देश की जनता ने बार-बार यह साबित किया है कि जब भी किसी राजनीतिक दल या नेता ने भ्रष्टाचार के खिलाफ निर्णायक लड़ाई छेड़ी है तो उसने जाति-धर्म के बंधनों से ऊपर उठकर उसका साथ दिया है। भ्रष्टाचार में कभी-कभार तानाशाही और आपराधिक प्रवृत्ति भी जुड़ जाती है। यह भी देखा गया है कि कभी पिछड़े या दलित आरक्षण पर खतरा मंडराया तो इस वर्ग के लोगों ने अन्य पहलुओं को नजरअंदाज भी किया। हालिया विधानसभा चुनाव भी इस मामले में मिसाल ही रहे। चुनावों में भाजपा ने दर्शाया कि देश की एकता-अखंडता अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए वह अन्य दलों की तुलना में कहीं अधिक समर्पित है। ऐसे में कैसे नतीजे आते? ऐसे में वही परिणाम आने निश्चित थे जो उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में आए। पंजाब का जनादेश भी भ्रष्टाचार के खिलाफ ही था। लोग अकाली सरकार से त्रस्त आ चुके थे। चूंकि वहां भाजपा का प्रभाव सीमित ही रहा है, लिहाजा वहां भाजपा या नरेंद्र मोदी निर्णायक स्थिति में नहीं थे। आम आदमी पार्टी यानी आप को भी लोगों ने खास गंभीरता से नहीं लिया। कुछ विपक्षी दलों द्वारा नोटबंदी का विरोध और यदा-कदा राष्ट्रविरोधी तत्वों का प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष समर्थन उनके लिए भारी पड़ा। उत्तर प्रदेश में जातिवाद, वंशवाद, एकतरफा धर्मनिरपेक्षता और अपराध को संरक्षण देने वालों को इनका खामियाजा भुगतना पड़ा। जिस नोटबंदी को कुछ दल देश के लिए घातक साबित करने पर तुले थे उनका यही दुष्प्रचार उनके लिए आत्मघाती साबित हुआ, क्योंकि मतदाताओं ने इसे भ्रष्टाचार पर करारी चोट के रूप में देखा। इससे सिद्ध होता है कि कुछ पार्टियां किस हद तक जनता से कट चुकी हैं।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर लोगों ने पूरा भरोसा किया। इसकी भी कई वजहें हैं। उनकी सरकार के तकरीबन तीन साल के कार्यकाल में उनके खिलाफ भ्रष्टाचार का कोई आरोप तक नहीं लगा है। यहां तक कि आम धारणा यही है कि उन्होंने अपने मंत्रिमंडल पर भी भ्रष्टाचार की काली छाया नहीं पड़ने दी है और नौकरशाही के स्तर पर भी भ्रष्टाचार को खत्म करने की योजना बना रहे हैं। ऐसी भली मंशा वाला प्रधानमंत्री यदि उत्तर प्रदेश जाकर कोई आश्वासन देता है तो लोग उस पर भरोसा ही करेंगे। वैसे पहली बार ऐसा नहीं हुआ है। इससे पहले 1977 में भी मतदाताओं ने जेपी के नाम से मशहूर जयप्रकाश नारायण पर भरोसा कर केंद्र की सत्ता जनता पार्टी को सौंपी थी। जेपी भ्रष्टाचार और तानाशाही के खिलाफ आंदोलन का प्रतीक बने थे। लोगों को लगा था कि वह देश के लिए कष्ट सह रहे हैं। उन्हें खुद गद्दी पर नहीं बैठना है। यह और बात है कि जनता पार्टी सरकार ने जेपी और आम लोगों की उम्मीदों को पूरा नहीं किया। ‘गरीबी हटाओ’ का नारा देकर 1971 में लोकसभा चुनाव में भारी बहुमत पाने वालीं इंदिरा गांधी भी गरीबों की उम्मीदों पर खरी नहीं उतर पाईं, लेकिन 1969 में उन्होंने जब 14 निजी बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया तो गरीबों को लगा कि यह काम वह गरीबों के भले के लिए ही कर रही हैं। फिर राजाओं के प्रिवी पर्स और विशेषाधिकार भी समाप्त किए थे। इंदिरा सरकार ने यह दिखाया कि यह कवायद अमीरों से छीनकर गरीबों में बांटने की कोशिश के क्रम में हो रही है। ताजा नोटबंदी पर भी गरीबों ने यह समझा कि अकूत धन जमा करने वालों से काला धन छीना जा रहा है।
