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स्थिति कानून एवं अव्यवस्था की

02_05_2017-01rajeev_sachanबीते सप्ताह 26 अप्रैल को केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल यानी सीआरपीएफ के महानिदेशक की नियुक्ति की गई। यह नियुक्ति ऐसे समय हुई जब 24 अप्रैल को छत्तीसगढ़ के सुकमा जिले में नक्सलियों के हमले में सीआरपीएफ के 25 जवानों की शहादत के बाद यह सवाल जोर-शोर से उठ रहा था कि आखिर इस बल के महानिदेशक का पद रिक्त क्यों है? यह कहना तो सही नहीं होगा कि यदि सीआरपीएफ के महानिदेशक का पद रिक्त नहीं होता तो इस बल के जवानों को सुकमा में इतनी क्षति नहीं उठानी पड़ती, लेकिन यह भी सही है कि तब लोगों को यह कहने का मौका नहीं मिलता कि इस बल के प्रमुख का पद खाली क्यों पड़ा है? अगर यह सवाल उठा तो इसके लिए सरकार ही जिम्मेदार है, क्योंकि देश के सबसे बड़े अर्धसैनिक बल के महानिदेशक का पद करीब दो माह से रिक्त था। यह पद उस समय भी रिक्त था जब 11 मार्च को सुकमा में ही सीआरपीएफ के 12 जवान नक्सलियों के हाथों मारे गए थे, लेकिन तब वैसा कोई सवाल नहीं उठा जैसा 24 अप्रैल की घटना के बाद उठा। शायद इसका कारण यह रहा हो कि सीआरपीएफ के पूर्व महानिदेशक 28 फरवरी को ही सेवानिवृत हुए थे। यदि इस प्रसंग को अपवाद भी मान लें तो आखिर इसका क्या औचित्य कि देश के पास पूर्णकालिक रक्षामंत्री भी नहीं है।

एक ऐसे समय जब रक्षा-सुरक्षा संबंधी चुनौतियां बढ़ रही हों तब देश के पास पूर्णकालिक रक्षामंत्री न होना सवाल खड़े करता है। यदि एक क्षण के लिए इसे भी अपवाद मान लें तो क्या इस सवाल का भी कोई जवाब हो सकता है कि विभिन्न राज्यों में पुलिसकर्मियों के लाखों पद क्यों खाली पड़े हुए हैं? हो सकता है कि इस सवाल के जवाब में केंद्र सरकार की ओर से ऐसा कोई तर्क दिया जाए कि पुलिस राज्यों के अधिकार क्षेत्र का विषय है और इस मामले में वह चाहकर भी कुछ नहीं कर सकती। नि:संदेह कानून एवं व्यवस्था राज्यों के अधिकार क्षेत्र वाला विषय है और राज्य सरकारें अपने इस अधिकार को लेकर जरूरत से ज्यादा संवेदनशील भी रहती हैं, लेकिन क्या मोदी सरकार का भाजपा शासित राज्यों पर भी कोई जोर नहीं? स्पष्ट है कि इसे कोई नहीं मानेगा कि भाजपा शासित राज्य सरकारें केंद्र सरकार के किसी आदेश निर्देश और यहां तक कि उसकी अपेक्षा को पूरा करने में आनाकानी कर सकती हैं।

