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बाहरी सेनापतियों के भरोसे कांग्रेस

गुजरात विधानसभा चुनाव पिछले 15 साल से राष्ट्रीय विमर्श का केंद्र बनता चला आ रहा है। इस बार भी है। इसके पहले हर चुनाव में कांग्रेस मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी से लड़ती रही। इस बार मोदी राज्य के मुख्यमंत्री नहीं हैैं। कांग्रेस पिछले तीन चुनावों में गुजरात को राष्ट्रीय मुद्दा बनाकर पेश करती और चुनाव लड़ती थी। इस बार वह स्थानीय मुद्दों पर अपना अभियान केंद्रित कर रही है तो भाजपा ने इस बार विधानसभा चुनाव को राष्ट्रीय मुद्दा बना दिया है। इसलिए कांग्रेस के सामने फिर से मोदी हैं।

पिछले चुनावों के मुकाबले इस चुनाव में एक और फर्क यह है कि कांग्रेस गुजरात में विकास की बात कर रही है तो भाजपा कह रही है कि है कोई मोदी का विकल्प? इस बार कांग्रेस को तीन बांकों की तलवार पर भरोसा है। इन तीन में से दो अभी भाजपा के बजाय कांग्रेस को आजमा रहे हैं। कांग्रेस जब संकट में घिरती है तो अतीत में जाती है। वह इतिहास से सबक लेने के बजाय इतिहास को दोहराने की कोशिश करती है। गुजरात में भी यही हो रहा है। 1985 में उसके नेता माधव सिंह सोलंकी ने जातियों का एक गठजोड़ बनाया था जिसे खाम (क्षत्रिय, हरिजन, आदिवासी, मुस्लिम) कहा गया था। इसने कांग्रेस को ऐतिहासिक चुनावी जीत (149 सीटें) दिलवाई।

इसके विरोध में जो आंदोलन हुआ उसमें पाटीदार समाज के सौ से अधिक लोग मारे गए। वह दिन है और आज का दिन, पाटीदारों ने कांग्रेस की ओर मुड़कर नहीं देखा और भाजपा का दामन थाम लिया। इस ऐतिहासिक जीत के बाद कांग्रेस गुजरात में कभी सत्ता में लौटकर नहीं आई। इस बार खाम तो नहीं, लेकिन कांग्रेस जातियों का एक गठजोड़ बनाने की कोशिश कर रही है। वह इस बात को याद नहीं करना चाहती कि उसकी पिछली कोशिश का दूरगामी असर क्या हुआ था? इस समय तो उसके पास माधव सिंह सोलंकी जैसा कोई कद्दावर नेता भी नहीं है।

विधानसभा चुनाव में कांग्रेस इस बार तीन नए हथियार लेकर उतरना चाहती है। ये हैं राज्य के तीन युवा नेता जो अलग-अलग वर्ग से आते हैं। हार्दिक पटेल पाटीदारों के नेता हैं। अल्पेश ठाकोर पिछड़े समुदाय की ठाकोर जाति से हैं। तीसरे नेता हैं जिग्नेश मेवानी, जो दलित वर्ग से आते हैं। तीनों ही पिछले दो साल में उभरे हैं। तीनों के राजनीतिक हित परस्पर टकराते हैं। अल्पेश ठाकोर इसलिए नेता बने, क्योंकि पाटीदारों की आरक्षण की मांग के विरोध में पिछड़ा समुदाय लामबंद होने लगा। पाटीदारों और दबंग पिछड़ों के दलितों पर अत्याचार के विरोध में जिग्नेश मेवानी की राजनीति चमकी। अब कांग्रेस इन तीनों को अपने तंबू में लाना चाहती है। अल्पेश ठाकोर कांग्रेस में रह चुके हैं इसलिए उन्हें फिर से कांग्रेस में शामिल होने में कोई दिक्कत नहीं हुई। बाकी दोनों अभी बाहर से मिलने-छिपने का खेल खेल रहे हैं। 