ऐसा हुआ भी, मगर स्वार्थ में अंधे कुछ राजनीतिक दल जनता की इस समझ को भांप नहीं सके। 1987-89 के बोफोर्स घोटाले ने राजीव गांधी सरकार को अपदस्थ करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। इससे साबित हुआ था कि आम लोग सरकारी भ्रष्टाचार को कितना बुरा मानते हैं। 2014 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की दुर्गति के पीछे मनमोहन सरकार के बड़े घोटालों का सबसे बड़ा हाथ था। कांग्रेस की अल्पसंख्यक तुष्टीकरण की नीति ने आग में घी का काम किया था। 1962 तक के चुनाव में कांग्रेस आजादी की लड़ाई की उपलब्धि के दम पर चुनाव जीतती रही, मगर कालांतर में जब कांग्रेसी सरकारें सत्ता के एकाधिकार के मद में अनर्थ करने लगीं और सरकारी भ्रष्टाचार तेजी से बढ़ने लगा तो 1967 के चुनाव के बाद नौ राज्यों में गैर-कांग्रेसी सरकारें सत्तारूढ़ हुईं। 1974 में इंदिरा गांधी सरकार के खिलाफ जेपी आंदोलन एकाधिकारवाद, जातिवाद, परिवारवाद और भ्रष्टाचार के खिलाफ था। आंदोलन को दबाने के लिए आपातकाल लगाया गया। अधिकांश लोगों ने जाति-धर्म से ऊपर उठकर 1977 में कांग्रेस को हरा दिया। कमोबेश इसी तरह अधिकांश मतदाताओं ने जाति जैसे बंधनों को तोड़ते हुए 1984 के लोकसभा चुनाव में भी ‘मिस्टर क्लीन’ की छवि वाले राजीव गांधी को जिताया। हालांकि उस चुनाव पर इंदिरा गांधी की हत्या के कारण कांग्रेस खासकर राजीव के प्रति उपजी सहानुभूति भी हावी थी, लेकिन उससे पहले कांग्रेस महासचिव के रूप में राजीव गांधी ने कांग्रेस के ऐसे तीन मुख्यमंत्रियों को उनके पद से हटवाने में अहम भूमिका अदा की थी जिन पर भ्रष्टाचार के आरोप थे। उससे यही लगा कि राजीव भ्रष्टाचार के खिलाफ हैं। हालांकि यह बात अलग है कि राजीव ऐसे उम्मीदों को पूरा नहीं कर पाए। क्या गैर भाजपा दल उत्तर प्रदेश के चुनाव नतीजों से कोई सबक लेंगे या अन्य स्थानीय कारणों से दूसरी इक्का-दुक्का चुनावी जीतों में मगन रहकर पुराने ढर्रे पर ही चलते रहेंगे? जानकारों का मानना है कि मोदी सरकार अभी आम लोगों के फायदे के कुछ और कदम उठाने वाली है जिनसे विपक्ष का बचा-खुचा दम भी निकल सकता है। उत्तर प्रदेश की प्रचंड जीत के बाद मोदी सरकार को बेनामी संपत्ति के खिलाफ कानून बनाने में बड़ी ताकत मिलेगी जिस पर वह काफी समय से विचार कर रही है। महिला आरक्षण विधेयक भी पारित हो सकता है। ऐसे तमाम चौंकाने वाले फैसले हो सकते हैं। हालिया जीत को लेकर आम धारणा यही है कि यह मोदी की ईमानदार मंशा की जीत है। ऐसी जीत के बाद भाजपा और राजग के भीतर मोदी विरोधियों के हौसले और पस्त पड़ जाएंगे। केंद्र सरकार के वे प्रशासनिक अधिकारी भी सतर्क हो जाएंगे जो अभी तक मोदी के भ्रष्टाचार विरोधी अभियान में ढुलमुल तरीके से काम करते आए हैं।
यदि मोदी सरकार महिला आरक्षण विधेयक पारित कराने के साथ ही बेनामी संपत्ति के खिलाफ कारगर अभियान छेड़ती है तो 2019 के लोकसभा चुनाव का नतीजा भी तय मानिए। उससे पहले देश में दलीय समीकरण बदल सकते हैं। उप्र के चुनाव नतीजे उन दलों और नेताओं के लिए संभवत: अंतिम चेतावनी है, जिन्होंने 2014 के लोकसभा चुनाव की करारी हार से कोई सबक नहीं लिया। वे अभी भी जातिवाद, भ्रष्टाचार, वंशवाद और वोट बैंक तुष्टीकरण में ही मगन हैं। उन्हें सबक लेना चाहिए कि लोग अब सुशासन चाहते हैं और ऐसे किसी कदम का समर्थन नहीं कर सकते जो देश की एकता-अखंडता पर चोट करता हो। गैर-भाजपा दलों के जो नेता कह रहे हैं कि भाजपा ने सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के जरिये चुनाव जीता है वे अभी भी गफलत में हैं और उन्हें अपनी खामियों को दुरुस्त करने की जरूरत महसूस नहीं हो रही है। यह सोच उनके भविष्य के लिए खतरनाक है। अगर ध्रुवीकरण के सीमित असर को मान भी लिया जाए तब भी उन नेताओं को आत्ममंथन करना चाहिए कि इस काम में उनका खुद कितना योगदान रहा है?