जिन राज्यों में बड़ी संख्या में पुलिसकर्मियों के पद रिक्त हैं उनमें मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ सरीखे राज्य भी हैं जहां भाजपा लंबे समय से शासन में है। जब सुप्रीम कोर्ट पुलिसकर्मियों के रिक्त पदों को जल्द भरने के लिए राज्य सरकारों को फटकारने में लगा हुआ है तब भाजपा अपनी सरकारों को इस मामले में उदाहरण पेश करने के लिए क्यों नहीं कह सकती? सवाल यह भी है कि केंद्रीय गृहमंत्रालय राज्यों को पुलिस सुधार संबंधी सुप्रीम कोर्ट के सात सूत्रीय दिशा-निर्देशों पर अमल करने के लिए क्यों नहीं कह पा रहा है? क्या इसलिए कि वह खुद भी इन दिशा-निर्देशों का पालन करने के लिए तैयार नहीं? सच्चाई जो भी हो, यह दयनीय है कि करीब तीन साल बाद भी पुलिस सुधार मोदी सरकार के एजेंडे से बाहर दिखता है। पुलिस सुधार के मामले में ढुलमुल रवैये का परिचय संप्रग सरकार ने भी दिया था और यदि मोदी सरकार अपनी सफाई में कुछ कह सकती है तो यही कि पहले भी ऐसा ही था। उसका जवाब जो भी हो, यह पुलिस सुधार की अनदेखी का ही नतीजा है कि कानून एवं व्यवस्था से लेकर आंतरिक सुरक्षा के समक्ष चुनौतियां बढ़ती जा रही हैं।
वाजपेयी सरकार के समय केंद्रीय गृहमंत्री के तौर पर लालकृष्ण आडवाणी ने अमेरिका की संघीय पुलिस एफबीआई की तर्ज पर देश में पुलिस का ढांचा खड़ा करने की जरूरत जताई थी। इस विचार को तत्कालीन राज्य सरकारों ने तत्काल प्रभाव से सिरे से खारिज कर दिया। तर्क यह दिया गया कि पुलिस राज्यों का विषय है। इसके बाद जब संप्रग सरकार के समय गृहमंत्री के तौर पर पी. चिदंबरम ने राष्ट्रीय आतंकवाद निरोधक केंद्र यानी एनसीटीसी के गठन की जरूरत को वक्त की मांग बताया तो भाजपा शासित राज्यों के साथ अन्य राज्यों ने भी इस पहल को खारिज कर दिया। इस बार भी यही तर्क दिया गया कि पुलिस राज्यों का विषय है। पिछले दिनों जब गृहमंत्रालय की संसदीय समिति ने एनसीटीसी के गठन की आवश्यकता पर बल दिया तो इस मंत्रालय के अधिकारियों ने इस दिशा में आगे बढ़ने और राज्य सरकारों से विचार-विमर्श करने की जरूरत जताई। एक तरह से अब भाजपा को वह प्रस्ताव रास आ रहा जिसे उसने विपक्ष में रहते समय नकार दिया था या फिर जिसकी ओर लालकृष्ण आडवाणी ने संकेत किया था। यदि राजनीतिक दल चाहें तो एनसीटीसी का गठन आसानी से संभव है-ठीक वैसे ही जैसे जीएसटी काउंसिल का गठन किया गया है। जीएसटी काउंसिल केंद्र और राज्यों के साझा सहयोग वाली संघीय व्यवस्था है।

यदि कराधान के मामले में कोई संघीय व्यवस्था आकार ले सकती है तो आतंकवाद से लड़ने के मामले में भी ऐसी ही कोई व्यवस्था क्यों नहीं बन सकती? आज यदि यह सवाल कठिन नजर आ रहा है तो सिर्फ राजनीतिक दलों की संकीर्णता के कारण। यह संकीर्णता सभी दलों की खासियत बन गई है और यह इससे साफ है कि भाजपा विपक्ष में रहते समय जिन तमाम मामलों में असहयोग भरा रवैया रखती थी उन पर आज के विपक्ष का सहयोग चाहती है। दूसरी ओर आज का विपक्ष बीते कल के विपक्ष की खराब फोटोकॉपी बनने पर आमादा है। पुलिस सुधार की अनदेखी के मामले में सभी दलों में मौन सहमति सी नजर आती है तो इसीलिए कि सभी दल पुलिस का अपनी तरह से इस्तेमाल करना चाह रहे हैं।संकीर्ण राजनीति आंतरिक सुरक्षा के परिदृश्य को किस तरह कमजोर कर रही है, इसका प्रमाण यह भी है कि कोई भी विपक्षी दल कश्मीर में आतंकियों के मददगार पत्थरबाजों की निंदा करने के लिए तैयार नहीं, लेकिन ऐसे दलों की कमी नहीं जिनके नेताओं को उन्मादी भीड़ के खिलाफ पैलेट गन के इस्तेमाल पर आपत्ति है। याद कीजिए कि कुछ समय पहले जब सेनाध्यक्ष बिपिन रावत ने पत्थरबाजों को
आतंकियों का समर्थक बताते हुए उन्हें चेताया था तब विपक्षी नेता किस तरह उन पर टूट पड़ने के लिए आतुर थे। आखिर जब कानून बनाने वाले अव्यवस्था के पोषक अथवा उसके हिमायती हों तो कानून एवं व्यवस्था की स्थिति सुधरने और आंतरिक सुरक्षा का परिदृश्य बेहतर होने की उम्मीद कैसे की जा सकती है?

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