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गांधी के सच्चे अनुयायी

गांधीजी की प्रत्येक जंयती की तरह उनकी 149वीं जयंती पर भी ऐसे प्रश्न सतह पर आए कि वर्तमान परिवेश में गांधीजी का चिंतन कितना प्रासंगिक है और क्या गांधीजी के स्वघोषित अनुयायी उनके बताए मार्ग पर चल रहे हैं? इन प्रश्नों के उत्तर ईमानदारी से खोजने की आवश्यकता इसलिए है, क्योंकि देश का एक बहुत बड़ा वर्ग राजनीतिक और सामाजिक जीवन में गांधीजी और उनकी विरासत पर अधिकार का दावा करता है और अपने एजेंडे की पूर्ति हेतु उनके नाम का उपयोग/दुरुपयोग भी करता है। गांधीजी युगदृष्टा थे।

उन्होंने भारत की तत्कालीन विकट स्थिति का बड़ी सूक्ष्मता से अध्ययन किया और उसके निराकरण के लिए देश में तब की परिस्थिति को ध्यान में रखते हुए अपनी कार्यनीति की रूपरेखा तैयार की। लोकसंग्रह के बल पर राष्ट्र की सनातन संस्कृति, समरसता और सामाजिक न्याय को अक्षुण्ण रखते हुए गांधीजी ने परतंत्र देश को स्वाधीनता दिलाने के यज्ञ में महत्वपूर्ण योगदान दिया। संभवत: गांधीजी ही एकमात्र ऐसे नेता थे, जिन्होंने अंग्रेजों की ‘बांटों और राज करो’ की नीति को न केवल समझा, अपितु उसका सफलतापूर्वक प्रतिकार भी किया।

1857 की क्रांति को कुचलने के बाद अंग्रेज स्वाभाविक रूप से उस तरह के आंदोलन की पुनरावृत्ति नहीं चाहते थे। एक नीतिगत निर्णय के अंतर्गत अंग्रेजों ने भारत में अलग-अलग सामाजिक इकाइयों की निर्बल कड़ियों को ढूंढा और योजनाबद्ध तरीके से उन्हें और कमजोर करने का काम प्रारंभ किया। इस षड्यंत्र में सवर्ण-दलित, हिंदू-मुस्लिम, हिंदू-सिख, उत्तर-दक्षिण भारत (आर्य-द्रविड़) और राज-रजवाड़े-प्रजा जैसे बिंदु शामिल थे। सदियों से भारतीय समाज अस्पृश्यता और जातिभेद से अभिशप्त रहा है। इसी अविश्वास की खाई को और अधिक चौड़ा करने के लिए अंग्रेजों ने कई षड्यंत्र किए जिनमें वर्ष 1930-32 में दलितों के लिए अलग से निर्वाचक मंडल बनाने का प्रस्ताव भी शामिल रहा। इस प्रस्ताव के अनुसार, दलितों को दोहरे मतदान की अनुमति थी और वे अपने प्रत्याशी के साथ ही सामान्य उम्मीदवार के लिए भी चुनाव में शामिल हो सकते थे। 16 अगस्त 1932 को तत्कालीन ब्रिटिश प्रधानमंत्री जेम्स मैकडॉनल्ड ने दलितों के अतिरिक्त मुस्लिम, ईसाई, एंग्लो भारतीय और सिखों के लिए भी अलग निर्वाचक मंडल बनाने की पैरवी की थी।

गांधीजी अंग्रेजों की कुत्सित चालों को समझ चुके थे। उन्होंने दलितों के पृथक निर्वाचक मंडल का कड़ा विरोध करते हुए 20 सितंबर 1932 को यरवडा जेल (पुणे) में ही आमरण अनशन शुरू कर दिया। जब गांधीजी की सेहत बिगड़ने लगी तब पंडित मदनमोहन मालवीय के प्रयासों से गांधीजी और डॉ. अंबेडकर के बीच समझौता हुआ जिसे ‘पूना पैक्ट’ के नाम से जाना जाता है। दलितों के लिए अलग निर्वाचक मंडल के स्थान पर संयुक्त निर्वाचन के सिद्धांत को स्वीकार किया गया। साथ ही दलितों के लिए विधानमंडलों में सुरक्षित स्थानों को 71 से बढ़ाकर 148 कर दिया गया।

