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अभी बरकरार हैं कई चुनौतियां

27_05_2017-skvermaयह उद्घोष हुए तीन वर्ष बीत गए-‘मैं नरेंद्र दामोदरदास मोदी ईश्वर की शपथ लेता हूं कि मैं संघ के प्रधानमंत्री के रूप में अपने कर्तव्यों का श्रद्धापूर्वक और शुद्ध अंत:करण से निर्वहन करूंगा।’ उस समय प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती देश-विदेश में अपनी छवि की स्वीकार्यता को लेकर थी। उनके प्रधानमंत्री बनने के पहले तक भारतीय और वैश्विक मीडिया के एक वर्ग ने उन्हें गुजरात दंगों का उत्तरदायी और मुस्लिम विरोधी ठहराकर कुछ ऐसे पेश किया था कि अमेरिका सहित कई देशों ने उन्हें वीजा तक देने से मना कर दिया था। उन्हीं नरेंद्र मोदी ने तीन वर्ष से भी कम समय में विश्व के शीर्ष नेताओं से मधुर संबंध स्थापित कर लिए और खुद को न केवल देश में वरना पूरे विश्व में अत्यंत लोकप्रिय नेता के रूप में स्थापित कर अपनी प्रथम चुनौती पर आसानी से विजय प्राप्त कर ली। शासन में चुनौती का स्वरूप ‘सुरसा के मुंह’ जैसा होता है।

सरकार चुनौतियों से जितना ही निपटती है, उनका आकार उतना ही विशाल होता चला जाता है। जब शासन लोकतांत्रिक हो तो उन चुनौतियों से निपटने की सरकारी नीतियों के विरोध की जिम्मेदारी विपक्षी दलों पर होती है। प्रधानमंत्री मोदी विपक्ष को आरोपों से बचने और सरकार की आलोचना करने हेतु प्रोत्साहित करते रहे हैं जिससे वे सरकार की नीतियों, निर्णयों और कार्यक्रमों की कमियां बताएं और उनके विकल्प प्रस्तावित करें। दुर्भाग्य से विपक्ष इस उत्तरदायित्व का ठीक से निर्वहन नहीं कर पा रहा और इसके चलते संसद में प्राय: गतिरोध बना रहता है।

प्रधानमंत्री मोदी को राष्ट्रीय राजनीति का कोई अनुभव नहीं था। वह 12 वर्षो (2002-14) तक गुजरात के मुख्यमंत्री रहे। पूरे देश में उनके विकास मॉडल की चर्चा थी, लेकिन संभवत: उनके अंदर राष्ट्रीय राजनीति और शासन संबंधी नए विचारों का सागर हिलोरें मार रहा था जो यथास्थितिवाद का विध्वंस कर नूतन राजनीतिक आर्थिक सामाजिक व्यवस्था का सूत्रपात करना चाहता था। यही उनकी दूसरी चुनौती भी थी। जाहिर है इसके लिए उन्हें व्यवस्था में संरचनात्मक और सांस्कृतिक बदलाव करने थे जिसे कभी असहिष्णुता, कभी ‘आइडिया ऑफ इंडिया’ से खिलवाड़ तो कभी सांप्रदायिक और जातीय आधार पर विभाजन की संज्ञा दी गई। प्रधानमंत्री ने भ्रष्टाचार पर सख्त रुख अख्तियार कर, कठोर परिश्रम का प्रतिमान स्थापित कर और दैनिक जीवन में शुचिता के अनेक कार्यक्रम शुरू कर एक ओर देश में चारित्रिक और सांस्कृतिक बदलाव की शुरुआत की और दूसरी ओर योग को वैश्विक स्तर पर स्थापित कर स्वच्छता और शौचालय निर्माण जैसे अभियान चला कर तथा सस्ती ‘जेनेरिक दवाइयों’ की ओर कदम बढ़ाकर स्वास्थ्य चेतना को भी बढ़ाया। उन्होंने जन-धन, सामाजिक सुरक्षा पेंशन, उज्ज्वला, मुद्रा, बैंक खातों में सब्सिडी ट्रांसफर आदि अनेक कदमों से समाज के गरीब और वंचित तबकों के आर्थिक संवर्धन की पहल भी की। इस प्रकार मोदी ने संपन्नता, स्वास्थ्य और चारित्रिक शुचिता के समन्वय से एक ऐसे समाज की आधारशिला रखने का प्रयास किया जो यथास्थितिवाद को नकार कर अमीर-गरीब और शहरी-ग्रामीण का फर्क कम कर सके।