गुजरात के पाटीदार पिछले दो साल से आरक्षण की मांग को लेकर आंदोलन कर रहे हैं। हार्दिक पटेल इस आंदोलन के नेता के तौर पर उभरे हैं। हार्दिक एक मामले में सफल रहे हैं कि उन्होंने पाटीदारों को एक हद तक भाजपा के खिलाफ कर दिया है, पर उनके कहने पर पाटीदार चुनाव में भाजपा को छोड़कर कांग्रेस को वोट देंगे, यह उन्हें अभी साबित करना है। कांग्रेस को लगता है कि वह ऐसा कर सकते हैं। वोट की बात तो बाद में आएगी, पहले हार्दिक को अपने समाज को यह बताना है कि कांग्रेस उनको क्या दे सकती है जो भाजपा नहीं दे रही। इसीलिए उन्होंने कांग्रेस को सात नवंबर तक का समय दिया है कि वह बताए कि आरक्षण के मामले पर उसका क्या रुख है? कांग्रेस और हार्दिक, दोनों को यह बात पता है कि पाटीदारों को वर्तमान संवैधानिक व्यवस्था में आरक्षण देना असंभव है और संविधान बदलने की क्षमता कांग्रेस के पास है नहीं। इसलिए पूछने-बताने का यह खेल अपने-अपने खेमे में अपनी साख बचाकर सौदा करने की कोशिश है। यह तय है कि कांग्रेस जैसे ही पिछड़ों के कोटे में से पाटीदारों को आरक्षण देने की बात करेगी, पिछड़े भड़क जाएंगे। अगर वह आरक्षण का वादा नहीं करती तो हार्दिक अपने समर्थकों के बीच क्या मुंह लेकर जाएंगे? तो हार्दिक चाहते हैं कि कांग्रेस उन्हें बचा ले और कांग्रेस की कोशिश है कि हार्दिक उसकी नैया पार लगा दें। ऐसे में दोनों के डूबने की आशंका से इन्कार नहीं किया जा सकता।

जिग्नेश मेवानी अभी बाहर से पानी की थाह ले रहे हैं। तय नहीं कर पा रहे कि उतरें या नहीं? थोड़ा और समय लेने के लिए उन्होंने बयान दे दिया कि कांग्रेस दलितों के मुद्दे पर अपना रुख साफ करे। युद्ध (चुनाव) की घोषणा हो चुकी है। ये तीन ऐसे योद्धा हैं जिन्होंने कभी कोई युद्ध नहीं लड़ा, पर कांग्रेस इन्हें अपना सेनापति बनाना चाहती है। उसे लगता है कि ये तीनों मिल जाएं तो वह भाजपा के अभेद्य किले को फतह कर सकती है। एक राष्ट्रीय दल की यह दशा विपक्ष की स्थिति बयान करने के लिए काफी है। स्थिति यह है कि कांग्रेस यह तय नहीं करेगी कि हार्दिक पटेल और जिग्नेश मेवानी को वह अपने साथ लेगी या नहीं? दोनों नेता तय करगें कि कांग्रेस उनके साथ के योग्य है या नहीं? तीनों कांग्रेस के साथ आ जाएं तो भी सवाल है कि वे जिस समाज से आते हैं वह इसे किस रूप में लेगा? अगर मान लें कि ये तीनों कांग्रेस के साथ आ जाते हैं तो भी कांग्रेस का मुकबला मोदी से ही होना है। यह बात तो राहुल गांधी भी स्वीकार कर चुके हैं कि मोदी बहुत अच्छे कम्युनिकेटर हैं। अभी मोदी ने चुनाव अभियान बाकायदा शुरू नहीं किया है। मोदी का करिश्मा पिछले तीन सालों में कम नहीं हुआ है।

कांग्रेस जीएसटी लागू करने में हो रही दिक्कतों के मुद्दे पर व्यापारियों में असंतोष पैदा करने की कोशिश कर रही, इसे भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने भांप लिया। वह 11 दिन गुजरात में डेरा डाले रहे और रात दो-दो बजे तक व्यापारियों से मिले। सबकी सुनी और फिर अपनी कही। पुरानी पीढ़ी और नई पीढ़ी से अलग-अलग मिले। कांग्रेस ने पूरा जोर लगाया कि दीपावली पर व्यापारी-कारखानेदार अपने कर्मचारियों को बोनस न दें ताकि सरकार पर दबाव बने। व्यापारी तैयार भी हो गए थे, पर अमित शाह से मुलाकात के बाद उन्होंने न केवल बोनस दिया, बल्कि यह भी बताया कि कांग्रेस नहीं चाहती थी कि कर्मचारियों को बोनस मिले। जमीनी स्तर पर इस तरह काम करने वाला कोई नेता कांग्रेस के पास नहीं है। वैसे इस तरह एकदम नीचे पहुंच कर खुद कमान संभाल लेने वाला अध्यक्ष इससे पहले भाजपा के पास भी नहीं था।परंपरागत मीडिया और सोशल मीडिया के इस दौर में भी अमित शाह का संगठन कौशल नतीजे के बाद ही सबको दिखता है। अभी तो यह लगता है कि जैसे उत्तर प्रदेश में अखिलेश और राहुल गांधी इस भरोसे रहे कि नोटबंदी से नाराज लोग उन्हें जिताएंगे वैसे ही कांग्रेस यह मान रही है कि गुजरात में जीएसटी से नाराज लोग 27 साल बाद उसके लिए सत्ता का द्वार खोलेंगे।