मैंने कभी किसी की मदद नहीं ली। न किसी व्यक्ति की, न देश की। राजनीतिक शरणार्थियों को जितनी राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक मदद मिलती है, मैंने वह भी नहीं ली। किताबों और पुरस्कार से मुझे जो आय हुई, लंबे निर्वासित जीवन में मैं उसी के सहारे हूं। तीस साल की उम्र में निर्वासित जीवन के संग्राम में जो मैं कूदी, तब से इस समर में अकेली हूं। कोई दोस्त, कोई पति, कोई भाई-बंधु मेरे जीवन में सहारा नहीं बने। मुझे तोड़ देने, ध्वस्त कर देने के कम षड्यंत्र नहीं रचे गए। पर मैं झुकी नहीं, टूटी भी नहीं। एक शहर से भगा देने पर मैं दूसरे शहर में गई। एक देश से भगा देने पर दूसरे देश में शरण ली। इतने वर्षों में मैंने यह अनुभव किया है कि जिसे एक बार भगाया जाता है, वह जीवन भर भगाया जाता रहता है।
अपने पूरे निर्वासित जीवन पर विचार करने पर मुझे लगता है कि बांग्ला और बंगालियों के आकर्षण के कारण यूरोप और अमेरिका छोड़कर मैं भारत आई, लेकिन भारतवर्ष ने मुझे क्या दिया? शुरू में मैं कोलकाता में रहती थी। लेकिन केवल कोलकाता नहीं, पूरे पश्चिम बंगाल से ही मुझे बाहर निकाल दिया गया।
बंगाल के कम्युनिस्टों ने मुस्लिम वोटों के कारण राज्य से मुझे भगा दिया। इसके बाद भी कम्युनिस्ट चुनाव नहीं जीत पाए और उनकी लंबी सत्ता का अंत हुआ। लेकिन पश्चिम बंगाल में प्रवेश का मेरा दरवाजा बंद ही रहा। बल्कि नई सरकार ने उस दरवाजे पर डबल ताला लटका दिया।
दिल्ली में रहते हुए बांग्ला संस्कृति के संस्पर्श में रहने की अभिलाषा रही। इस लिहाज से चित्तरंजन पार्क मेरे लिए आदर्श जगह है। पिछले कई वर्षों से चित्तरंजन पार्क में किराये का फ्लैट ढूंढ रही हूं। मकान मालिक मुझे फ्लैट दिखाते हैं, फ्लैट और किराया अनुकूल होने के बाद जब एग्रीमेंट पर दस्तखत करने की बारी आती है, तो बंगाली मकान मालिक कहते हैं, दस्तखत मत कीजिए। ये लोग मेरी लेखनी के प्रशंसक हैं, मेरा सम्मान करते हैं, लेखक और व्यक्ति के तौर पर मेरी तारीफ करते हैं, लेकिन वे निरुपाय हैं। फतवा, मेरे सिर की कीमत और सुरक्षाकर्मियों का समूह-इन सबसे वे डरते हैं।
उस दिन एक बंगाली मकान मालिक मुझे देखकर खुश तो हुए ही, उन्हें विश्वास नहीं हो रहा था कि सचमुच मैं ही उनके सामने खड़ी हूं। उनको यह डर नहीं था कि फ्लैट का किराया दे पाऊंगा या नहीं। लेकिन मेरे नाम के साथ जो विवाद और खतरा जुड़ा हुआ है, वह उससे भयभीत थे। सिर्फ बंगाली नहीं, पंजाबी और गुजराती मकान मालिकों के साथ भी यही सममस्या है, क्योंकि मैं तस्लीमा नसरीन हूं। लोग मुझसे प्यार करते हैं, मेरी श्रद्धा करते हैं, मुझे सलाम करते हैं, लेकिन जिस बिल्डिंग में वे रहते हैं, उसमें मुझे रहने की इजाजत नहीं देंगे। दरअसल वे झंझट नहीं चाहते। कोई कट्टरवादी मेरी हत्या कर देगा, मुझे निशाना बनाकर बम फेंकेगा, उससे उनके घर को नुकसान पहुंचेगा।
अभी मैं जिस घर में रहती हूं, वह मेरे एक दोस्त का घर है। दोस्त की मृत्यु हो चुकी है। दोस्त का बेटा यह मकान बेचना चाहता है। इस कारण मुझे यह घर छोड़ देना पड़ेगा। लेकिन यह घर छोड़ दूसरे घर में जाना इतना आसान नहीं है। लगभग एक साल पहले गृह मंत्री से मुलाकात कर मैंने अपनी यह समस्या बताई थी। मैंने उनसे कहा था कि लेखक और पत्रकार जो सरकारी फ्लैट किराये पर ले सकते हैं, उन्हीं में से एक मुझे उपलब्ध करवा दीजिए, मैं नियमित रूप से किराया चुकाऊंगी। पर कुछ हुआ नहीं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चुनाव प्रचार के दौरान मेरा उल्लेख करते हुए कहा था, तस्लीमा नसरीन को पश्चिम बंगाल से क्यों भगाया गया था? गुजरात का मुख्यमंत्री रहते हुए भी उन्होंने एक भाषण में कहा था, पश्चिम बंगाल सरकार अगर तस्लीमा नसरीन को सुरक्षा नहीं दे पा रही, तो उन्हें गुजरात भेज दिया जाए। हम उन्हें सुरक्षा देंगे।
सारी समस्या मेरे नाम को लेकर है। लेकिन मैं अपना नाम तो बदल नहीं सकती। अनेक मकान मालिक मुझे किराये पर मकान इसलिए नहीं देना चाहते, क्योंकि मेरे साथ सुरक्षाकर्मी रहते हैं। पर मेरे लिए घर ज्यादा जरूरी है, सुरक्षाकर्मी नहीं। बहुत पहले वर्जीनिया वुल्फ भी कह चुकी हैं कि महिलाओं को अपने लिए अलग घरों की जरूरत है, जहां वे निश्चिंत होकर लिख सकें, पढ़ सकें, सोच सकें। कभी-कभी अपनी नियति पर दुख होता है। मैंने एक सुंदर, स्वस्थ समाज की कामना की थी। यही मेरा गुनाह था, जिसकी सजा के रूप में मैं दर-दर भटक रही हूं।