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पुलिस क्यों नहीं लड़ती नक्सलियों से

02केंद्र सरकार की ओर से राज्य सरकारों पर यह भी दबाव डालना पड़ेगा कि वे पुलिस को इतना सशक्त बनाएं कि वह स्वयं माओवादियों से लड़ सके पिछले कुछ समय से भारत सरकार की ओर से बराबर यह संकेत दिया जा रहा था कि नक्सल समस्या अब काबू में आ रही है। बीते साल 25 नवंबर 2016 को पुलिस महानिदेशकों के सम्मेलन को संबोधित करते हुए भारत सरकार के गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने यहां तक कहा था कि माओवादियों की चुनौती अगले पांच वर्ष में खत्म हो जाएगी। उन्होंने यह भी दावा किया था कि अधिकांश राज्यों में माओवादी सिमटते जा रहे हैं।

इसमें संदेह नहीं कि सुरक्षा बलों को इधर महत्वपूर्ण सफलता मिली है और माओवादियों की हिंसा में उल्लेखनीय कमी भी आई है। यदि छत्तीसगढ़ का उदाहरण लें, जो सबसे ज्यादा माओवाद से प्रभावित प्रदेश है, तो वहां 10 वर्ष पूर्व 2007 में 350 व्यक्ति मारे गए थे जिनमें 182 सुरक्षाकर्मी, 73 माओवादी और 95 सामान्य नागरिक शामिल थे। 2016 में यह संख्या घटकर 207 हो गई थी जिनमें सुरक्षाकर्मियों की संख्या 36, माओवादियों की 133 और आम नागरिकों की संख्या 38 थी। भौगोलिक दृष्टि से देखा जाए तो भी माओवादियों से प्रभावित क्षेत्र में उल्लेखनीय कमी आई है। 2010 में 20 राज्यों के कुल 223 जनपद माओवाद से प्रभावित थे, आज यह संख्या घटकर 13 राज्यों के 106 जनपदों तक सीमित हो गई है। प्रतिबंधित भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) की सेंट्रल कमेटी एवं उसके पोलित ब्यूरो के कई सदस्यों को भी ठिकाने लगा दिया गया है।

यह माओवादी पार्टी अपने दस्तावेजों में यह मानती है कि उसे काफी क्षति हुई है और वह टैक्टिकल रिट्रीट यानी सामरिक दृष्टि से पीछे हटने की स्थिति में है। यह सब होते हुए भी सुकमा में 24 अप्रैल 2017 की घटना ने पूरे देश को झकझोर दिया है। केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल यानी सीआरपीएफ की एक सड़क सुरक्षा टुकड़ी पर माओवादियों ने घात लगाकर हमला किया जिसमें उसके 25 जवान शहीद हो गए। इतना ही नहीं, माओवादी भारी मात्र में हथियार भी लूट ले गए जिसमें 12 एके राइफल, 22 बुलेट प्रूफ जैकेट, करीब 3,400 राउंड गोलियां, एके राइफल की 75 मैगजीन, इन्सास राइफल की 35 मैगजीन प्रमुख तौर पर शामिल हैं। इस सबके अलावा माओवादी कुछ ग्रेनेड लांचर भी ले गए। सीआरपीएफ के लिए नहीं, बल्कि भारत सरकार के नक्सल विरोधी अभियान के लिए भी यह बहुत बड़ा झटका है।

यह समझने की जरूरत है कि आखिर ऐसा क्यों हुआ? 2010 में छत्तीसगढ़ के ही दंतेवाड़ा जनपद में सीआरपीएफ के 75 जवान शहीद हो गए थे। उस घटना के सात वर्ष बाद सीआरपीएफ के ही 25 जवान वीरगति को प्राप्त हुए। हमें ईमानदारी से अपनी कमजोरियों का विश्लेषण और उनका निवारण करना पड़ेगा, अन्यथा इस तरह का दुखद घटनाक्रम चलता रहेगा। पहली बात तो राज्य पुलिस और केंद्रीय बलों में तालमेल और पारस्परिक सहयोग की आती है। दुर्भाग्य से राज्य पुलिस को नक्सल विरोधी अभियान में जो भागीदारी निभानी चाहिए वह नहीं निभाई जा रही है। हमारा पंजाब का अनुभव बताता है कि ऐसी लड़ाई में यह आवश्यक होता है कि राज्य पुलिस अग्रणी भूमिका निभाए और केंद्रीय बल उन्हें सहायता मुहैया कराए, परंतु अविभाजित आंध्र प्रदेश की पुलिस को छोड़कर सभी प्रदेशों में पुलिस ने केंद्रीय बलों को घोड़े की काठी जैसा बना लिया है।

