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वंशवादी राजनीति के बुरे नतीजे

कांग्रेस ने ही इस देश की राजनीति में वंशवाद की शुरुआत की और जब कुछ अन्य राजनीतिक दलों ने भी उसे अपना लिया तो राहुल गांधी कह रहे हैं कि ‘भारत तो ऐसे ही चलता है।’ जिसने इसे शुरू किया वही इसे समाप्त करने की पहल करे तो कांग्रेस भी बच सकती है और अन्य दल भी। कांग्रेस यदा-कदा यह कहती रही है कि जवाहर लाल नेहरू ने इस देश को वैज्ञानिक सोच दी और साथ ही अनेक आइआइटी एवं अन्य उच्च स्तरीय संस्थान भी दिए, पर वह यह नहीं बताती कि यदि सर्वाधिक समय तक देश पर राज करने वाली कांग्रेस के शासन काल में गरीबी बढ़ी, भ्रष्टाचार फैला और वंशवाद कायम हुआ तो उसके लिए किसे जिम्मेदार माना जाए? यह तो ‘मीठा-मीठा गप और कड़वा-कड़वा थू’ वाली ही बात हुई।

आज देश के चारों शीर्ष पदों पर बैठे नेताओं में से कोई भी परिवारवाद की उपज नहीं हैं। अधिकतर आम लोगों की सोच है कि देश बेहतर चलना चाहिए चाहे वंशवादी चलाएं या गैर वंशवादी, पर घटनाएं बताती हैं कि अपवादों को छोड़कर गैर वंशवादियों ने ही देश को बेहतर ढंग से चलाया है। आज शीर्ष पदों पर गैर-वंशवादी ही क्यों बैठे हैं? आखिर यह कैसे संभव हुआ? यह इसलिए संभव हुआ, क्योंकि मतदाताओं ने 2014 में कांग्रेस को सत्ता से हटा दिया जो अनेक बुराइयों और विफलताओं की प्रतीक बन चुकी थी। इनमें से एक-दो विफलताएं तो खुद राहुल गांधी ने भी स्वीकारी हैं, पर विफलताएं तो अनगिनत हैं।

राहुल गांधी अपने वंशवाद को जायज ठहराने के लिए अखिलेश यादव से लेकर स्टालिन और मुकेश अंबानी से लेकर अभिषेक बच्चन तक का उदाहरण दे रहे हैं। वह अपने वंशवाद का बचाव करना चाहते हैं, पर 1928 में तो न कोई अखिलेश थे और न ही कोई स्टालिन। तब कांग्रेस अध्यक्ष मोतीलाल नेहरू थे। महात्मा गांधी सर्वोच्च नेता थे। मोतीलाल ने महात्मा गांधी को लिखा, ‘वैसे तो सरदार बल्लभ भाई पटेल कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए सर्वोत्तम उम्मीदवार हैं, लेकिन आप जवाहर लाल नेहरू को अध्यक्ष बना दीजिए।’ नेहरू मेमोरियल में मोतीलाल पेपर्स पढ़ने के बाद इतिहासकार रिजवान कादरी ने लिखा है, ‘मोतीलाल नेहरू युवा नेहरू को आगे बढ़ाना चाहते थे।’ आखिर किसी युवा की तलाश सिर्फ अपने ही घर से क्यों? उक्त चिट्ठी आने के बावजूद महात्मा गांधी जवाहर लाल को कांग्रेस अध्यक्ष बनाने को तैयार नहीं थे। इस पर मोतीलाल नेहरू ने उन्हें दो पत्र और लिखे। उन्होंने अन्य हस्तियों के जरिये भी गांधी पर दबाव बनाया। गांधी भारी दबाव में आ गए और जवाहर लाल के हाथ कांग्रेस की कमान आ गई। इसी के साथ वंशवाद की नींव पड़ गई। यह वही वंशवाद है जिसे देश के अन्य दलों ने अपने स्वार्थवश बाद में अपनाया। ‘महाजनो येन गत: स पंथा:!’ नब्बे के दशक में लालू प्रसाद ने कहा था कि ‘मेरा परिवार बिहार का नेहरू परिवार है।’ उन्होंने इसे साबित करके भी दिखाया। वंश को आगे बढ़ाने में मोतीलाल जी को थोड़ी कठिनाई जरूर हुई थी, लेकिन जवाहरलाल नेहरू को नहीं हुई। उन्होंने 1958 में इंदिरा गांधी को 24 सदस्यीय कांग्रेस कार्यसमिति का सदस्य बनवा दिया। इससे पहले भी जवाहर लाल फिरोज गांधी और अपने परिवार के अन्य अनेक सदस्यों को महत्वपूर्ण पदों पर बैठा चुके थे। 