भारतीय समाज को बांटने के लिए अंग्रेजों को सबसे उपयुक्त और आसान हिंदू-मुस्लिम को एक-दूसरे के खिलाफ खड़ा करना रहा, क्योंकि दोनों समुदाय के बीच 800 वर्ष से अधिक का अविश्वास भाव था। हिंदू-मुस्लिमों को जोड़ने के लिए गांधीजी ने तुष्टीकरण का सहारा लिया और वर्ष 1919-24 में मुस्लिमों के मजहबी ‘खिलाफत आंदोलन’ का न केवल समर्थन किया, बल्कि उसकी अगुआई भी की, किंतु मुस्लिम अलगाववादी ज्वार के समक्ष गांधीजी का उनमें विश्वास बौना साबित हुआ। परिणामस्वरूप अंग्रेजों की कुटिलता और वामपंथियों के वैचारिक समर्थन ने उस पाकिस्तान को वैश्विक मानचित्र पर उभारा जो आज दुनिया के लिए कैंसर बन चुका है। गांधीजी, जिन्होंने यह घोषणा की थी कि पाकिस्तान का निर्माण उनकी मृत देह पर होगा, इस बात से काफी आहत हुए। 15 अगस्त 1947 को दिल्ली में हो रहे समारोह में शामिल न होकर गांधीजी नोआखाली में प्रताड़ित हिंदू महिलाओं को मुस्लिम दंगाइयों से बचाने का काम कर रहे थे।

अंग्रेजों की विभाजनकारी नीतियों के शिकार हिंदू-सिख संबंध भी हुए। उन्होंने कई ऐसे निर्णय लिए जिनसे उनके संबंधों में दरार पड़ी जबकि उनके संबंध रोटी-बेटी के रहे हैं। आइसीएस अधिकारी मैक्स ऑर्थर मैकालिफ के कहने पर भाई काहन सिंह नाभा ने 1898 में एक प्रकाशन निकाला, जिसका शीर्षक था-‘हम हिंदू नहीं’, परंतु बापू के सतत प्रयासों के कारण हिंदू-सिख एकता बनी रही और अंग्र्रेज अपने इस षड्यंत्र में बहुत अधिक सफल नहीं रहे। द्रविड़ संस्कृति के नाम पर अंग्रेजों ने दक्षिण भारत में हिंदू-हिंदी और उत्तर-भारतीयों के विरोध का कुत्सित प्रयास किया। तब दक्षिण में हिंदी को लोकप्रिय बनाने के लिए गांधीजी ने आंदोलन चलाया। उनके व्यक्तित्व और लोकप्रियता के कारण दक्षिण भारत भी स्वतंत्रता आंदोलन में साथ हो गया। गांधीजी जब देश के बड़े नेता के रूप में स्थापित हुए, तब एक दिन वह अपने गृहनगर राजकोट पहुंचे जहां स्थानीय महाराजा के विरुद्ध जन आंदोलन चल रहा था। आंदोलन के नेताओं ने गांधीजी से इस अभियान का नेतृत्व करने का अनुरोध किया, किंतु बापू ने इसके प्रति कोई उत्साह नहीं दिखाया। इस पर आंदोलनकारियों ने गांधीजी से पूछा कि आपने अंग्रेजों के छक्के छुड़ा दिए तो एक राजा से टक्कर लेने से क्यों कतरा रहे हैं? तब गांधीजी का उत्तर था, ‘अंग्र्रेज विदेशी हैं और राजा मेरे अपने, यदि मुझे कोई समस्या होगी तो मैं उनके समक्ष अपनी बात रखूंगा। गांधीजी ने परिवारवाद को भी कभी प्रोत्साहन नहीं दिया। 

गांधीजी की पंथनिरपेक्षता धर्मनिरपेक्ष नहीं थी। उनका सनातन धर्म में अडिग विश्वास था। वह वैदिक संस्कृति के सूत्र ‘एकं सद् विप्रा: बहुदा वदंति’ के दर्शन से प्रेरणा पाते थे। गांधीजी का ‘सत्याग्रह’ आंदोलन भी हिंदू चिंतन के ‘सत्यमेव जयते’ से प्रेरित रहा। उसी सत्य को उन्होंने भगवान श्रीराम में देखा और उनकेवनवास को धर्मपालन माना, इसलिए रामराज्य की परिकल्पना की। इसके विपरीत गांधीजी की विरासत संभालने का दावा करने वाले आज भगवान श्रीराम और उनसे संबंधित स्मृतियों को सांप्रदायिक बताते हैं। गांधीजी जीवनभर लालच, धोखे और भय के कारण होने वाले मतांतरण के विरोध में चर्च के खिलाफ लड़ते रहे, किंतु आज कांग्रेस उसके समर्थन में खड़ी नजर आती है। गोरक्षा का विषय गांधीजी के लिए स्वराज से अधिक प्रिय था। वह कहते थे, ‘स्वराज की प्राप्ति गोरक्षा के बिना संभव नहीं।’ इस संदर्भ में गत दिनों केरल की घटना का स्मरण होता है जिसमें कांग्रेसी नेताओं ने एक बछड़े का वध कर उसका मांस परोसा था। गांधीजी ने स्वावलंबन और स्वदेशी पर भी बल दिया। आज केवल राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रेरित संगठन ही स्वदेशी की अवधारणा का प्रचार करते हैं। क्या यह विडंबना नहीं कि गांधीजी की विरासत के दावेदारों के विपरीत, संघ अपने व्यवहार में उनके विचारों के कहीं अधिक निकट खड़ा नजर आता है? गांधी आज पहले से कहीं अधिक प्रासंगिक हैं।