है। सिमी के सदस्यों ने उत्तर प्रदेश के अनेक जिलों में नाम बदलकर काम करना शुरू किया। इसके सदस्य अन्य आतंकी संगठनों के साथ मिलकर वारदातों को अंजाम देने का प्रयास करते रहे हैं। इनमें सबसे मुख्य इंडियन मुजाहिदीन है।

जहां तक मध्य प्रदेश की बात है तो यहां का मालवा क्षेत्र सिमी का विशेष गढ़ रहा है। सर्वप्रथम उज्जैन जिले में स्थित महिदपुर कस्बे के सफदर नागौरी ने वर्ष 1991 में सिमी की सदस्यता ग्रहण की। इसने मालवा के साथ-साथ दिल्ली और बंगाल में भी सिमी की विचारधारा का प्रचार किया। इसके बनाए हुए सदस्यों ने कश्मीर में हिजबुल मुजाहिदीन से भी प्रशिक्षण प्राप्त किया। इसके नेटवर्क के 23 सदस्य वर्ष 2001 में महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, उत्तर प्रदेश व दिल्ली से गिरफ्तार किए गए थे। इसका नेटवर्क उत्तर प्रदेश, दिल्ली, मध्य प्रदेश, गुजरात, केरल, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश से लेकर असम तक फैला है।

27 मार्च 2008 को मप्र पुलिस ने पुख्ता सूचना के आधार पर इंदौर के विभिन्न् क्षेत्रों में छापा मारते हुए सिमी के 13 बड़े आतंकियों को पकड़ने में कामयाबी पाई। इनमें सिमी का महासचिव सफदर नागौरी, उसका भाई कमरुद्दीन व कर्नाटक इकाई प्रमुख हाफिज हुसैन भी था। पूछताछ करने पर इन्होंने इंदौर के पास ही स्थित एक पिकनिक स्पॉट में आतंकी प्रशिक्षण शिविर चलाने का खुलासा किया था। इनके द्वारा एक महिला विंग भी संचालित किया जा रहा था। उज्जैन जिले के शफीक तथा यूनुस ने 26 जुलाई 2008 को अहमदाबाद में एक बम विस्फोट किया था तथा इनके साथियों ने खंडवा में एक एंटी टेरेरिस्ट स्क्वाड (एटीएस) आरक्षक तथा दो अन्य व्यक्तियों की हत्या कर दी थी। पुलिस ने यूनुस को उसके चार साथियों के साथ 2009 में इंदौर में गिरफ्तार कर लिया था।

वर्तमान में भोपाल की सेंट्रल जेल से जो आठ आतंकी भागे थे, उनमें से तीन ऐसे भी थे, जो पहले भी जेल से भाग चुके थे। ये तीन आतंकी अपने तीन और साथियों के साथ अक्टूबर 2013 में खंडवा जेल से भागे थे। जेल से भागने के बाद इनमें से एक तेलंगाना में मुठभेड़ में मारा गया था। चार आतंकी बाद में ओडिशा के राउरकेला से गिरफ्तार किए गए। भोपाल जेल में ये सभी सिमी के एक और आतंकी अबू फैजल के संपर्क में आए, जिसे नई दिल्ली स्थित तिहाड़ जेल से भोपाल लाया गया था। संभवत: वही इस घटना का सूत्रधार हो सकता है।

खंडवा जेल से आतंकियों के फरार होने के बाद जेल व्यवस्था की समीक्षा की गई थी और उसे सुदृढ़ करने की कोशिशें भी हुईं, लेकिन ताजा घटना से साफ है कि खामियों को अब भी पूरी तरह दूर नहीं किया जा सका है। भोपाल सेंट्रल जेल में इन आतंकियों को रखने के लिए विशेष व्यवस्था की गई थी और इसे हाई सिक्युरिटी जेल बताया जा रहा था। यह सही है कि सिमी के आतंकियों की तुलना लश्कर अथवा जैश के आतंकियों से नहीं की जा सकती, जिन्हें जम्मू की अत्यंत सुरक्षित कोट भलवाल जेल में रखा गया है, फिर भी भोपाल जेल में सुरक्षा की कमी को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।

बहरहाल, जेल से फरार इन आतंकियों के मारे जाने के बाद कुछ विपक्षी दलों के राजनेताओं की ओर से जिस तरह की बयानबाजी की गई, उसे कतई उचित नहीं कहा जा सकता। कुछ ने इस मुठभेड़ को फर्जी बताया तो कुछ ने इसे साजिश करार दिया। असदुद्दीन ओवैसी ने तो आतंकियों के जेल से भागने के इस पूरे प्रकरण को ही अविश्वसनीय करार दिया है। हम ना भूलें कि आम जनमानस आतंकियों के मारे जाने की इस घटना का स्वागत ही कर रहा है। इसका एम नमूना सोशल मीडिया पर चल रहा यह मैसेज है कि ‘भोपाल एनकाउंटर अगर असली है तो भोपाल पुलिस को सौ सलाम! और अगर ये फर्जी है तो दो सौ सलाम, क्योंकि आतंकी तो असली थे।” हमारे बयानवीर राजनेताओं को यह बात समझनी चाहिए कि आतंकवाद और राष्ट्रीय सुरक्षा जैसे मसलों पर सियासत उचित नहीं है।

 

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