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तनाव बढ़ाने पर आमादा चीन

09_07_2017-8sanjay_guptaजर्मनी के हैम्बर्ग में जी-20 शिखर सम्मेलन और ब्रिक्स देशों की बैठक के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और चीन के राष्ट्रपति शी चिनफिंग में छोटी सी मुलाकात दोनों देशों के बीच सीमा पर जारी तनाव के बीच हुई। चीन ने पहले इस मुलाकात की संभावना से इन्कार किया था, लेकिन जब यह संक्षिप्त मुलाकात हुई तो यह माना गया कि दोनों देशों के बीच बातचीत का कोई रास्ता निकल आएगा, लेकिन शायद ऐसा नहीं हुआ। चीन के तीखे तेवर बरकरार हैं। उसने भारत में रह रहे अपने नागरिकों के लिए चेतावनी जारी कर यह जताने की कोशिश की कि उनके लिए खतरा बढ़ गया है। यह पूरी तौर पर गैर जरूरी चेतावनी है और इससे यही पता चलता है कि चीन तनाव बढ़ाना चाहता है। चीन और भारत के बीच बढ़ते तनाव के चलते कुछ विशेषज्ञ क्षेत्रीय शांति के लिए खतरा जताने लगे हैं। यह अस्वाभाविक नहीं। चीन की हठधर्मिता अक्सर ऐसे हालात उत्पन्न करती रही है कि उसका प्रभाव केवल भारत पर ही नहीं, बल्कि पूरे विश्व की शांति पर पड़ा है। भारत और चीन का सीमा विवाद अंग्रेजों के जमाने से चला आ रहा है।

चाहे वह अरुणाचल या सिक्किम की सीमा से जुड़ा विवाद हो या फिर कश्मीर से लगती सीमाओं से। इसके पहले सीमा पर दोनों देशों के सैनिकों के बीच जब-जब टकराव की स्थिति बनी, दोनों ही देश देर-सबेर बातचीत के लिए आगे आए, लेकिन इस बार भूटान के डोकलाम इलाके में जो तनाव उत्पन्न हुआ वह कई मायनों में अस्वाभाविक है। डोकलाम भारत के लिए सामरिक दृष्टि से बेहद महत्वपूर्ण इलाका है। यह उस स्थान पर है जहां से सिलिगुड़ी कॉरीडोर बेहद पास है। यह वह कॉरीडोर है जो पूर्वोत्तर को शेष भारत से जोड़ता है। अगर चीन भूटान के डोकलाम इलाके में अपनी सड़क बना लेता है तो यह भारत के लिए सामरिक दृष्टि से ठीक नहीं होगा। भारत का मानना है कि इस कॉरिडोर के इतने नजदीक सड़क बनने से अगर कभी चीन से युद्ध की नौबत आई तो भारत की सुरक्षा के लिए गंभीर खतरा पैदा हो जाएगा।

चीन डोकलाम को अपना क्षेत्र मानता है, जबकि यह विवादित इलाका है। अपनी मनमानी के चलते चीन भूटान की संप्रभुता का सम्मान करने के लिए तैयार नहीं। भूटान ने जब डोकलाम में चीन के अतिक्रमण का विरोध किया और भारत से मदद मांगी तो भारतीय सेना ने तत्परता के साथ वहां जाकर चीनी सैनिकों को रोका। चार हफ्ते पहले की इस घटना के बाद से चीनी मीडिया की ओर से भड़काऊ बयान दिए जा रहे हैं। चीन में मीडिया पर सरकारी नियंत्रण है। इसका मतलब है कि उसकी आवाज सरकार की ही आवाज है। चीनीमीडिया की ओर से भारत को 1962 के युद्ध की याद दिलाई गई। इस पर जब रक्षामंत्री अरुण जेटली ने यह कहा कि 1962 का दौर बीत चुका है तो चीन ने एक बार फिर भड़काऊ बयान दिया कि वह भी 1962 से बहुत आगे आ चुका है। इस बयान से चीन के आक्रामक रुख की नई सिरे से पुष्टि हुई। चीनी मीडिया की ओर से यह भी कहा गया कि भारतीय सेनाओं को खदेड़ दिया जाएगा और सिक्किम में अलगाव को हवा दी जाएगी। यह उल्लेखनीय है कि चीन की तमाम आक्रामकता के बाद भारत भी यह ठाने हुए है कि वह पीछे नहीं हटेगा। 

