यदि ऐसा होता है, तो क्या उनके भाई और पंजाब के मुख्यमंत्री शाहबाज शरीफ नए प्रधानमंत्री के रूप में लौटेंगे? शाहबाज और उनके परिवार के किसी सदस्य का नाम पनामा केस में शामिल नहीं है। पाकिस्तान तहरीक इंसाफ (पीटीआई) के नेता इमरान खान भी ऐसी ही उम्मीद लगाए बैठे हैं। पहले यह उम्मीद जताई जा रही थी कि पीटीआई पाकिस्तान में सरकार बनाने में अहम भूमिका निभाने वाले पंजाब प्रांत की राजनीति को बिगाड़ सकती है, मगर पूर्व क्रिकेटर ने कुछ ऐसी राजनीतिक गल्तियां की हैं, जिनसे उनकी लोकप्रियता पर असर पड़ा है।
पंजाब में पीएमएल(एन) को पीटीआई के अलावा किसी और दल से वास्तव में कोई बड़ी चुनौती नहीं है। सिंध का शहरी इलाका खासतौर से कराची और हैदराबाद पारंपरिक रूप से मुत्तहिदा कौमी मूवमेंट (एमक्यूएम) का गढ़ रहा है, जबकि ग्रामीण सिंध हमेशा से पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के नियंत्रण में रहा।
हाल ही के घटनाक्रम में एमक्यूएम के प्रमुख अलताफ हुसैन को ही पार्टी से बाहर कर दिया गया जिससे एमक्यूएम के दो धड़े हो गए हैं। यदि चुनाव से पहले इन दोनों का विलय नहीं होता, तो फिर शहरी सीटों पर पीपीपी को लाभ हो सकता है। सबसे हताश करने वाली भूमिका पीटीआई की रही है, जिसने पिछले आम चुनाव में शहरी क्षेत्रों में अच्छी खासी लोकप्रियता अर्जित की थी, लेकिन उसने अपने निर्वाचन क्षेत्रों की पूरी तरह से उपेक्षा कर दी, जिससे इस बात की कम ही उम्मीद है कि वह एमक्यूएम के लिए कोई राजनीतिक चुनौती बनेगी। बलूचिस्तान में मिला जुला असर दिख रहा है और उसके अतीत से यह अलग नहीं है, लेकिन पंजाब से बाहर यही ऐसा प्रांत था, जिसने पीएमएल (एन) का समर्थन किया था। यह स्पष्ट नहीं है कि क्या पीटआई खैबर पख्तूनख्वा में वापसी कर पाएगा, क्योंकि इमरान खान ने वहां के बजाए इस्लामाबाद और दूसरे बड़े शहरों में अधिक वक्त बिताया है।
पिछले कुछ वर्षों में पाकिस्तानियों ने जो कुछ देखा और भोगा है उससे वे आजिज आ चुके हैं। उग्रवाद और आतंकवाद ने उनसे अमन और विकास छीन लिया है। अधिकांश लोगों के पास इमरान के प्रदर्शनों में हिस्सा लेने के लिए न तो धैर्य बचा है और न ही उनके पास इतना समय है। दुनिया के दूसरे हिस्से के लोगों की तरह वे भी रोजगार, स्वास्थ्य सुविधाएं और अपने बच्चों के लिए अच्छी शिक्षा चाहते हैं। पीटीआई के प्रदर्शनों ने लोगों को भारी नुक्सान पहुंचाया है। इसकी वजह से शहर ठप हो गए।
प्रधानमंत्री नवाज शरीफ के खिलाफ एक बड़ा मुद्दा यह है कि वह विदेश मंत्री के पद पर किसी को नियुक्त करने में नाकाम रहे और प्रधानमंत्री आवास से ही विदेश मंत्रालय का काम देखते रहे। वैसे भी विदेश नीति से संबंधित बहुत-सा काम रावलपिंडी स्थित सेना के मुख्यालय (जीएचक्यू) से संचालित होता है, सो विदेश मंत्रालय के पास बहुत थोड़ा-सा काम रह गया। मंत्रालय के पास क्षेत्र के शानदार राजनयिकों में शुमार कुछ अच्छे राजनयिक हैं, विशेष सहायक और सलाहकार के साथ ही विदेश सचिव हैं, इसके बावजूद महत्वपूर्ण नीतियां पीएमओ और जीएचक्यू में तय होती हैं। मोदी सरकार ने अपने विदेश सचिव को एक वर्ष की सेवावृद्धि दी है, पाकिस्तान के विदेश सचिव भी सेवानिवृत्त हो रहे हैं और उन्हें अमेरिका में पाकिस्तानी दूत के लिए नामांकित किया गया है। विदेश सचिव पद की दौड़ में महिला राजनयिक तहमीना जंजुआ भी शामिल हैं, और कई लोग उम्मीद कर रहे हैं कि पाकिस्तान को पहली महिला विदेश सचिव मिल सकती है। एक सवाल बार बार उठाया जाता है कि क्या पाकिस्तान में कोई विदेश मंत्री होता तो उसकी विदेश नीति कहीं अधिक सफल होती? आखिर पाकिस्तान के अपने पड़ोसियों भारत, अफगानिस्तान और ईरान के साथ बेहतर रिश्ते नहीं हैं। इसमें संदेह नहीं कि किसी भी देश में ऐसी विदेश नीति नहीं हो सकती, जो सिर्फ सुरक्षा के एकमात्र पहलू पर केंद्रित हो।
पाकिस्तान सहित दुनिया के तमाम देशों की राजधानियों में आतंकवाद एक बड़ा मुद्दा है, लेकिन सुरक्षा संबंधी कारणों से उपजे तनाव में व्यापार संबंधी दूसरे मुद्दे भी अंतर्निहित होते हैं। पाकिस्तान के भारत और अफगानिस्तान से व्यापारिक संबंधों के मामले में यह सच है। तुलनात्मक रूप से पाक-अफगान व्यापार भारत से व्यापार से बड़ा है, क्योंकि राजनीतिक तनाव का असर व्यापार पर भी पड़ा है। हालांकि अफगानिस्तान से व्यापार में भी गिरावट आई है और इसके पीछे सीमा पर बरती जा रही कड़ाई है। एक पूर्णकालिक विदेश मंत्री के होने से स्थितियां अलग हो सकती थीं।