कांग्रेस पार्टी में सब कुछ नेहरू गांधी परिवार के इर्दगिर्द ही घूमता है। पार्टी को दिशा भी वहीं से मिलती है और दिशाहीनता का शिकार भी वहीं से होती है। पिछले कुछ सालों से पार्टी का दिशा सूचक यंत्र खराब हो गया है। उसके ठीक होने के कोई आसार भी नहीं दिख रहे। देश की कभी सबसे बड़ी और सत्ता की स्वाभाविक पार्टी रही कांग्रेस केंद्र के बाद राज्यों से भी सत्ता से बाहर हो रही है और विपक्ष की भूमिका निभाने की न तो उसे आदत पड़ सकी है और न ही क्षमता दिखती है।
बीमारी कितनी ही गंभीर क्यों न हो उसके इलाज की कोशिश तो की ही जा सकती है। कांग्रेस नेता और कुछ समय पहले तक राहुल गांधी के सलाहकार माने जाने वाले जयराम रमेश ने पार्टी की बीमारी की ओर संकेत किया है। उन्होंने कहा है कि सल्तनत चली गई पर लोग अपने को अब भी सुल्तान समझ रहे हैं। उनका यह कथन कांग्रेस की समस्या और उसके सुधार के आसार न दिखने की उनके जैसे नेताओं की अकुलाहट को व्यक्त करता है, पर जयराम की इस टिप्पणी पर कांग्रेसियों की प्रतिक्रिया इस बात का प्रमाण है कि कांग्रेस में कोई सच का सामना करने को तैयार नहीं। सच का सामना कराने के लिए गांधी परिवार को कठघरे में खड़ा करना पड़ेगा। कांग्रेस में गांधी परिवार से सवाल करना भी कुफ्र से कम नहीं है। जयराम रमेश ने कहा कि कांग्रेस जिस हालत में है उसके बूते वह 2019 में नरेंद्र मोदी-अमित शाह की जोड़ी और भाजपा से लड़ने की स्थिति में नहीं है। ऐसा कहने वाले वह पहले व्यक्ति नहीं हैं। उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के नतीजे आने के बाद जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला भी कह चुके हैं कि विपक्ष को 2019 का चुनाव भूल जाना चाहिए और 2024 की तैयारी करनी चाहिए। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार कांग्रेस के साथ रहते और साथ छोड़ने के बाद इसी आशय की बात कह चुके हैं।
जयराम रमेश की टिप्पणी पर दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने कहा कि वह भी तो सुल्तान रह चुके हैं। शीला दीक्षित शायद भूल रही हैं कि कांग्रेस में गांधी परिवार से इतर कोई नेता सुल्तान बनना तो दूर, बनने की सोच भी नहीं सकता। जाहिर है कि जयराम रमेश की यह टिप्पणी बिना नाम लिए पार्टी के शीर्ष नेतृत्व के बारे में ही है। यह टिप्पणी राहुल गांधी की कार्यशैली पर सवाल उठा रही है। किसी को कोई गलतफहमी न रहे इसलिए उन्होंने अपनी बात को और स्पष्ट किया। जयराम का कहना है कि 1977, 1989 और 1998-99 का संकट चुनावी हार का था, इसलिए पार्टी उससे उबरने में कामयाब रही।
2014 के लोकसभा चुनाव की हार और उसके बाद राज्य विधानसभा चुनावों में हार ने कांग्रेस के सामने अस्तित्व का संकट खड़ा कर दिया है। मुश्किल यह है कि कांग्रेस के लोग इसे समझने को तैयार नहीं। 1977, 1989 और 1998-99 की हार से कांग्र्रेस को उबारने के लिए पार्टी के पास नेतृत्व था। आज अस्तित्व का संकट मुंह बाएं खड़ा है तो उसका एक बड़ा कारण नेतृत्व का संकट है। कांग्रेस के लोग यह समझने के लिए ही तैयार नहीं हैं कि जिन्हें (राहुल गांधी) वह अपनी सबसे बड़ी ताकत समझ रहे थे वह सबसे बड़े बोझ साबित हो रहे हैं। पार्टी अतीतजीवी बन गई है। किसी कांग्रेसी से आज के संकट के बारे में पूछिए तो उसका रटारटाया जवाब होता है कि पहले भी तो संकट आया था और उबर गए। इस बार ऐसी क्या नई बात है? मशहूर कवि दुष्यंत कुमार की एक गजल का शेर है-तुम्हारे पांव के नीचे कोई जमीन नहीं, कमाल ये है कि फिर भी तुम्हें यकीन नहीं। कांग्रेस और कांग्रेसियों की हालत कुछ ऐसी ही है। वे आईना दिखाने पर आईने में ही नुक्स निकाल रहे हैं।
