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राज्यसभा में सुधार का सही समय

राष्ट्रपति और उप-राष्ट्रपति चुनाव, राष्ट्रीय-पिछड़ा वर्ग संशोधन विधेयक पर सरकार की लज्जाजनक हार और सदस्यों की गैरहाजिरी को लेकर संसद का उच्च सदन राज्यसभा अचानक कुछ ज्यादा ही सुर्खियों में आ गया है। नरेंद्र मोदी सरकार के लोकसभा चुनाव 2014 में प्रचंड बहुमत प्राप्त करने के बाद से राज्यसभा बराबर लोकसभा से टकराव का रास्ता अपनाए हुए है। राज्यसभा को कानून बनाने और संविधान संशोधन करने के संबंध में लोकसभा के बराबर अधिकार है, लेकिन अभी भाजपा को राज्यसभा में बहुमत हासिल नहीं है। हालांकि संविधान के अनुच्छेद 108 के अनुसार दोनों सदनों में किसी कानून को पारित करने पर विवाद की स्थिति में राष्ट्रपति उनका एक संयुक्त अधिवेशन बुला सकता है। केवल धन-विधेयक पर राज्यसभा को कोई अधिकार नहीं।

इसीलिए मोदी सरकार ने आधार-विधेयक को धन-विधेयक के रूप में पेश किया जिससे उसे राज्यसभा के व्यवधान से बचाया जा सके, परंतु प्रत्येक विधेयक के मामले में ऐसा करना संभव नहीं है। तो क्या राज्यसभा द्वारा विरोध और व्यवस्थापन में व्यवधान के चलते प्रचंड जनादेश प्राप्त किसी सरकार को काम करने से रोका जा सकता है? मोदी सरकार ने संविधान के अनुच्छेद 338 और 338(अ) के अंतर्गत ‘राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग’ और ‘राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग’ की तर्ज पर एक ‘राष्ट्रीय-पिछड़ा वर्ग आयोग’ बनाने के लिए संविधान संशोधन विधेयक पेश किया था। संविधान के अनुच्छेद 340 में राष्ट्रपति को एक पिछड़ा वर्ग आयोग बनाने का अधिकार है, पर उस आयोग का स्तर अनुसूचित-जाति और अनुसूचित जनजाति राष्ट्रीय आयोग जैसा नहीं है। शायद बहुतों को पता भी नहीं कि अनेक जनजातियां गलती से पिछड़े-वर्ग में सम्मिलित कर ली गई हैं और बहुत सी जातियां पिछड़े वर्ग में प्रवेश के लिए तरस रहीं हैं। इसलिए राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग बहुत महत्वपूर्ण विधेयक है, लेकिन कांग्रेस के दिग्विजय सिंह ने राज्यसभा में संख्या बल के आधार पर ऐसा संशोधन करवा लिया जिससे पिछड़ा वर्ग आयोग इस स्वरूप में मूर्त रूप ही न ले सके। क्या कांग्रेस को डर था कि संशोधन विधेयक पास होने से भाजपा को उसका राजनीतिक लाभ मिलेगा? शायद कांग्रेस यह भूल गई कि उसका यह दांव उल्टा भी पड़ सकता है और पिछड़ों में आधार बढ़ाने की दौड़ में वह और पिछड़ सकती है। 

सरकार को अब वही कवायद दोबारा करनी पड़ेगी। लोकसभा में उस संशोधन विधेयक को दोबारा प्रस्तुत करना पड़ेगा और फिर उसे दोबारा राज्य सभा में भेजना पड़ेगा। राज्यसभा को यह नहीं भूलना चाहिए कि वह जनता द्वारा निर्वाचित सदन नहीं है और उसे लोकसभा से टकराव का रास्ता नहीं अपनाना चाहिए। इससे न केवल वह अपने मूल दायित्व से विमुख हो रही है, वरन जनता का भी कोप-भाजन बन सकती है। संविधान बनाते समय राज्यसभा को उच्च सदन की गरिमापूर्ण स्थिति दी गई और उम्मीद की गई थी कि दलगत राजनीति से ऊपर उठ कर वह स्तरीय बहस के आधार पर विधेयकों में सुधार और राज्यों के संघीय हितों का संरक्षण करेगी, न कि पिछड़ा वर्ग विधेयक जैसे प्रगतिशील विधेयकों को नष्ट करने का काम करेगी। यदि राज्यसभा कामकाज में रुकावट बनती है तो वह स्वयं अपनी गरिमा पर प्रहार करेगी। राज्यसभा में प्रतिपक्ष के नेता गुलाम नबी आजाद ने ठीक ही कहा कि ‘किसी को भी सदन को कमजोर करने का प्रयास नहीं करना चाहिए’, लेकिन ऐसा लगता है कि स्वयं उनकी अपनी ही कांग्रेस पार्टी ऐसा कर रही है। राज्यसभा सदस्यों को यह भी नहीं भूलना चाहिए कि सदन जनता के टैक्स से चलता है और सदन के सजीव प्रसारण से जनता को उन्हें अच्छी तरह से देखने-जांचने का मौका मिलता है। राज्यसभा में सदस्यों के व्यवहार से न केवल सदन के प्रति जनमत बनता है वरन राजनीतिक दलों का भी जन-मूल्यांकन होता रहता है जिसका दूरगामी प्रभाव दूसरे सदन लोकसभा के चुनावों पर भी पड़ता है।

