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स्याह होती एक संभावना

14_05_2017-13sanjay_guptaउत्तर प्रदेश समेत पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में बड़ी सफलता हासिल करने के बाद भाजपा ने जिस तरह दिल्ली नगर निगम चुनाव में भी जीत दर्ज की उसकी एक राजनीतिक परिणति यह हुई कि आम आदमी पार्टी में कलह छिड़ गई। यह कलह इसलिए गंभीर है, क्योंकि इस बार सवालों के घेरे में खुद मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल हैं। ऐसे दल के लिए ये हालात चौंकाने वाले हैं जिसने राजनीति में बदलाव लाने का वादा किया था। अन्ना हजारे के आंदोलन के जरिये अरविंद केजरीवाल का एक सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में उदय हुआ। वह एक ऐसे जुझारू आंदोलनकारी के रूप में सामने आए जो सार्वजनिक जीवन से भ्रष्टाचार को मिटाने के लिए प्रतिबद्ध थे। कुछ समय बाद अन्ना हजारे की इच्छा के विपरीत केजरीवाल ने अपने कुछ साथियों के साथ राजनीतिक पार्टी बनाने का फैसला किया और पहली बार 2013 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में भाग लिया। उस चुनाव में आम आदमी पार्टी यानी आप को अप्रत्याशित सफलता हासिल हुई, लेकिन उसे बहुमत नहीं मिल सका। सरकार बनाने के लिए केजरीवाल ने उसी कांग्रेस का सहयोग लिया जिसके नेताओं के भ्रष्टाचार के खिलाफ वह आंदोलन कर रहे थे। महज 50 दिन बाद जब केजरीवाल ने इस्तीफा दे दिया तब यह धारणा बनी कि वह चुनौतियों का सामना नहीं कर सके और दिल्ली को अधर में छोड़कर भाग खड़े हुए। दिल्ली में उपराज्यपाल शासन के दौरान भाजपा को पूरे देश में अभूतपूर्व कामयाबी मिली। जब दिल्ली में दोबारा विधानसभा चुनाव होने को आए तो यह माना गया कि भाजपा अपने विरोधी दलों पर भारी पड़ेगी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। केजरीवाल के जुझारुपन और भाजपा की अपनी कुछ भूलों के कारण आप दिल्ली में 70 में से 67 सीटें जीतकर इतिहास रचने में सफल रही।
प्रबल जीत के बाद केजरीवाल से जनता की उम्मीदें और बढ़ गईं, लेकिन उन्होंने राजनीति का ऐसा रास्ता अख्तियार किया जो बात-बात पर केंद्र से टकराव मोल लेने वाला था। उनका ध्यान दिल्ली के विकास पर कम, बल्कि खुद को भाजपा और विशेष रूप से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सबसे बड़े विरोधी के रूप में स्थापित करने पर अधिक रहा। उन्होंने उन संवैधानिक सीमाओं की भी परवाह नहीं की जो दिल्ली में शासन के संदर्भ में निर्धारित की गई हैं। नतीजा यह हुआ कि दिल्ली में विकास की रफ्तार थमती नजर आने लगी। दिल्ली के उपराज्यपाल से उनके टकराव की खबरें लगभग रोज ही आने लगीं। भाजपा विरोध के नाम पर केजरीवाल कभी प्रधानमंत्री के खिलाफ बेजा टिप्पणी करते दिखे तो कभी वित्तमंत्री अरुण जेटली और अन्य केंद्रीय मंत्रियों के खिलाफ। प्रधानमंत्री को उन्होंने कायर और मनोरोगी तक कहा। अपनी इस अमर्यादित टिप्पणी को उन्होंने सही ठहराने की भी कोशिश की। इसी तरह वह मानहानि के मुकदमे में अपने वकील राम जेठमलानी की तीन करोड़ की फीस सरकारी खजाने देने के अपने फैसले को भी सही बताने पर अड़े। अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा के चलते ही केजरीवाल ने दिल्ली से बाहर भी आप को चुनावी मैदान में उतारने का फैसला किया। पंजाब और गोवा पर उन्होंने विशेष रूप से ध्यान केंद्रित किया।

