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पुराने ढर्रे की राजनीति का अंत

21_03_2017-20balbir_punjउत्तर प्रदेश के हालिया जनादेश ने कथित सेक्युलरिस्टों को दो तगड़े झटके दिए। पहला झटका यह रहा कि समूचे प्रदेश में भाजपा के पक्ष में चली समर्थन की आंधी में दूसरे दलों का पत्ता पूरी तरह साफ हो गया। भाजपा एवं सहयोगी दलों को 325 सीटों पर जीत हासिल हुई तो कांग्रेस को महज सात और बसपा 19 एवं सपा 47 सीटों पर ही सिमट गई। इससे पहले कि ये दल जनादेश के झटके से उबर पाते उन्हें दूसरा झटका तब लगा जब योगी आदित्यनाथ को उत्तर प्रदेश की कमान सौंपी गई। योगी ने मुख्यमंत्री की शपथ भी नहीं ली थी कि स्वयंभू सेक्युलर खेमा उनकी हिंदूवादी छवि के कारण उनके खिलाफ लामबंद हो गया। उसने वही घिसी-पिटी दलील देनी शुरू कर दी कि योगी के मुख्यमंत्री बनने से प्रदेश में सांप्रदायिक सद्भाव बिगड़ने के साथ ही अल्पसंख्यकों में असुरक्षा का भाव बढ़ेगा। खुद को सेक्युलर कहने वालों की सेक्युलरवाद की परिभाषा कितनी विकृत है, यह बीते कुछ वर्षों के घटनाक्रम से स्पष्ट है। 1998 में सेक्युलरिस्टों की जमात ने अटल बिहारी वाजपेयाी को तो अपनी परिभाषा के अनुरूप उदार बताया, लेकिन लालकृष्ण आडवाणी उनके लिए सांप्रदायिक थे। ये सेक्युलरवादी 2014 में एक बार फिर बेनकाब हुए जब उन्हीं आडवाणी जी को उन्होंने ‘अच्छा’ बताया और नरेंद्र मोदी को सांप्रदायिक ठहराया। अब जब उत्तर प्रदेश की कमान योगी आदित्यनाथ को सौंप दी गई तब वही खेमा मोदीजी को योगी की तुलना में ‘बेहतर’ बता रहा है।
घोर जातिवादी बसपा ने कुछ वर्ष पूर्व ‘तिलक तराजू और तलवार, इनको मारो जूते चार’ का नारा बुलंद कर समाज को बांटने का प्रयास किया था। संप्रग के शासन में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने वोट बैंक की खातिर देश के संसाधनों पर मुसलमानों का पहला हक बताया था। आज सेक्युलरवाद का अर्थ मुस्लिमों को मजहब के नाम पर एकजुट करना और हिंदुओं को जाति के आधार पर बांटने तक सीमित हो गया है। क्या योगी ने बतौर मुख्यमंत्री अपनी पहली प्रेस वार्ता में ‘सबका साथ, सबका विकास’ एजेंडे को प्राथमिकता देने की घोषणा नहीं की? सत्य यह है कि देश का कथित सेक्युलर तबका किसी एक व्यक्ति का विरोधी नहीं, अपितु हजारों वर्ष पुराने हिंदू दर्शन और उसकी बहुलतावादी संस्कृति को मैकाले-माक्र्सवादी चश्मे से देखने का आदी है।
क्या यह सत्य नहीं कि मतदाताओं ने 2014 के आम चुनाव से सेक्युलरवाद की इस परिभाषा को लगातार खारिज ही किया है? इस पृष्ठभूमि में कांग्रेस सहित अन्य विपक्षी दलों का क्या भविष्य है? क्या उत्तर प्रदेश-उत्तराखंड के मतदाताओं ने कांग्रेस के राजनीतिक दर्शन, कार्यशैली, नेतृत्व को निर्णायक रुप से नकार नहीं दिया है? पहले प्रधानमंत्री पं.नेहरू के दौर से कांग्रेस की राजनीति, उसकी कार्यप्रणाली और सत्ता-प्रतिष्ठानों पर वामपंथ का गहरा प्रभाव रहा। चाहे वह राष्ट्रवादी सरदार पटेल की चेतावनी की अनदेखी करते हुए नेहरु द्वारा चीन पर अंधविश्वास करना रहा हो या गांधीजी की हत्या के बाद संघ पर प्रतिबंध लगाना हो, इंदिरा गांधी के शासन में देश पर आपातकाल थोपना हो, संप्रग सरकार में सोनिया जी द्वारा ‘राष्ट्रीय सलाहकार परिषद’ के रूप में संविधानेत्तर सत्ता का केंद्र स्थापित करना हो, जेएनयू में देश-विरोधी नारे लगाने वालों के साथ राहुल गांधी का कदमताल करना हो या फिर कट्टरपंथियों और अलगाववादियों का समर्थन और भारतीय सेना को अपमानित करना हो। इन सभी घटनाक्रमों पर कांग्रेस की प्रतिक्रिया अपनी मूल राष्ट्रवादी विचारधारा से प्रभावित न होकर वामपंथी दर्शन से प्रेरित रही है। वर्तमान में कांग्रेस राजनीतिक दल न होकर एक परिवार की निजी कंपनी बन गई है जिसका एकमात्र लक्ष्य धनबल से सत्ता प्राप्त करना और सत्तारूढ़ होने पर प्रचुर मात्रा पैसा अर्जित करने तक सीमित हो गया है और उसके लिए विचारधारा अप्रासंगिक है। संप्रगकाल में सामने आए हजारों-लाखों करोड़ रुपये के घोटाले इसकी तार्किक परिणति हैं। कांग्रेस में एक परिवार की पूजा और उसकी चापलूसी ही पार्टी के प्रति वफादारी का प्रतीक है। कांग्रेसी नेता किशोर चंद्र देव और अश्विनी कुमार ने इसी ओर पार्टी का ध्यान आकर्षित किया है।
कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के अस्वस्थ होने के कारण पार्टी कुछ वर्षों से अपने उपाध्यक्ष राहुल गांधी पर आश्रित हो गई है। आज उनकी नेतृत्व क्षमता पर पार्टी के भीतर और बाहर आवाज बुलंद हो रही है। गोवा में सरकार बनाने में विफल सिद्ध होने पर कांग्रेस के दो विधायकों ने उन्हे अपना नेता अस्वीकार करते हुए पार्टी से इस्तीफा दे दिया। क्या कांग्रेस या अन्य विपक्षी दलों का कोई भविष्य है? लोकतंत्र के अच्छे स्वास्थ्य के लिए सशक्त विपक्ष का होना आवश्यक है, मगर इस प्रश्न का उत्तर इस पर निर्भर करता है कि विपक्षी दल अपनी पराजय से कुछ सीखते हैं या नहीं? अपनी नीतियों और कार्यशैली में बदलती हुई परिस्थिति के अनुरूप कोई परिवर्तन करते है या नहीं? कांग्रेस को पुनर्जीवित होने के लिए वामपंथियों से उधार ली हुई केंचुली उतारकर अपनी मूल राष्ट्रवादी विचारधारा की ओर लौटना होगा और नए नेतृत्व की तलाश भी करनी होगी।
गांधीजी जीवनभर लालच, धोखे और भय के कारण होने वाले मतांतरण के विरोध में चर्च के खिलाफ लड़ते रहे, मगर आज कांग्रेस उसके समर्थन में खड़ी नजर आती है। गोरक्षा गांधीजी के लिए स्वराज्य से अधिक प्रिय था। नेहरू-गांधी परिवार का इस पर रुख जगजाहिर है। भारत के विकास के लिए स्वदेशी गांधीजी का मंत्र था। आज इस विषय पर संघ परिवार को छोड़कर कोई अन्य चर्चा भी नहीं करता। जहां गांधीजी देश की एकता-अखंडता के लिए अपनी प्राणों की आहुति देने के लिए तत्पर रहते थे वहीं दिग्विजय सिंह जैसे कांग्रेसी नेता सदैव ही अलगाववादियों के सुर में सुर मिलाते नजर आते हैं। आज कांग्रेस के सामने नेतृत्व का संकट है। परिवारवाद की बेड़ियों से जकड़ी पार्टी एक-एक सांस के लिए संघर्ष कर रही है। भारत के सबसे पुराने दल में नेतृत्व क्षमता की तलाश गांधी-नेहरू परिवार तक ही सीमित है। लोकतंत्र में विरासत में मिला पद स्वाभाविक रूप से जमीन से उपजे संघर्ष की मिट्टी में तपे और विचारधारा की खुराक पर पले-बढ़े नेतृत्व के समक्ष बौना मालूम पड़ता है। कांग्रेस को यदि प्रासंगिक बने रहना है तो उसे अपनी नीतियों पर पुनर्विचार, नेतृत्व में परिवर्तन, नीयत में ईमानदारी और कार्यशैली में पारदर्शिता लानी होगी।
कांग्रेस में पतन का दौर नेहरू के जीवनकाल से ही शुरू हो गया था। उनके शासनकाल से ही पार्टी ने जिस वाम परिभाषित सेक्युलरवाद का प्रचार किया और सत्ता-प्रतिष्ठानों में जगह दी उसने मुस्लिम कट्टरता और हिंदू-विरोधी मानसिकता को ही पोषित किया। स्वतंत्रता के बाद बहुसंख्यकों के लिए नेहरू अविलंब हिंदू कोड बिल लेकर आए, किंतु वोट बैंक के लिए मुस्लिम समुदाय को छूट दे दी। क्या यह सत्य नहीं कि उसी विकृति के आगे झुकते हुए कांग्रेस ने 1985-86 में शाहबानो के साथ जो अन्याय किया उसका दंश हजारों मुस्लिम महिलाएं आज तीन तलाक या हलाला के रूप में झेल रही है?
2014 में लोकसभा चुनाव और अभी हाल के विधानसभा चुनाव के परिणाम से संदेश स्पष्ट है। जनता छद्म सेक्युलरवाद के नाम पर देशविरोधी और अलगाववादी शक्तियों को अब बिल्कुल भी सहन नहीं करेगी। कांग्रेस सहित अन्य विपक्षी दलों को समझना होगा कि 1970-80 के कथित सांप्रदायिकता विरोधी जुमले अब नहीं चलेंगे। आज राष्ट्रीय सुरक्षा, अस्मिता और सार्वजनिक जीवन में शुचिता, ‘सबका साथ-सबका विकास’ सत्ता का द्वार खोलने वाले पासवर्ड हैं। दोष ईवीएम में नहीं, बल्कि पुराने पड़ चुके उन पासवर्ड में है जो मौजूदा दौर में अपनी प्रासंगिकता खो चुके हैं।

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