हमारे संविधान बनाने वाले 299 विद्वानों ने ब्रिटिश संसदीय व्यवस्था का अनुसरण किया, लेकिन राज्यसभा का स्तर वहां की समकक्ष लॉर्ड-सभा (हाउस ऑफ लॉड्र्स) जैसा नहीं रखा। लॉर्ड-सभा को न तो कोई कानून बनाने का अधिकार है, न ही संविधान में संशोधन का। लॉर्ड-सभा में केवल वाद-विवाद होते हैं। यदि वहां की कॉमन-सभा (हाउस ऑफ कॉमंस जो हमारी लोकसभा का समकक्ष है) और सरकार उन वाद-विवादों से लाभान्वित होना चाहे तो और बात है। ब्रिटेन की लॉर्ड सभा कभी भी लोक सदन के लिए व्यवधान नहीं बन सकती और यह व्यवस्था आज से नहीं, वरन वर्ष 1910 से लागू है। इस संबंध में अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा गठित न्यायमूर्ति एमएन वेंकटचलैया संविधान समीक्षा समिति की मार्च 2002 में की गई सिफारिशें याद आती हैं। राज्यसभा के संबंध में समिति ने खास तौर से सिफारिश की थी कि सदन का अधिवेशन कम से कम 100 दिन अवश्य चले और सदस्य अपने आचरण और व्यवहार से संसद की प्रतिष्ठा और गरिमा को बनाने की कोशिश करें। 

समिति ने नए सदस्यों के गंभीर प्रशिक्षण की भी सिफारिश की थी जिससे वे संसद की जटिल प्रक्रियाओं, व्यवस्थाओं, नियमों, परंपराओं और संसदीय मर्यादाओं से रूबरू हो सकें, लेकिन राज्यसभा में गैरहाजिरी और विविध विषयों पर वाद-विवाद में सदस्यों की घटती रुचि के चलते एक नई समस्या पैदा हो गई है। राज्यसभा में 12 सदस्यों को साहित्य, विज्ञान, कला, और सामाजिक सेवा के क्षेत्र में विशेष ज्ञान या व्यावहारिक अनुभव के आधार पर मनोनीत किए जाने का प्रावधान है, लेकिन मनोनीत सदस्य तो जैसे भूले-भटके ही कभी राज्यसभा पहुंचते हैं। जैसा कि राज्यसभा सदस्य नरेश अग्रवाल ने मांग की कि रेखा और सचिन जैसे मनोनीत सदस्य या तो सदन में आएं या त्यागपत्र दें। मनोनीत सदस्यों को रखने के पीछे तर्क यह था कि ऐसे लोग चुनाव आदि के बारे में कभी नहीं सोच सकते, इसलिये उनके ज्ञान और अनुभव का प्रयोग कर बेहतर कानून बनाने के लिए उनका मनोनयन किया जाए, पर यदि ऐसे सदस्य सदन में आते ही नहीं तो मनोनयन का क्या औचित्य? 

राज्यसभा में सुधार अब अपरिहार्य हो गए हैं। राजनीतिक नफा-नुकसान से ऊपर उठकर संघवाद और संसदीय लोकतंत्र की मूल भावना के अनुरूप संवैधानिक संशोधन करने होंगे। यह ठीक है कि अभी भाजपा और राजग का राज्यसभा में संख्या बल नहीं है, लेकिन जैसे-जैसे विभिन्न राज्यों में भाजपा अपनी पकड़ बना रही है उससे उम्मीद है कि 2019 आते-आते राज्यसभा में भी मोदी सरकार को काफी राहत हो जाएगी। फिर भी इस पर गंभीर चर्चा होनी चाहिए कि क्या भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में जनादेश पर आधारित लोकसभा गैर-जनादेश पर आधारित राज्यसभा की बंधक होनी चाहिए? क्या सामान्य कानून बनाने में भी लोकसभा और राज्यसभा के संबंध में संविधान के अनुच्छेद 109 में धन-विधेयकों के संबंध में वर्णित प्रावधानों जैसे नहीं हो सकते? क्या दोनों सदनों के पारस्परिक संबंधों के निर्धारण में हम ब्रिटेन के संविधान का अनुसरण नहीं कर सकते? ऐसा करने से राज्यसभा की गरिमा पर कोई आंच नहीं आएगी, वरन उसे जनादेश और जनाकांक्षा के और अनुरूप बनाया जा सकेगा। 

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