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अधर में अटके रोहिंग्या मुसलमान

दुनिया का भूक्षेत्र बहुत बड़ा है और इस्लामी अंतरराष्ट्रीयता का भी, लेकिन रोहिंग्या मुसलमानों के लिए कहीं कोई जगह नहीं। संप्रति हजारों रोहिंग्या मुसलमान बांग्लादेश और म्यांमार की सीमा पर ‘नोमैन्स लैंड’ में बांग्लादेश में घुसने की प्रतीक्षा कर रहे हैं। वे बेघरबार हैं, व्यथित हैं, लेकिन अवांछित हैं। भारत में ही लगभग चालीस हजार रोहिंग्या मुसलमान शरणार्थी हैं। वे जम्मू, कश्मीर, हैदराबाद, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली, हरियाणा और तमिलनाडु तक फैले हुए हैं। वे कभी पहले पूर्वी बंगाल (अब बांग्लादेश) से म्यांमार गए थे। म्यांमार उन्हें अपने यहां के 135 मूल समूहों में नहीं मानता।

बांग्लादेश को उन्हें अपना जानकर स्वीकार करना चाहिए, लेकिन बांग्लादेश भी लेने को तैयार नहीं है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दुख व्यक्त किया है कि लोग उत्पीड़न का शिकार हो रहे हैं। भारत की अपनी सुरक्षा चिंताएं भी हैं। बांग्लादेशी घुसपैठियों और आतंकी संगठनों की साठगांठ से भारत पहले से ही पीड़ित रहा है। सो गृह राज्यमंत्री किरण रिजिजू ने उन्हें अवैध शरणार्थी कहा है। भारत या म्यांमार ही नहीं बांग्लादेश सहित दुनिया का कोई भी मुल्क उन्हें लेने को तैयार नहीं है। समस्या बड़ी है और चिंताजनक भी। यूरोपीय देशों में भी इस्लामिक स्टेट की हिंसा से भागे हजारों पीड़ितों को शरण देने की समस्या देखी गई है। 

शरणार्थी समस्या नई नहीं है। इसी उपमहाद्वीप में 1971 में इससे भी बड़ी शरणार्थी समस्या थी। 1970 में अविभाजित पाकिस्तान में पूर्वी पाकिस्तान की सघन आबादी ने पश्चिमी पाकिस्तान के प्रति गुस्सा दिखाया। सेना पूर्वी पाकिस्तान को लेकर आक्रामक थी। तीन लाख से ज्यादा लोग मारे गए थे। चार लाख बांग्लादेशी महिलाओं के साथ दुष्कर्म हुए थे। तब लाखों शरणार्थी भारत आए। भारत ने उन्हें प्यार दिया था। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने पश्चिमी देशों की यात्रा की। उन्होंने पश्चिमी देशों से बांग्लादेश में पाकिस्तानी अत्याचार रोकने के लिए दबाव बनाया। यक्ष प्रश्न है कि अब दुनिया का कोई भी देश मुसलमानों को शरण देने के लिए तैयार क्यों नहीं है? सिर्फ 46 बरस पहले ही बांग्लादेशी शरणार्थियों को हर तरह की मदद देने वाले भारत में अब बांग्लादेशी रोहिंग्या मुसलमानों को लेकर कठोरता क्यों है? इसका सीधा उत्तर यही है कि गुजरे 30-35 बरस में ही जिहादी आतंकवाद ने सामान्य मुसलमानों को भी अपने समूह में शामिल कर लेने का दावा किया है। इसके दोषी आतंकी समूह और उन्हें संरक्षण देने वाली सरकार ही है। 

मानव सभ्यता के इतिहास में यह शर्मनाक घटना है। पंथ के आधार पर किसी को श्रेष्ठ या हीन नहीं कहा जा सकता, लेकिन इस्लामी संगठनों ने इस्लामी श्रेष्ठता, इस्लामी स्टेट राज्य की खातिर रक्तपात की ही अपरिहार्यता का प्रचार किया है। आतंकी संगठनों का मूल विचार मजहबी राज्य या इस्लामी स्टेट ही है। इन संगठनों की दृष्टि में ‘जो उनकी बात न माने उसकी हत्या ही एकमात्र विकल्प’ है। जिहाद की अनेक परिभाषाएं हैं, लेकिन विश्व लोकमत के जेहन में मजहबी राज्य की स्थापना के लिए युद्ध करना ही जिहाद है। आतंकी संगठनों के मजहबी नाम बड़े प्यारे हैं? आतंकी संगठन हरकत उल जेहाद अल इस्लामी का मतलब पवित्र इस्लाम के लिए सक्रियता है। अलकायदा भी खूबसूरत मजहबी नाम है। लश्कर ए तैयबा और जैश ए मोहम्मद को क्या कहेंगे? इस्लामिक स्टेट का आतंक आकाशचारी है ही। ऐसे तमाम रक्तपाती संगठनों के बीच आम मुसलमान की छवि खो गई है। इसीलिए दुनिया के किसी भी देश के पीड़ित मुसलमानों को कोई भी देश शरण देने को तैयार नहीं है।