जब चुनाव नतीजे आए तो आप को गोवा में बुरी तरह नाकामी का सामना करना पड़ा और पंजाब में वह केवल बीस सीटों पर सिमट गई। ध्यान रहे कि आम आदमी पार्टी की ओर से पंजाब में करीब सौ सीटें जीतने का दावा किया जा रहा था। आप ने इन नाकामियों को सहजता से स्वीकार नहीं किया। उसने आरोप लगाया कि इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन में छेड़छाड़ की गई है। दिल्ली नगर निगम चुनाव में दयनीय प्रदर्शन के बाद तो केजरीवाल ने ईवीएम और चुनाव आयोग के खिलाफ आंदोलन छेड़ने का ही फैसला कर लिया। केजरीवाल और उनके साथी अभी भी इस पर जोर देने में लगे हैं कि ईवीएम से निष्पक्ष चुनाव संभव नहीं है और उससे छेड़छाड़ करना बड़ा आसान है। आप के एक विधायक ने दिल्ली विधानसभा में नकली ईवीएम से कथित छेड़छाड़ की नुमाइश भी की। इस हास्यास्पद और बचकाने रुख से आम आदमी पार्टी यही साबित कर रही है कि उसकी कथित नई राजनीति एक ढकोसला है। आश्चर्य नहीं कि इसी कारण एक के बाद एक नेता आप का साथ छोड़ रहे हैं। पंजाब में पार्टी के प्रमुख गुरप्रीत सिंह ने आप से किनारा कर लिया तो दिल्ली में मंत्री रहे कपिल मिश्रा ने न केवल केजरीवाल और एक अन्य मंत्री सत्येंद्र जैन के खिलाफ निजी भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगाए, बल्कि अनशन पर भी बैठ गए। कपिल मिश्रा ने जो आरोप लगाए हैं उन पर केजरीवाल की ओर से कोई सफाई नहीं आई है।

वह अन्य मसलों पर तो बोल रहे हैं, लेकिन अपने ऊपर लगते आरोपों पर मौैन हैं। यह कोई पहला अवसर नहीं है जब आप के किसी बड़े नेता ने पार्टी छोड़ी हो। तमाम ऐसे नेता भी पार्टी छोड़कर जा चुके हैं जिन्होंने आप की स्थापना की थी। प्रशांत भूषण, योगेंद्र यादव, आनंद कुमार समेत अनेक नेताओं का या तो केजरीवाल की कार्यप्रणाली से मोहभंग हुआ या फिर उन्हें आप के रंग-ढंग पसंद नहीं आए। आप का उदय एक राजनीतिक संभावना के साथ हुआ था। उसे मुख्यधारा के राजनीतिक दलों के मजबूत विकल्प के रूप में देखा गया था, लेकिन दो-तीन साल में ही वह उम्मीद टूटती नजर आ रही है। इसकी जिम्मेदार खुद आप ही है, जिसने जरूरत से ज्यादा तेजी से आगे बढ़ने के चक्कर में अपनी विश्वसनीयता पर खुद ही चोट की। आप के पास अभी भी संभलने-सुधरने का मौका है। दिल्ली में उसके पास करीब साढ़े तीन साल का समय बचा है। वह इस समय का उपयोग दिल्ली में बेहतर शासन देने और इससे भी अधिक अपनी साख बेहतर करने में कर सकती है। आप की एक बड़ी चिंता उसके बीस से अधिक विधायकों के संदर्भ में चुनाव आयोग के संभावित निर्णय को लेकर है। इन विधायकों पर लाभ का पद धारण करने के आरोप में अयोग्यता की तलवार लटक रही है। फैसला चुनाव आयोग को करना है। माना जा रहा है कि इसीलिए केजरीवाल ईवीएम के बहाने आयोग पर उलटे-सीधे आरोप लगा रहे हैं। अगर चुनाव आयोग का फैसला आप के विधायकों के खिलाफ आया तो केजरीवाल की मुश्किलें बढ़नी तय हैं।
आज के माहौल में जब देश की आधी से अधिक आबादी युवाओं की है तब राजनेताओं से भी यह अपेक्षा की जाती है कि वे युवाओं की अपेक्षाओं को समझें। दिल्ली सरीखे राज्य में तो यह और भी आवश्यक है, क्योंकि यह देश की राजधानी है और यहां जातिवाद और पिछड़ेपन की वैसी राजनीति नहीं है जैसी देश के अनेक अन्य हिस्सों में हैं। यहां का शासन संभालने वाली सरकार के मुखिया को तो कहीं अधिक जिम्मेदारी के साथ अपने दायित्वों का निर्वहन करना चाहिए। इसके बजाय केजरीवाल अभी भी एक आंदोलनकारी की तरह व्यवहार कर रहे हैं। एक के बाद एक राजनीतिक झटकों के बाद उन्होंने यह तो माना कि उनसे कुछ गलतियां हुई हैं जिन पर वह आत्मचिंतन करेंगे, लेकिन ऐसा कुछ करने के बजाय वह ईवीएम के खिलाफ आंदोलन की तैयारी में हैं।

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