लड़ने के लिए सीआरपीएफ और अन्य केंद्रीय बलों को आगे कर दिया जाता है। ऐसे मौकों पर स्थानीय पुलिस की भागीदारी नाममात्र की होती है, जबकि इसके उलट होना चाहिए। राज्यों की पुलिस को आगे बढ़ मोर्चा संभालना चाहिए और केंद्रीय बलों को उनकी सहायता करनी चाहिए। जब तक यह समीकरण ठीक नहीं होगा तब तक ढुलमुल स्थिति बनी रहेगी। 1छत्तीसगढ़ की वर्तमान सरकार एक दशक से ज्यादा समय से सत्ता में है। इतना समय समस्या को समझने और पुलिस को सशक्त बनाने के लिए पर्याप्त था, फिर भी छत्तीसगढ़ के पुलिस बल में नक्सलियों से लड़ने का जज्बा नहीं दिखता। अगर प्रदेश पुलिस में लड़ने की क्षमता कम है तो वह कम से कम केंद्रीय बलों की पर्याप्त सहायता तो कर ही सकती है। कहा जाता है कि सीआरपीएफ की सड़क सुरक्षा करने वाली टुकड़ी पर करीब 300 माओवादियों ने हमला किया। आखिर ये माओवादी आसमान से तो टपके नहीं होंगे। ये वहीं जंगलों में एकत्रित हो रहे होंगे। ऐसा कैसे हुआ कि पुलिस-प्रशासनिक तंत्र के किसी भी व्यक्ति को उनकी उपस्थिति की सूचना नहीं लगी और सीआरपीएफ को आगाह तक नहीं किया जा सका? नि:संदेह पुलिस इंटेलिजेंस की खामी रही।

सवाल है कि क्षेत्र के पटेल, सरपंच, खंड विकास अधिकारी यानी बीडीओ, सब-डिविजिनल अधिकारी इत्यादि क्या सब सोते रहे कि उन्हें इतनी बड़ी संख्या में माओवादियों के एकत्रित होने की भनक तक नहीं लगी? राज्य सरकार की इस भयंकर विफलता का ही खामियाजा सीआरपीएफ को भुगतना पड़ा।1यह कहते हुए अच्छा तो नहीं लगता, लेकिन सीआरपीएफ की तरफ से भी किसी न किसी स्तर पर ढिलाई बरती गई। इसी क्षेत्र में 11 मार्च 2017 को सीआरपीएफ की एक सड़क सुरक्षा टुकड़ी के 12 जवान मारे गए थे। इस घटना को देखते हुए 74 बटालियन को विशेष सावधानी बरतनी चाहिए थी। ऐसा प्रतीत होता है कि नक्सलियों का निशाना बनी सीआरपीएफ की टुकड़ी की सही ढंग से ब्रीफिंग नहीं हुई थी और उनके नेतृत्व में भी खामी थी। अगर सुरक्षा बल पर्याप्त सावधानी नहीं बरतेंगे तो जाहिर है उन्हें माओवादियों से मुंह की खानी पड़ेगी और ऐसा ही हुआ।

सीआरपीएफ में अब नए महानिदेशक आ गए हैं। उन्हें सुनिश्चित करना पड़ेगा कि उनकी जो टुकड़ी ऐसे क्षेत्रों में जाती है वह काउंटर इंसरजेंसी में प्रशिक्षित हो और उसे उत्तम नेतृत्व प्राप्त हो। इस सबके साथ ही उनके पास आधुनिकतम हथियार हों। 1सुकमा में देश को झकझोर देने वाली घटना के बाद गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने 8 मई 2017 को नक्सल प्रभावित सभी प्रदेशों के मुख्यमंत्रियों और पुलिस महानिदेशकों का सम्मेलन बुलाया है। उचित होगा कि इस सम्मेलन में केंद्र सरकार माओवादियों से लड़ने की अपनी नीति स्पष्ट कर दे ताकि राज्य सरकारों में किसी तरह की भ्रम की स्थिति न रहे। यह इसलिए आवश्यक है, क्योंकि वर्तमान में तो सभी राज्य सरकारें अपनी डफली, अपना राग वाली कहावत चरितार्थ करती दिख रही हैं।

नक्सल प्रभावित राज्य सरकारें अपने आकलन के अनुसार माओवाद की समस्या से निपट रही हैं। कहीं नीतीश बाबू एक भाषा बोलते हैं तो ममता बनर्जी दूसरी और रमन सिंह कुछ और कहते हैं। केंद्र सरकार की ओर से राज्य सरकारों पर यह भी दबाव डालना पड़ेगा कि वे पुलिस को इतना सशक्त बनाएं कि पुलिस स्वयं माओवादियों से लोहा ले सके। पुलिस के सूचना तंत्र को भी मजबूत बनाना होगा। साथ ही साथ सामाजिक और आर्थिक स्तर पर ऐसे कदम उठाने होंगे जिससे जनजातियों में अलगाव और विद्रोह की जो भावना आ गई है वह दूर हो सके और वे अपने को मुख्यधारा का अंग समङों। यह समस्या 50 वर्षो से देश के आंतरिक सुरक्षा के लिए चुनौती बनी हुई है। कोई कारण नहीं कि इस समस्या का समाधान सही नीतियों द्वारा नहीं किया जा सकता।

 

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