जब इंदिरा गांधी को कांग्रेस अध्यक्ष बनवाने की प्रक्रिया शुरू हुई तो कांग्रेसी सांसद और पूर्व केंद्रीय मंत्री महावीर त्यागी ने 31 जनवरी, 1959 को नेहरू को चिट्ठी लिखकर कहा,‘मेरी राय है कि इंदु को कांग्रेस प्रधान चुने जाने से रोको या फिर आप प्रधानमंत्री पद से मुक्त हो जाओ।’ इसके जवाब में नेहरू ने त्यागी को 1 फरवरी, 1959 को लिखा, ‘मेरा ख्याल है कि कई कारणों से उसका इस वक्त कांग्रेस अध्यक्ष बनना मुफीद होगा।’ आज राहुल गांधी अन्य दलों के वंशवाद की चर्चा कर रहे हैं, लेकिन आखिर 1959 में किस दल के किस नेता ने अपनी पार्टी का अध्यक्ष पद अपनी संतान के हवाले कर दिया था? अब देखिए कि इंदिरा गांधी ने प्रधानमंत्री बनने के बाद क्या किया? उन्होंने अपने पुत्र संजय को शासन का संविधानेत्तर केंद्र बनाते हुए आपातकाल में सरकार एक तरह से उन्हें ही सौंप दी थी। संजय के निधन के बाद इंदिरा जी ने राजीव गांधी को पार्टी सौंप दी। बिना किसी राजनीतिक अनुभव के राजीव महासचिव बना दिए गए। सबको पता है कि सोनिया गांधी ने दस साल तक परदे के पीछे से राज चलाया। यह राज इस तरह चला कि बीते लोकसभा में कांग्रेस को केवल 44 सीटें ही मिल सकीं।

राहुल गांधी ने बर्कले में वंशवाद का बचाव करते हुए यह भी कहा कि वह प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार बनने को तैयार हैं। वंशवाद की तारीफ होती यदि वंशवादियों ने सत्ता में आकर सचमुच देश का भला किया होता। यदि भला हुआ होता तो 1969 में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को गरीबी हटाओ का नारा नहीं देना पड़ता। अमेरिकी शोधकर्ता पॉल आर ब्रास ने साठ के दशक में उत्तर प्रदेश में व्याप्त भ्रष्टाचार पर गहन शोध किया था। ब्रास के शोध का नतीजा था कि मंत्रियों ने जिलों में अपने गुटों को ताकत देने के लिए ऊपर से नीचे की ओर सरकारी भ्रष्टाचार को फैलाया। जवाहरलाल नेहरू के निजी सचिव ने लिखा है कि नेहरू ने भ्रष्ट मंत्रियों और अफसरों के खिलाफ कार्रवाई की पुख्ता व्यवस्था इसलिए नहीं की, क्योंकि वह मानते थे कि इससे प्रशासन का हौसला पस्त होगा। नेहरू और इंदिरा गांधी के शासन काल में भ्रष्टाचार का क्या हाल था, इसका जवाब खुद राजीव गांधी ने अस्सी के दशक में दिया था। बतौर प्रधानमंत्री तब राजीव गांधीे ने कहा था कि हम दिल्ली से जो सौ पैसे भेजते हैं गांवों तक उसमें से सिर्फ 15 पैसे ही पहुंच पाते हैं। क्या यह एक दिन में हुआ? कोई पूछे कि ऐसी नौबत किसकी वजह से आई? कभी मिस्टर क्लीन कहलाने वाले प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने सत्ता के दलालों के खिलाफ आवाज उठाई थी, पर विडंबना यह रही कि बोफोर्स तोप सौदे के दलालों को बचाने के प्रयास में उन्होंने अपनी गद्दी गंवा दी। 

वंशवादी क्षेत्रीय दलों ने भी सत्ता में आकर हदें पार कीं। उन्होंने परिवारवाद को खूब बढ़ावा दिया और भ्रष्टाचार से भी गुरेज नहीं किया। हैरत नहीं कि इन दलों के अनेक नेताओं पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों के तहत मुकदमे चल रहे हैं। इन दिनों देश की कमान गैर वंशवादी प्रधानमंत्री के हाथ में हैै और यह बात हर कोई मान रहा है कि केंद्रीय मंत्रिमंडल के स्तर पर भ्रष्टाचार का कोई मामला सामने नहीं आया है। दरअसल अधिकांश मामलों में वंशवाद और जातिवाद जुड़वा भाई हैं। वंशवादी नेता अपने जातीय वोट बैंक को लेकर निश्चिंत रहते हैं। वे यह भी समझने लगते हैं कि कोई भी अनर्थ करके बच सकते हैं। इस प्रचलन-प्रवृत्ति से देश का अधिक नुकसान हुआ है। यह ध्यान रहे कि जो वंशवादी नहीं हैं उन्हें सरकार में आने पर कुछ काम करके खुद को साबित करना पड़ता है।

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