भारत में सभी विचार और आस्थाओं के प्रति आदरभाव रहा है। भारतीय समाज और सभ्यता का विकास दर्शन और वैज्ञानिक दृष्टिकोण में हुआ है। यहां इंडोनेशिया छोड़ पाकिस्तान, बांग्लादेश सहित सभी इस्लामी देशों से ज्यादा मुस्लिम आबादी स्वयं को सुरक्षित मानती है, लेकिन बीते तीन-चार दशक से आतंकी, जिहादी वारदातों के चलते भारत के बहुसंख्यक समाज में असुरक्षा बोध बढ़ा है। अमेरिका भी बड़े आतंकी हमले के बाद आंतरिक सुरक्षा के मोर्चे पर अतिरिक्त सतर्क रहा है। यूरोपीय देशों में भी ऐसा ही वातावरण है। कट्टरपंथी आतंकी संगठनों समूहों ने विश्व मुस्लिम समुदाय को अन्य समुदायों से अलग थलग कर दिया है। उन्हें शंका की दृष्टि से देखा जा रहा है। सभी मनुष्य जन्मत: मनुष्य हैं। वे अपने विश्वास के कारण ही ईसाई, इस्लामी, यहूदी या हिंदू होते हैं। सभ्यता और संस्कृति के आदर्श उन्हें संवेदनशील मनुष्य बनाते हैं, लेकिन आतंकी संगठनों ने सभी मुसलमानों का नुकसान किया है। कट्टरपंथी संगठन उदार और प्रगतिशील मुसलमानों को सच्चा मुसलमान नहीं मानते। वे विज्ञान और दर्शन के निष्कर्ष भी स्वीकार नहीं करते। सारी दुनिया आकाश नाप रही है, लेकिन वे मध्ययुगीन मान्यताओं से ही चिपके हुए हैं।

भारत ने उत्कृष्ट जीवन मूल्यों को अपनाया था। उसने 1971 में लाखों बांग्लादेशी लोगों को शरण दी। बाद में आतंकी संगठन खुलकर खेले। पड़ोसी देश ने आतंकी प्रशिक्षण शिविरों के संस्थान चलाए। संसद पर हमला हुआ। निर्दोष बच्चों और महिलाओं को भी मारा गया। इस विचारधारा ने भारत के मन को भी घायल किया है। रोहिंग्या मुसलमानों का मामला सर्वोच्च न्यायालय में भी है। न्यायालय ने केंद्र से जवाब मांगा है। न्यायालय से कहा गया है कि इस बीच सरकार उन्हें देश से न निकाले जाने का आश्वासन दे। कोर्ट ने अंतरिम रोक की मांग नहीं मानी है। जम्मू कश्मीर में रहने वाले 6,000 रोहिंग्या मुसलमानों की ओर से अलग मुकदमा भी दायर है। दोनों मामलों की सुनवाई विचाराधीन है। मसला मानवीय दृष्टिकोण का है। रोहिंग्या मुसलमानों ने भी कहा है कि भारत से निकाले जाने पर उनकी मौत पक्की है। वे बांग्लादेश या म्यांमार नहीं भारत में ही खुद को सुरक्षित मान रहे हैं। यह स्वाभाविक है। पाकिस्तान, बांग्लादेश में भी रक्तपात है। वे मुसलमान होकर भी मुस्लिम बहुल बांग्लादेश में असुरक्षित हैं और बहुसंख्यक हिंदू देश में भी स्वयं को सुरक्षित मान रहे हैं। 

आधुनिक तकनीक ने दुनिया को छोटा बनाया है। भारत पर सभी निगाहें हैं। भारतीय संस्कृति और दर्शन सर्वाधिक प्रचीन हैं भी। अमेरिका शक्ति संपन्न है, लेकिन सभ्यता की समझ चिंताजनक है। 24 बरस पहले 1993 में अमेरिकी चिंतक हंटिगटन ने ‘द क्लैश ऑफ सिविलाइजेशन’ नाम से किताब लिखी थी। वह लिखते हैं ‘सर्व ब्रिटेनवाद की जगह अब सर्व अमेरिकीवाद युग आ गया है। इस्लाम की जनसंख्या का विस्फोट हुआ है।’ उन्होंने क्रिस्टोफर डाउसन को उद्धृत किया है कि ‘बड़े पंथों के आधार पर ही बड़ी सभ्यताएं टिकी हैं।’ लेकिन सच ऐसा नहीं है। इस्लाम और ईसाइयत के विश्वासीजनों की संख्या बड़ी है, लेकिन कोई सभ्यता पंथिक मजहबी संख्या बल के आधार पर ही श्रेष्ठ नहीं होती। ईसाई, यहूदी और इस्लाम अनुयायी एक ही सामी परंपरा के हैं। तीनों युद्धरत रहते हैं। सभ्यताएं नहीं लड़तीं। बर्बरता ही रक्त पिपासु होती हैं। रोहिंग्या मुसलमानों की समस्या कट्टरपंथी मजहबी संगठनों की देन है। दुर्भाग्यपूर्ण है कि बेघरबार लोग भी अपनी पहचान के कारण ‘दो गज जमीन’ के लिए तरस रहे हैं।

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