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बिहार में महागठबंधन में बढ़ती दरार को लेकर नेता त्‍यागी ने कहा, बीजेपी से रिश्‍ते ज्‍यादा सहज थे

nitish-kumar-lalu-prasad-yadav_650x400_51498120303पटना: बिहार की सत्तारूढ़ महागठबंधन के दो शीर्ष नेता, जनता दल यूनाइटेड (जेडीयू) के अध्यक्ष नीतीश कुमार और राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के अध्यक्ष, लालू यादव भले शांत बैठे हों लेकिन इन दोनो नेताओं के क़रीबी नेता अब अपने-अपने नेताओं के लिये आक्रामक मुद्रा में हैं. भले ही नीतीश और लालू ने अपनी पार्टी के प्रवक्ताओं को संयम से बयान देने की नसीहत दी हो लेकिन अभी भी सब कुछ सामान्य नहीं है. जहां एक ओर नीतीश कुमार की ओर से उनके पार्टी के राष्ट्रीय प्रवक्ता केसी त्यागी ने कांग्रेस पार्टी के वरिष्ठ नेता ग़ुलाम नबी आज़ाद के ख़िलाफ़ बोलते हुए यहां तक कह डाला कि अटल बिहारी वाजपेयी के समय उनकी पार्टी कभी एक सहयोगी के तौर पर असहज नहीं थी जिसका सीधा अर्थ ये माना गया कि वर्तमान महागठबंधन की सरकार में वो सहज नहीं महसूस कर रही.

इसके साथ ही नीतीश के क़रीबी और पूर्व विधान पार्षद संजय झा ने तो ग़ुलाम नबी आज़ाद के बयान पर यहां तक कह डाला कि इमरजेंसी के दौरान अपने सिद्धांत और लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा के लिए एक इंजीनियरिंग पास युवक को 19 महीने तक बक्सर और भागलपुर जेल में कैद रहना पड़ा. अभी कांग्रेस के नेता ने नीतीश कुमार के सिद्धांत को लेकर बयान दिया है. ये कांग्रेस के उसी यूथ ब्रिगेड के सदस्य हैं जो इमरजेंसी के दौरान सभी लोकतांत्रिक मूल्यों और सिद्धांतों को कुचलने में लगे थे. मैं कांग्रेस के वरिष्ठ नेता को याद दिलाना चाहता हूं कि कांग्रेस और आप जैसे तत्कालीन युवा नेताओं के ‘सिद्धांत’ की वजह से ही नीतीश कुमार को भी देश के लाखों लोगों के साथ 19 महीने तक जेल में रहना पड़ा था.

झा ने कांग्रेस के राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार मीरा कुमार के बारे में चर्चा कहते हुए उनके पिता के प्रसंग को याद दिलाते हुए कहा की आज कांग्रेस के नेताओं को स्वर्गीय जगजीवन बाबू की अचानक याद आने लगी है. उन्हें ये नहीं भूलना चाहिए कि इमरजेंसी के दौरान इनकम टैक्स का डर दिखाकर उन्हें किस हद तक प्रताडि़त किया गया था. यही कारण था कि इमरजेंसी के बाद जगजीवन बाबू कांग्रेस छोड़कर चले गए.

इस बयान के एक ही दिन पहले झा ने तेजस्वी यादव के ‘दिल की बात’ पर कहा था कि उन्हें नजर उठाकर यह देखने की आवश्यकता है कि सोशल मीडिया पर लंबी-चौड़ी बातें लिखने और सामाजिक न्याय की बातें करने भर से समाज का उत्थान नहीं होता है. इसके लिए जमीन पर काम करने की जरूरत होती है. 17 साल तक सत्ता में रहने वाले और सेक्युलरिज्म का ढोल पीटने वाले नेता ‘भागलपुर दंगा’ पीड़ितों को न्याय नहीं दिला सके थे.

संजय झा ने लालू-रबड़ी राज पर सीधा हमला बोलते हुए कहा कि आयोग की सिफारिश के आधार पर पैरवी पैगाम के सहारे बंद हो चुके केस को फिर से खुलवाया गया. इन मामलों में कुछ अपराधियों को सजा भी मिली तो कुछ के खिलाफ आज भी केस चल रहे हैं. आयोग की सिफारिश के आधार पर 1984 ‘सिख दंगा’ पीड़ितों की तर्ज पर ‘भागलपुर दंगा’ पीड़ितों को मुआवजे के साथ-साथ मासिक पेंशन भी दिया गया. मेरे ख्याल से बिहार के इतिहास में यह सबसे बड़ी सामाजिक न्याय की लड़ाई थी. नीतीश कुमार ने जितनी बड़ी लकीर आज खींच दी है उससे आगे बढ़ना सेक्यूलरिज्म का ढोल पीटने वालों के लिए संभव नहीं है.

लेकिन राष्ट्रीय जनता दल के नेता इस पर कहां चुप रहने वाले थे. उनकी तरफ़ से कभी नीतीश और इन दिनों लालू यादव के साथ हर जगह बैठने वाले शिवानन्द तिवारी ने नीतीश कुमार को एक साथ कई नसीहत दे डाली. शिवानंद ने अपने बयान में कहा कि नीतीश इतने मूर्ख नहीं हैं कि इस गठबंधन से अलग होकर पुनः भाजपा के साथ रिश्ता जोड़ें. तिवारी ने कहा कि नीतीश की पार्टी के नेता कहते हैं कि उनकी ‘अथॉरिटी’ को आरजेडी वालों ने चुनौती दी है. कैसी अथॉरिटी?. गठबंधन में मनमाना करने की अथॉरिटी नहीं मिलती है. गठबंधन ने आपको नेता बनाया है. आपका दायित्व बनता है कि आप सबको भरोसे में लेकर चलें.

शिवानन्द ने नीतीश पर व्‍यंग्‍य करते हुए कहा कि मोदी जी के उम्मीदवार का समर्थन करने में उन्हें कोई संकोच नहीं हो रहा है. जबकि एनडीए में रहते हुए इनको नरेंद्र मोदी से इतना परहेज़ था कि भोज का न्योता देकर वापस ले लिया था. आज उन्हीं मोदी का राष्ट्रपति उम्मीदवार इनको रुचने लगा है. हालांकि अभी भी मुझे लगता है कि नीतीश गठबंधन से अलग नहीं होंगे. अगर ऐसा हुआ तो नीतीश भले ही मुख्यमंत्री बने रह जायं लेकिन लोगों के चित्‍त से उतर जाएंगे. एक छोटी पार्टी के नेता होने के बावजूद उनकी जो राष्ट्रीय छवि बनी हुई है वह धूल में मिल जाएगी.

ये सर्वविदित है कि शिवानन्द और संजय झा दोनों बिना लालू और नीतीश की सहमति के सार्वजनिक रूप से बयान देने की हिम्मत नहीं जुटाएंगे. शिवानन्द का बेटा राष्ट्रीय जनता दल से विधायक भी हैं. लेकिन राजनीतिक जनकारों के मुताबिक़ लालू और नीतीश के बीच विश्‍वास की डोरी बहुत कमज़ोर हो चुकी है. ऐसे में बिहार में महागठबंधन सरकार का भविष्‍य अधर में लटक गया है.

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