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इंतजार खत्म, यहां फिर शुरू होने जा रहा 167 साल पुराना ‘आशिकों का मेला’

अपनी प्रेमिका को पाने के लिए सूत की रस्सी पर चलकर नदी पार करते समय जान गंवा बैठे जवां नटबली की याद में एक बार फिर ‘आशिकों का मेला’ तैयार है। बांदा की सीमा पर केन नदी और भूरागढ़ दुर्ग के बीच बने प्राचीन मंदिर दो प्रेमियों की याद दिलाते हैं। प्रेमी-प्रेमिका इस 167 साल पुराने मेले का बेसब्री से इंतजार करते हैं। 

ऐसा कहा जाता है कि महोबा के सुगिरा का रहने वाला नोने अर्जुन सिंह भूरागढ़ दुर्ग का किलेदार था। यहां से कुछ किलोमीटर दूर सरबई (मध्य प्रदेश) गांव है। वहां नट जाति के लोग आबाद थेकिले में काम करने वाले एक युवा नट से किलेदार की बेटी को प्यार हो गया। नोने अर्जुन सिंह को इसका पता चला तो उसने प्रेमी युवा नट से यह शर्त रख दी कि सूत की रस्सी पर चलकर नदी पार कर किले में आए। अगर ऐसा कर लेगा तो वह अपनी बेटी से उसकी शादी कर देगा। नट ने शर्त मान ली। 

मकर संक्रांति के दिन सन 1850 में नट ने प्रेमिका के पिता की शर्त पूरी करने के लिए नदी के इस पार से लेकर किले तक रस्सी बांध दी। इस पर चलता हुआ वह किले की ओर बढ़ने लगा। उसका हौसला बढ़ाने के लिए नट बिरादरी के लोग रस्सी के नीचे चलकर गाजे-बाजे के साथ लोक गीत-संगीत गा बजा रहे थे। नट ने रस्सी पर चलते हुए नदी पार कर ली और दुर्ग के करीब जा पहुंचा। यह तमाशा नोने अर्जुन सिंह किले से देख रहा था। उसकी बेटी भी अपने प्रेमी के साहस का नजारा देख रही थी।