पार्टी यह देखने को ही तैयार नहीं है कि उसका नेता भविष्य की ओर पीठ करके खड़ा है। कांग्रेस की हालत का अंदाजा इस बात से लगाइए कि लोकसभा चुनाव के बाद पार्टी ने अपने वरिष्ठ नेता एके एंटनी की अध्यक्षता में एक कमेटी बनाई। इसे चुनाव में हार के कारणों की समीक्षा का जिम्मा सौंपा गया। उस कमेटी की रिपोर्ट पर अमल तो छोड़िए, कांग्रेस कार्यसमिति के लोगों को उसके दर्शन भी नहीं हुए। पिछले तीन सालों में देश में इतना कुछ बदल गया, पर कांग्रेस संगठन में कोई बदलाव नहीं हुआ। हां इतना जरूर हुआ है कि लोकसभा चुनाव के बाद से सोनिया गांधी की रोजमर्रा के कामों में सक्रियता दिनों दिन घटती गई। एक-एक करके कई राज्यों के कांग्रेसी नेता राहुल गांधी की शिकायत करते हुए पार्टी से चले गए, पर राहुल गांधी के रवैये में कोई बदलाव नहीं आया।
गुजरात जैसे राज्य में राज्यसभा की एक सीट जीतने के लिए पार्टी को जितनी मेहनत करनी पड़ी उतनी तो शायद उसने उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में भी नहीं की होगी। 57 विधायकों वाली कांग्रेस गांधी परिवार के बाद पार्टी के सबसे ताकतवर माने जाने वाले नेता अहमद पटेल को अपनी पार्टी के सिर्फ 41 विधायकों का समर्थन दिला सकी। बाहर से मिला तीन विधायकों का समर्थन भी उन्हें न जिता पाता अगर कांग्रेस के दो बागी विधायकों ने अति उत्साह में अपना बैलेट पेपर भाजपा नेताओं को न दिखाया होता। इन दो रद हुए वोटों ने अहमद पटेल की इज्जत बचा ली। अगला मोर्चा विधायकों के बीच नहीं, जनता जनार्दन के बीच होगा। टूटी-फूटी गुजरात कांग्रेस संगठित भाजपा से कितना लड़ पाएगी, यह अगले तीन-चार महीनों में पता चल जाएगा।
लोकसभा चुनाव और उसके बाद हुए विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की हार का एक बड़ा कारण संप्रग सरकार के दस साल का भ्रष्टाचार रहा है, लेकिन कमाल यह है कि पार्टी को यह सीधी सी बात समझ में नहीं आ रही है कि देश का मतदाता भ्रष्टाचार को और बर्दाश्त करने या फिर उसकी उपेक्षा करने को तैयार नहीं। कम से कम पार्टियों और सरकारों के संदर्भ में तो यह बात कही ही जा सकती है। व्यक्तियों के भ्रष्टाचार के प्रति अभी वह इतना निर्मम नहीं हुआ है। भ्रष्टाचार के मुद्दे पर मतदाताओं की ओर से नकारी गई कांग्रेस पिछले तीन साल में भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारियों के साथ और शिद्दत के साथ खड़ी नजर आ रही है।
उसे उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव और समाजवादी पार्टी के भ्रष्टाचार से कोई परहेज नहीं तो पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस और बिहार में लालू परिवार के भ्रष्टाचार में उसे धर्मनिरपेक्षता को बचाने का अवसर नजर आता है। इन तीनों राजनीतिक दलों और कांग्रेस में एक और समानता है। ये सब व्यक्ति और परिवार आधारित पार्टियां हैं। कांग्र्रेस यह समझने से बच रही कि वह भ्रष्टाचार के आरोपों में घिरे नेताओं/पार्टियों से गठजोड़ करके मोदी और भाजपा से लड़ना चाहती है। इस लड़ाई का नतीजा बताने के लिए ज्योतिष के ज्ञान की जरूरत नहीं है। दुष्यंत कुमार की उसी गजल का आखिरी शेर है-
जरा तौर-तरीकों में हेर फेर करो। तुम्हारे हाथ में कॉलर हो, आस्तीन नहीं।