नई सदी की दस्तक के साथ ही अधिकांश सैन्य विशेषज्ञों ने भारत सरकार और भारतीय सेना को यही सलाह दी कि वे जम्मू कश्मीर से जुड़े मसलों को दीर्घकालिक एवं व्यापक नजरिये से देखें। दीर्घकालिक परिप्रेक्ष्य इसलिए जरूरी है, क्योंकि साल दर साल समीक्षाओं और तौर-तरीकों से अपेक्षित रणनीतिक नतीजे नहीं मिल पा रहे हैं। वहीं व्यापक दृष्टिकोण इसलिए, क्योंकि सरकार के सभी विभागों को इसमें कंधे से कंधा मिलाकर भूमिका निभानी होगी और पूरा जिम्मा केवल सेना के कंधों पर ही नहीं छोड़ा जा सकता। इस सलाह पर कुछ हद गौर जरूर हुआ है, लेकिन व्यापक दीर्घावधिक रणनीति अभी तक नहीं बनाई गई है।
जम्मू कश्मीर में भाजपा और पीडीपी के सत्ता में आने के बाद कुछ आशा जगी थी, क्योंकि इसमें जम्मू और कश्मीर दोनों क्षेत्रों का संतुलित प्रतिनिधित्व रहा तो लद्दाख क्षेत्र की भावनाएं भी परवान चढ़ीं। हालांकि 2015 से ही ये उम्मीदें धराशायी होने लगीं, क्योंकि हालात ऐसे बनते गए जहां नए गठबंधन की तमाम कोशिशें भी फलीभूत नहीं हो पाईं। किसी राजनीतिक पहल की सफलता सुरक्षा परिदृश्य के स्थायित्व पर निर्भर करती है। असल में कुछ शरारती तत्वों की कुत्सित मंशा की वजह से ही ऐसे अस्थिर हालात बने हुए हैं। ये तत्व नहीं चाहते कि राजनीतिक गठजोड़ या सियासी पहल को मजबूती मिल सके। इसी मंशा को सड़कों पर ताकत के इस्तेमाल, आतंकी अभियानों और अलगाववाद की ओर ले जाने वाले एजेंडे के जरिये बड़े जोश के साथ मूर्त रूप दिया जाता है। इस लिहाज से मौजूदा सीजन यानी इन गर्मियों के दौरान भारतीय रणनीति केवल लघु अवधि वाला दृष्टिकोण अपना सकती है, क्योंकि किसी भी दीर्घावधिक योजना से पहले सुरक्षा के मोर्चे पर स्थायित्व बेहद जरूरी है। इसका अर्थ होगा सुरक्षा के पैमाने पर ज्यादा ध्यान केंद्रित करना जिसमें जहां सेना को व्यापक भूमिका निभानी होगी तो राजनीतिक पहल के लिए गुंजाइश कम होगी। यही वजह है कि घाटी का रुख करने वाले तमाम प्रतिनिधिमंडलों से चर्चा के बावजूद सरकार की ओर से कम ही पहल देखने को मिली हैं।
यहां वही पुरानी कहावत प्रासंगिक मालूम पड़ती है कि आप कमजोर स्थिति में होते हुए शांति की ओर निहारना शुरू नहीं कर सकते। साथ ही आप अतीत में की गई पहल को भी बार-बार नहीं दोहरा सकते। इस लिहाज से सामरिक नजरिये से देखें तो क्या भारतीय स्थिति वाकई में इतनी कमजोर है और क्या अमन-शांति को लेकर बने प्रतिनिधिमंडल भी वास्तव में यथार्थवादी हैं? इस साल के आने वाले दौर को देखते हुए ये विश्लेषण के दृष्टिकोण से अहम मुद्दे हैं। अधिकांश विश्लेषक सुरक्षा हालात का विश्लेषण करने के लिए आंकड़ों का हवाला देना पसंद करते हैं, लेकिन हादसों की प्रकृति आंकड़ों से भी ज्यादा अहम है कि उन्हें किस तरह अंजाम दिया जा रहा है और सुरक्षा परिदृश्य की हालत क्या है। उत्तरी कश्मीर मुख्य रूप से निशाने पर रहा है, लेकिन अब कुछ गैर-परंपरागत इलाकों में भी घुसपैठ हो रही है। यह पूरी तरह समझ में आता है। ऐसे में अब सेना को आने वाले दिनों में घुसपैठ विरोधी मुहिम को और ज्यादा धार देनी चाहिए। सुरक्षा प्रतिष्ठान के लिए आतंकियों की ताकत में जरा भी इजाफा गवारा नहीं होगा और अगर ऐसा होता है तो इसके बेहद खतरनाक नतीजे झेलने होंगे।