जाहिर है इसकी प्रतिक्रियास्वरुप कुछ आक्षेप लगे जरूर, लेकिन वे ठहर नहीं पाए, क्योंकि वे सत्य से परे थे और उनका स्वरूप भी आलोचनात्मक नहीं वरन आरोपात्मक था। शायद तीन वर्षो में प्रधानमंत्री मोदी को यह विश्वास हो चला है कि यथास्थितिवाद को तोड़कर नए समाज की संरचना की चुनौती से निपटने में जनता उनके साथ है। चूंकि व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन हेतु सरकार को लंबे कार्यकाल की जरूरत होती है इसलिए मोदी को न केवल 2019 वरन उसके आगे भी अपनी सरकार के बारे में सोचना होगा। जाहिर है कि समावेशी हुए बिना कोई भी सरकार स्थायित्व प्राप्त नहीं कर सकती। इस लिहाज से मोदी की तीसरी चुनौती ‘सबका साथ, सबका विकास’ नारे को हकीकत में बदलना था। इस चुनौती से निपटने के लिए उन्होंने पूरे समाज, खासतौर से प्रमुख समूहों जैसे अन्य पिछड़ा वर्ग, दलित, मुस्लिम एवं महिलाओं से विमर्श की एक नायाब प्रक्रिया अपनाई। हर महीने ‘मन की बात’ से वे इन तमाम वर्गो तक पहुंचे। इसके साथ ही उन्होंने इन वर्गो के सामाजिक-आर्थिक उन्नयन के लिए ठोस कदम भी उठाए।

भले ही मीडिया के एक हिस्से ने मोदी को मुस्लिम विरोधी के रूप में प्रस्तुत किया हो, लेकिन आज तीन वर्षो बाद भी उनकी कथनी-करनी में कोई ऐसी बात नहीं दिखी जिसे मुस्लिम विरोधी कहा जा सके। विकास के मुद्दे पर मुस्लिम समाज और ‘तीन-तलाक’ पर सरकार की पहल का मुस्लिम-महिलाओं ने जबरदस्त स्वागत किया है। इसी प्रकार उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य में अन्य पिछड़े वर्ग को जनसंख्या के अनुपात में टिकट देकर और विधानसभा पहुंचा कर मोदी ने देश में अन्य पिछड़े वर्ग के विमर्श में सशक्त हस्तक्षेप किया है।

आज समाज के सभी वर्गो को ऐसा लग रहा है कि मोदी सरकार उनके हितों के लिए काम कर रही है। यह भरोसा सरकार को वह लंबा कार्यकाल देगा जो यथास्थितिवाद को तोड़ सामाजिक पुनर्निर्माण की चुनौती के लिए जरूरी है। अच्छे दिन लाने और विदेशों से काला धन लाकर लोगों के बैंक खाते में जमा करने को अभी भी मोदी के समक्ष एक चुनौती के रूप में पेश किया जाता है। इन दोनों मुद्दों पर नेताओं, बुद्धिजीवियों और मीडिया का एक वर्ग अक्सर मोदी का उपहास करते देखा जाता है। इन लोगों केअच्छे दिन का तो पता नहीं, लेकिन संभवत: जनता यह महसूस करने लगी है कि पहले से कुछ तो फर्क है। उज्ज्वला ने लाखों ग्रामीण महिलाओं को धुएंदार रसोई से छुटकारा जरूर दिलाया है। सूखे और बाढ़ से फसल खराब होने की चिंता से ‘फसल बीमा योजना’ और ‘सरकारी मूल्य पर त्वरित खरीद’ ने जरूर बचाया है। इसी तरह प्रधानमंत्री शहरी और ग्रामीण आवास योजना ने गरीब के मन में एक अदद ठौर-ठिकाने की आस जरूर जगाई है। इससे इतर उनके लिए अच्छे दिन की और क्या परिभाषा हो सकती है?

प्रधानमंत्री बनने के पहले 9 जनवरी 2014 को एक भाषण में मोदी ने विदेशों में जमा काले धन का एक अनुमानित आकलन करते हुए जनता को उसकी भाषा में समझाने के लिए कहा था कि उसकी मात्र इतनी है कि यदि वह सब धन आ जाए तो हिंदुस्तान के एक-एक गरीब आदमी को मुफ्त में 15-20 लाख रूपये यों ही मिल जाएगा। उसी भाषण में उन्होंने समझाया था कि यह हमारे एमपी साहब कह रहे थे..यह काला धन वापस आ जाए तो जहां चाहो वहां रेलवे लाइन.. लेकिन मीडिया ने प्रधानमंत्री के शब्दों में वह अर्थ भर दिया जो उन्होंने सोचा भी न था। यह उन सभी लोकतांत्रिक देशों की विडंबना है जहां अधिकतर मीडिया सनसनी की ताक में रहता है या फिर अपने खास एजेंडे पर ही चलता है।

मोदी सरकार के शेष दो वर्षो में पूर्व घोषित योजनाओं को जमीन पर लागू करने, पाकिस्तान-चीन गठजोड़ और उनके नापाक इरादों से निपटने, कश्मीर संबंधी रणनीति को धार देने, नक्सलवाद से निपटने, अनेक लंबित राजनीतिक, चुनावी और आर्थिक सुधार करने की चुनौती अभी भी है। इसके अलावा रोजगार के नए अवसर पैदा करने, काले धन और भ्रष्टाचार पर और कसकर लगाम लगाने, विकास की गति तेज करने और भाजपा की उपस्थिति दक्षिण भारत और उत्तर पूर्व के राज्यों में बढ़ाने की भी चुनौती है। क्या प्रधानमंत्री मोदी इन गंभीर चुनौतियों से सफलतापूर्वक निपट पाएंगे? जाहिर है कि इस सवाल के लिए दो वर्ष तक इंतजार करना होगा।

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