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केरल में खराब होते हालात

24_02_2017-23advaita-kalaएक दृश्य की कल्पना कीजिए। एक कामयाब फिल्म अभिनेत्री है जिसकी सफलता ने उसे सशक्त बनाया है। अपने कार्यस्थल से काम निपटाकर वह अपनी कार से वापस लौट रही है। और अपने सपनों में खोई है। ऐसे दृश्य को सुरक्षा भाव के नजरिये से देखा जाएगा जहां औरत होने के खतरे असुरक्षा की दृष्टि से हवा हो जाते हैं। हालांकि बीते शुक्रवार एक मलयाली अभिनेत्री के लिए यह मंजर तब पूरी तरह बदल गया जब उसकी कार को घात लगाए बैठे लोगों ने सुनियोजित दुर्घटना की आड़ में रोक लिया। चार आदमी उसकी कार में जबरन घुस आए और कोच्चि के आसपास की सड़कों में चलती कार में ही उससे बदसुलूकी करते रहे। इस दौरान उन्होंने तस्वीरें उतारीं और वीडियो टेप भी बनाया ताकि उनकी हैवानियत पूरी होने के बाद वह हादसे को लेकर अपना मुंह न खोले। उन विकृत वहशियोंं की नजर में उसका सेलेब्रिटी होना शायद उसकी सबसे बड़ी दुखती रग थी। हालांकि उसने उन्हें गलत साबित कर दिया। उसने पुलिस में जाकर शिकायत लिखाई और अपने लिए न्याय की गुहार लगाई। उसकी बहादुरी कई मायनों में मिसाल है। यौन उत्पीड़न और दुष्कर्म ऐसे अपराधों में शुमार हैं जिनकी शिकायत करने से महिलाएं अक्सर हिचकती हैं। इसकी भी अपनी वजहें हैं। उन्हें यही डर सताता है कि अगर वे इसकी शिकायत करेंगी तो लोग खुद उन पर ही उंगलियां उठाएंगे। लिहाजा लोक-लाज और चरित्र-हरण के डर से उनकी जबान खामोश हो जाती है, मगर यह युवा अभिनेत्री इन सब बातों से बेपरवाह रही। घटना के तुरंत बाद ही कैराली न्यूज चैनल ने इस हादसे की खबर अश्लीलता का तड़का लगाकर परोसनी शुरू कर दी। खबर में हादसे से जुड़ा सनसनीखेज ब्योरा दिया जा रहा था। हद तो तब हो गई जब आरोपियों में से एक का अभिनेत्री के साथ रिश्ता भी बताया जाने लगा। कैराली चैनल किसी और का नहीं, बल्कि राज्य में सत्तारूढ़ माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी यानी माकपा का ही है। इस तरह की बेहूदगी केरल के लिए कोई नई नहीं है। अतीत में लिखे अपने लेखों में मैंने पहले भी इसका जिक्र किया है। राज्य पर माकपा की पकड़ उनसे जुड़े लोगों को मनमाने तरीके से काम करने की छूट देती है ताकि उनके आकाओं की मिजाजपुर्सी हो सके। हालांकि इस घटना पर मलयालम फिल्म उद्योग की तल्ख प्रतिक्रिया और उसकी कवरेज पर हुए हंगामे के बाद चैनल को माफी मांगने पर मजबूर होना पड़ा।
माकपा के सत्ता में आने के बाद से राज्य में कानून-व्यवस्था खस्ताहाल हुई है। राजनीतिक हत्याओं का सिलसिला बढ़त पर है। अभी हाल में ही त्रिवेंद्रम लॉ एकेडमी में एक विरोध प्रदर्शन के दौरान भाजपा के दलित नेता डॉ. वावा की पुलिस ने इतनी बेरहमी से पिटाई की कि उनकी एक आंख ही चली गई। दिसंबर से भाजपा और आरएसएस कार्यकर्ताओं के खिलाफ हिंसक वारदातों में खासी तेजी आई है और इसके कारण हताहतों की संख्या में भी इजाफा हुआ है। इनमें वह मामला भी शामिल है जिसमें माकपा कार्यकर्ताओं ने एक घर को आग के हवाले कर दिया था जिससे घर में मौजूद महिला की मौत हो गई थी। उस महिला का क्या कसूर था? सिर्फ इतना कि उसके परिवार के लोग भाजपा से जुड़े थे। इसी तरह संतोष नाम के आदमी को माकपा कार्यकर्ताओं ने उसके घर में घुसकर इतनी निर्दयता से पीटा कि उसकी मौत हो गई। यह मामला खुद मुख्यमंत्री पिनराई विजयन के विधानसभा क्षेत्र का है। संतोष के आश्रितों में एक छोटी बेटी भी है जिसने गरीब परिवारों के बच्चों के लिए आयोजित एक क्विज शो में शिरकत कर जीत हासिल की थी। उनके घर बिजली भी नहीं है।
