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पूण्यतिथि विशेष: साहिर लुधियानवी इस वजह से थे दूसरे शायरों से अलग, कर बैठते थे खुदा से सवाल…

मशहूर शायर और गीतकार साहिर लुधियानवी का असली नाम अब्दुल हुई साहिर था. उनका जन्म 8 मार्च 1921 में लुधियाना के एक जागीरदार घराने में हुआ था. उनके पिता धनी थे, लेकिन माता-पिता के एक-दूसरे से अलग होने के बाद उनका बचपन मां के साथ गरीबी में बीता.

वो साहिर ही थे, जिन्होंने देश के हालात पर उस वक्त ऐसे तल्ख सवाल उठाए थे कि सरकार तिलमिला उठी थी आइये आज हम आपको एक इनसे जुडी एक कहानी सुनाते है जो शायद ही आपने कभी सुनी होगी… संगीतकार जयदेव, मशहूर फिल्मकार विजय आनंद और गीतकार साहिर लुधियानवी बैठे हुए थे. जयदेव ने पाकिस्तान के मशहूर शायर सैफुद्दीन सैफ का शेर पढ़ा – हमको तो गर्दिश-ए हालात पे रोना आया.. रोने वाले तुझे किस बात पे रोना आया…

शेर सुनाकर जयदेव ने साहिर से कहा कि शायर एक सवाल छोड़कर गया है, इसका जवाब आपको देना है. साहिर ने अगले ही मिनट जवाब दे दिया – कभी खुद पे कभी हालात पे रोना आया….बात निकली तो हर इक बात पे रोना आया…जयदेव बहुत खुश हुए. 

उन्होंने कहा कि मियां, ग़ज़ल पूरी करो. मैं इसकी धुन बनाऊंगा. विजय आनंद ने कहा कि ग़ज़ल मेरी हुई. मैं अपनी फिल्म में इसे इस्तेमाल करूंगा. उसी बैठक में ग़ज़ल पूरी हुई. विजय आनंद ने 1961 में फिल्म बनाई ‘हम दोनों’. इसमें देव आनंद थे. फिल्म में इस ग़ज़ल का इस्तेमाल हुआ.

इसी फिल्म में एक भजन है-अल्लाह तेरो नाम, ईश्वर तेरो नाम… सबको सन्मति दे भगवान. साहिर आज होते, तो शायद यही पंक्तियां बुदबदा रहे होते. आज के हिंदुस्तान में शायद सबसे ज्यादा जरूरत सन्मति की ही है. वैसे ऐसा नहीं है कि इस हिंदुस्तान के बारे में साहिर ने तब नहीं सोच लिया था.

ऐसा नहीं होता, तो 1958 में आई फिल्म फिर सुबह होगी का गीत साहिर ने न लिखा होता-आसमां पे है खुदा और जमीं पे हम. इस गाने का एक अंतरा है – आजकल किसी को वो टोकता नहीं, चाहे कुछ भी कीजिए रोकता नहीं हो रही है लूटमार, फट रहे हैं बम…

पहले ही की थी अज के भारत की कल्पना 

ऊपर वाले से इस तरह का संवाद साहिर ही कर सकते थे. संवाद क्या, शिकायत कि अब ऊपर वाला किसी को नहीं टोकता. ध्यान दीजिए, फिल्म तब आई थी, जब दुनिया ऐसी नहीं थी. भारत की आजादी को एक दशक ही हुआ था. उम्मीदें थीं. लोग मानते थे कि नेहरू देश को बदल देंगे. तब उन्होंने संसार के उन हालात की कल्पना की, जो अब दिखता है.

वो साहिर ही थे, जिन्होंने देश के हालात पर उस वक्त ऐसे तल्ख सवाल उठाए थे कि सरकार तिलमिला उठी थी. आज सहिष्णु और असहिष्णु की बहस के बीच सोचिए कि कोई गाना इसलिए बैन कर दिया जाए, क्योंकि उसमें सवाल पूछा गया हो. साहिर ने ही तो पूछा था- जिन्हें नाज है, हिंद पर वो कहां हैं... इस सवाल ने ‘प्यासा’ फिल्म का वो गाना बैन करवा दिया था. बताने की जरूरत नहीं कि उस वक्त नेहरू की सरकार थी और पचास का दशक था. वो दौर जिसे सबसे ज्यादा सहिष्णु माना जाता है.

देखा जाए तो उन्होंने ऐसे गीत लिखे कि हिंदी फिल्मों की साहिर के बगैर कल्पना ही नहीं की जा सकती. उनका अंतिम  भजन “सबको सन्मति दे भगवान” के बाद 25 अक्तूबर को दुनिया को अलविदा कह गए…