भूटान का चीन के साथ कोई राजनयिक संबंध नहीं है। उसने भारत के साथ यह समझौता किया हुआ है कि उसकी विदेश नीति भारत के हिसाब से चलेगी और वह अपनी सीमाओं को सुरक्षित रखने के लिए भारतीय सेना की मदद लेता रहेगा। राजनीतिक और कूटनीतिक तौर पर भारत के लिए भूटान की मदद करना आवश्यक है। वह भूटान को दिए गए वचन से पीछे नहीं हट सकता। मोदी सरकार ने पहले दिन से उन देशों के साथ करीबी रिश्ते बनाने की पहल की है जिनकी सीमाएं चीन से लगती हैं। भूटान भारत का निकट सहयोगी है। भारत के लिए भूटान की अहमियत इससे समझी जा सकती है कि मोदी ने बतौर पीएम सबसे पहले इसी देश की यात्रा की थी। भारत के लिए यह जरूरी है कि वह भूटान की हर तरह से मदद करे-खासकर चीनी अतिक्रमण के खिलाफ। मोदी सरकार के सामने एक चुनौती यह भी है कि उसे चीन के मामले में भाजपा के रुख के मुताबिक कदम उठाने हैं। 1962 के युद्ध में भारत की जो हार हुई थी उसके लिए भाजपा नेहरू सरकार की रणनीतिक गलतियों को दोषी ठहराती रही है, विशेषकर सैन्य क्षमता का सही तरह इस्तेमाल न कर पाने को और चीन पर जरूरत से ज्यादा भरोसा करने को। मोदी सरकार के लिए यह राजनीतिक रूप से आसान नहीं कि वह सीमा पर चीनी अतिक्रमण के बावजूद अपने सैनिकों को वापस बुला ले। उसके लिए यह समझना आवश्यक है कि चीन चाहता क्या है और उसका रुख इतना आक्रामक क्यों है? 

चीन की आक्रामकता की एक बड़ी वजह वन बेल्ट वन रोड की उसकी महत्वाकांक्षी परियोजना का भारत द्वारा विरोध करना माना जा रहा है। लगता है कि भारत के विरोध से वह खिसियाया हुआ है और इसी खिसियाहट में डोकलाम से अपने सैनिकों को वापस बुलाने के बजाय उल्टे-सीधे बयान देकर भारत की परेशानी बढ़ाने में जुटा है। यह तो स्पष्ट ही है कि चीन को भारत की अमेरिका से बढ़ती नजदीकी रास नहीं आ रही है। अमेरिका चीन को उत्तर कोरिया के साथ उसके संबंधों को लेकर जिस तरह घेर रहा है उससे वह अलग-थलग पड़ रहा है। दक्षिण चीन सागर के मामले में भी भारत का रुख अमेरिका और अन्य देशों के निकट है। चीन को इससे परेशानी है कि दक्षिण चीन सागर पर भारत उसके मनमाने रुख का हिमायती नहीं। भारत इसकी अनदेखी नहीं कर सकता कि चीन उसे तंग करने के लिए पाकिस्तान की यह जानते हुए भी मदद कर रहा है कि वह आतंकवाद को पोषित करने वाला देश है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि चीन दो ऐसे देशों का खुलकर साथ दे रहा है जो विश्व शांति के लिए गंभीर खतरा बन गए हैं। 

चीन के रुख से ऐसा प्रतीत होता है कि वह किसी न किसी तरह भारत को छोटे-मोटे युद्ध में उलझाना चाहता है। ऐसे में भारत को देखना होगा कि सीमा पर तनाव की स्थिति किसी भी सूरत में युद्ध में न तब्दील हो। दोनों देश परमाणु शक्ति संपन्न हैं और उनके बीच छोटा-मोटा टकराव भी एक बड़े युद्ध का रूप ले सकता है। नि:संदेह इसके लिए भारत के साथ चीन को भी सतर्क रहना चाहिए। उसे अपने अड़ियल और आक्रामक रुख पर विचार करना होगा। वह हर समय पड़ोसी देशों के साथ आक्रामकता नहीं दिखा सकता। उसे यह पता होना चाहिए कि यदि उसने अपनी आर्थिक और सैन्य शक्ति का मनमाना इस्तेमाल किया तो विश्व स्तर पर उसकी साख और अधिक खतरे में पड़ेगी। जब भारत संयम बरत रहा है तब फिर चीन को यह समझ आए तो बेहतर कि उसे अपने प्रभाव का इस्तेमाल विश्व में शांति स्थापित करने के लिए करना चाहिए, न कि तनाव बढ़ाने के लिए।

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