असल में यह मध्य एवं दक्षिणी कश्मीर का इलाका है जहां आतंक की स्थानीय रगों में उबाल आ रहा है। यहां सुरक्षा बलों को नुकसान उठाना पड़ रहा है। जम्मू कश्मीर पुलिस को भी जानबूझकर निशाना बनाया जा रहा है ताकि उसे हतोत्साहित कर उसकी प्रभाव क्षमता कुंद की जाए और खुफिया ढांचे की बुनियाद ध्वस्त की जाए। छुट्टियों पर गए कश्मीरी फौजी अफसर लेफ्टिनेंट उमर फैयाज की निशाना बनाकर की गई हत्या का मकसद उन लोगों को भविष्य का खतरनाक संकेत भेजना था जो भारतीय तंत्र के साथ किसी भी तरह जुड़े हुए हैं। इसका बड़ा सार्थक जवाब उन 14 युवा कश्मीरियों के जरिये मिला जो सिविल सेवा में चुने गए। वहीं अलगाववादियों की गीदड़-भभकियों के बावजूद हजारों की तादाद में युवा कश्मीरी दूसरे भर्ती केंद्रों पर भी नजर आए। इसमें चार चांद तब लग गए जब आइआइटी-जेईई के लिए बने सेना के सुपर-40 कोचिंग संस्थान से कई युवाओं को अपने सपनों की मंजिल के रूप में इन प्रतिष्ठित संस्थानों में दाखिला मिलने की राह साफ हुई। अब इसका दायरा बढ़ाकर भी सुपर-50 किया जा रहा है। फिर भी कश्मीरी युवाओं की मिजाज बिगाड़ने वाली खामोशी को साफ तौर पर महसूस किया जा सकता है।
कोई अपने मन की थाह तो नहीं देता, लेकिन कौशल विकास कार्यक्रमों और भर्ती केंद्रों पर आने वाले लोगों की समानांतर धारा भी एक कड़वी हकीकत है। इससे मुंह मोड़ लेने से कोई मदद नहीं मिलने वाली। ऐसे में सुरक्षा प्रतिष्ठान को इस पर गहन शोध करना होगा कि आखिर वे कौनसे कारण हैं जिनसे अलगाववाद की फसल को इतना जोरदार खाद-पानी मिल रहा है। जहां तमाम लोग अलगाव की इस भावना को जाहिर करने के लिए भीड़ की शक्ल में सड़कों पर उतर रहे हैं वहीं तमाम ऐसे भी हैं जो अपने अंदर ही इसे पाले हुए हैं और उसका प्रदर्शन नहीं करते। सेना की पहुंच हमेशा से दोस्ताना रही है, लेकिन आज उसके समक्ष सबसे बड़ी चुनौती यही है कि पुराने संबंधों की बहाली कैसे की जाए और साथ ही उन लोगों से सख्ती से कैसे निपटा जाए जो मुठभेड़ वाली जगहों पर अचानक भीड़ जमाकर सुरक्षा बलों के अभियान में खलल डालकर कानून को ठेंगा दिखाते हैं जैसा कि मेजर गोगोई के मामले में देखने को मिला।
काफी समय तक दक्षिण कश्मीर को करीब से देखने के तौर पर एक सैन्य दिमाग के नजरिये से यहां एक सबक का उल्लेख करना खासा उपयोगी होगा कि सेना ने यहां अपने अभियान को अंजाम तक पहुंचाने से पहले ही स्थायित्व के पैमाने पर अस्थाई सफलता मिलने के बाद ही अपने कदम पीछे खींच लिए। सेना ने दक्षिण कश्मीर में अपने संसाधनों को बैंक के रूप में ही देखा और इस तरह यह असंतुलन की स्थिति बनी। समय से पहले जीत की मुनादी करने से हमने बढ़िया मौका खो दिया और इसके चलते ही आज कुलगाम-शोपियां बेल्ट में आतंक का साया सिर उठा रहा है। इस स्थिति को तुरंत बदलने की जरूरत है। मैं आपको याद दिला सकता हूं कि जब कुलगाम में आरआर का मुख्यालय था तब यह इलाका अपेक्षाकृत ज्यादा सुरक्षित था। अब इसी इलाके में अलगाववाद की ओर सबसे ज्यादा झुकाव है जहां सौ से भी ज्यादा युवाओं ने अलगाववाद की राह पकड़ी है।
भारतीय तंत्र से जुड़ने वाले स्थानीय लोगों को जानबूझकर निशाना बनाने पर किसी तरह का पछतावा न करना भी एक तरह से अलगाववादियों की नीति में आया बदलाव है। यह बेहद चिंताजनक है, क्योंकि कुछ हफ्तों के भीतर ही हिंदुओं की पवित्र अमरनाथ यात्रा शुरू हो जाएगी। इसकी सुरक्षा बेहद महत्वपूर्ण होगी। सीमा के दोनों ओर ऐसे उन्मादी पागलों की कमी नहीं है जो भारत और भारतीयों को निशाना बनाने में किसी तरह की कोताही बरतेंगे।