केरल में आखिर सुरक्षित ठिकाने कहां हैं? आपका घर भी आपका सुरक्षित ठिकाना नहीं हो सकता, क्योंकि भीड़ कभी भी वहां घुसकर निर्ममता से आपको मार सकती है। न ही आपकी कार आपके लिए सुरक्षित है। अभिनेत्री के अपहरण और वीभत्स उत्पीड़न पर मैंने एक टेलीविजन परिचर्चा में भाग लिया। परिचर्चा में शामिल एक शख्स ने कहा कि यह केरल की संस्कृति से मेल नहीं खाता। एक अन्य टिप्पणीकार ने कहा कि उन्हें हैरानी है कि वामपंथी शासन वाले राज्य में ऐसी घटना घटित हुई। इस पर ताज्जुब ही होता है कि क्या इन टिप्पणियों के कुछ अर्थ भी हैं? ऐसा लगता है कि सिर्फ उन्हीं लोगों को संरक्षण हासिल है जो इन अपराधों को अंजाम देते हैं या उनके मददगार होते हैं। यह पाखंड क्यों और उन्हें संरक्षण देने की जरूरत क्यों है? क्या कोई इसी वजह से प्रगतिशील हो जाता है कि वह ऐसा होने का दावा करता है? क्या भाजपा शासित राज्य में दुष्कर्म एक स्वाभाविक घटना है और दूसरे राज्य में अप्रत्याशित घटना जिस पर हैरानी जताई जाती है? महिला सुरक्षा पर राजनीति करना बेहद शर्मनाक है। यदि हम इसे राजनीतिक सहूलियत के नजरिये से देखें तो नैतिकता की ठेकेदारी ने अब केरल में भी दस्तक दे दी है। यहां भी ऐसे मामले बढ़ रहे हैं। अभी हाल में एक शैक्षिक परिसर में दो महिला छात्रों के साथ बैठे उनके एक पुरुष सहपाठी को माकपा से संबद्ध छात्र संगठन एसएफआइ के कार्यकर्ताओं ने प्रताड़ित किया। कल्पना कीजिए कि अगर केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी से संबद्ध किसी संगठन ने ऐसा किया होता तो क्या हुआ होता? इसकी भी मिसाल देख लीजिए।
उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनावों में भाजपा ने कॉलेज जाने वाली छात्राओं की सुरक्षा के लिए एंटी-रोमियो दस्ते गठित करने का वादा किया है। उसके इस वादे की तगड़ी आलोचना हुई और उस पर तमाम तंज कसे गए, जबकि उत्तर प्रदेश में यह महिला सुरक्षा से जुड़ा एक गंभीर मसला है, क्योंकि अतीत में इस पर हुए विवाद खूनी संघर्ष तक पहुंच गए। एंटी-रोमियो दस्ते गठन करने की आलोचना में यहां तक कहा गया कि यह तो शेक्सपियर का अपमान है। अगर इसी तर्क को आधार मानें तो फिर केरल में महिलाओं की सुरक्षा के लिए गठित पिंक स्क्वाड्स यानी गुलाबी दस्ते के गठन पर लोगों की त्योरियां क्यों नहीं चढ़ीं? क्या यह आधी आबादी को लेकर एक रंग विशेष से जुड़ी घिसी-पिटी मानसिकता को नहीं दर्शाता? असल में बेतुकेपन या बेहूदगी की इंतहा तब होती है जब महिला सुरक्षा पर राजनीति शुरू हो जाती है।मौजूदा माहौल में यह चलन खूब चल निकला है। महिला सुरक्षा बेहद अहम है और महिला मतदाता होने के नाते यह हमारी जिम्मेदारी बनती है कि हम अपने नेताओं को इस मुद्दे पर जवाबदेह बनाएं और अपने निजी आग्रहों की आड़ में बहानेबाजी से बाज आएं और सत्ता में बैठे लोगों से डर को तिलांजलि दें। शक्ति हमारे भीतर ही समाहित है और उस शक्ति का उपयोग हमें ऐसे लोगों के चुनाव में करना चाहिए जो महिलाओं से जुड़े मुद्दों को लेकर अपने वादों पर खरे उतर सकें।

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