रामनाथ कोविंद देश के चौदहवें राष्ट्रपति बन गए। उनके राष्ट्रपति चुने जाने पर कोई शुबहा नहीं था। पहले चुनाव जीतने और फिर राष्ट्रपति पद की शपथ लेने के बाद उन्होंने अपने भाषण से विरोधियों को निराश ही किया। उनके विरोधी उनसे जिस भाषा और जिन बातों की उम्मीद कर रहे थे वैसा वह कुछ नहीं बोले। वह सब कुछ बोले जो उन्हें उचित और समीचीन लगा। वह राजग के बजाय संप्रग के प्रत्याशी के रूप में जीतते तो देश के तमाम बुद्धिजीवी उनकी प्रशंसा के पहाड़ खड़े कर देते, पर किसी अंग्रेजी अखबार(जितने मैं देख पाया) ने राष्ट्रपति के रूप में उनके पहले भाषण को ज्यादा तवज्जो नहीं दी। जैसे देश का नया राष्ट्रपति चुना जाना सामान्य घटना हो। इसी नकारात्मक प्रवृत्ति की ओर उन्होंने इशारा किया था जब उन्होंने कहा कि विरोधी विचारों का सम्मान करना ही भारतीय जनतंत्र की ताकत है। कोविंद का राष्ट्रपति बनना बड़े राजनीतिक-सामाजिक बदलाव की शुरुआत है। उनकी कई बातों पर लोगों ने ध्यान नहीं दिया। भाजपा संसदीय बोर्ड की बैठक में राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के तौर पर उनका नाम तय होने के बाद उन्होंने एक बार भी अपनी जाति को अपनी पहचान के तौर पर पेश नहीं किया। राष्ट्रपति के तौर पर अपने पहले भाषण में भारत की विविधता को उन्होंने अनूठा बताया। राष्ट्र निर्माण का श्रेय उन्होंने सिर्फ सरकार को देने के बजाय समाज के हर वर्ग को दिया। जो जहां है और जो कुछ कर रहा है वह राष्ट्र निर्माण में अपनी भूमिका निभा रहा है।
संसद के केंद्रीय कक्ष में उनका पहला भाषण सारगर्भित, संक्षिप्त, प्रभावी, समावेशी और सकारात्मकता से भरा हुआ था। वह एक स्टेट्समैन की तरह बोले, किसी पार्टी के नुमाइंदे की तरह नहीं। इसके बावजूद अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता से कोई समझौता नहीं किया। व्यक्ति का संस्कार उसके कथन से ज्यादा उसके व्यवहार से परिलक्षित होता है। राष्ट्रपति पद की शपथ लेने के बाद सबका अभिवादन करते समय जब वह लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी के पास पहुंचे तो झुककर अभिवादन किया। दोनों उनके नेता रहे हैं और वरिष्ठ भी। देश के सर्वोच्च संवैधानिक पद पर पहुंचकर भी वह इस बात को भूले नहीं। जो झुकना जानता है, वही तन सकता है। अपने भाषण में उन्होंने जिन लोगों के नाम लिए और उससे भी ज्यादा जिनके नाम छोड़ दिए वह काबिलेगौर है। पूर्व राष्ट्रपतियों का जिक्र करते समय उन्होंने डा. राजेंद्र प्रसाद, डा. सर्वपल्ली राधाकृष्णन, एपीजे अब्दुल कलाम और प्रणब मुखर्जी का ही जिक्र किया। प्रणब मुखर्जी का शायद इसलिए कि वे निवर्तमान हुए ही थे। बाकी तीन नामों के जिक्र को आप राजनीतिक नजरिये से देख सकते हैं, पर ऐसा करना महामहिम रामनाथ कोविंद के साथ अन्याय होगा।
आगे उन्होंने महात्मा गांधी, सरदार पटेल, डा. भीमराव अंबेडकर और दीनदयाल उपाध्याय की चर्चा की। उन्होंने देश के पहले दलित राष्ट्रपति केआर नारायणन का भी नाम नहीं लिया। आखिर उन्होंने ऐसा क्यों किया? इस सवाल का जवाब परोक्ष रूप से शायद उनके भाषण के उस अंश में है, जिसमें उन्होंने कहा कि ‘इक्कीसवीं सदी का भारत ऐसा भारत होगा जो हमारे पुरातन मूल्यों के अनुरूप होने के साथ ही चौथी औद्योगिक क्रांति को भी विस्तार देगा। प्राचीन भारत के ज्ञान और समकालीन भारत के विज्ञान को साथ लेकर चलना है।’ राष्ट्रपति ने जितने लोगों का नाम लिया उन सभी पर प्राचीन भारत के ज्ञान और संस्कृति की गहरी छाप और आस्था रही है। डा. अंबेडकर देश के कानून मंत्री के रूप में जब हिंदू कोड बिल का मसौदा तैयार कर रहे थे तो उन्होंने पश्चिम की धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा का सहारा नहीं लिया। उन्होंने कहा भी कि उन्होंने शास्त्रों और वेदों का सहारा लिया है।
राष्ट्रपति के रूप में रामनाथ कोविंद का चुनाव भारतीय राजनीति पर पश्चिम के अंधानुकरण से आई विसंगतियों और विकारों से प्रस्थान की घोषणा है। देश के बहुसंख्य का दर्द यही है कि उसकी संस्कृति और धर्म को हिकारत की नजर से देखा जाता है। उसे न तो मुसलमानों से कोई परेशानी है और न ही ईसाइयों से। उसे इस्लाम और ईसाइयत से भी कोई समस्या नहीं है। उसे तकलीफ इस बात की है कि उसकी संस्कृति, सभ्यता और धार्मिक मान्यताओं को नीचा दिखाया जाता है और दूसरे धर्मों को उसके बरक्स बेहतर बताया जाता है। हिंदुओं को अपनी प्राचीन मान्यताओं पर गर्व करने को देश और समाज के लिए खतरनाक बताया जाता है। दशकों से देश के इतिहास का लेखन इस तरह हुआ कि हिंदू धर्म और संस्कृति को मानने वालों को कमतर दिखाया जाए। यह सब भ्रष्ट नेताओं, नौकरशाहों और बुद्धिजीवियों के एक वर्ग द्वारा किया जा गया। 2014 के लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी की जीत ने उन्हें भौंचक्का कर दिया, पर पिछले तीन साल में मोदी की लोकप्रियता में कोई कमी न आने से यह वर्ग सदमे में है।
खुद को धर्मनिरपेक्ष और उदार कहने वाला यह वर्ग अपने से इतर विचार के प्रति अत्यंत असहिष्णु है। वह पिछले सात दशकों से राष्ट्रीय विमर्श के मुद्दे तय करता था। यह वर्ग देश की मूल संस्कृति और मान्यताओं के दमन के लिए किसी भी स्तर तक जा सकता है। समझौता एक्सप्रेस विस्फोट में पाकिस्तान को क्लीनचिट देने और हिंदू आतंकवाद का नया विमर्श खड़ा करने के पीछे यही सोच थी। देश के बहुसंख्यक वर्ग के बर्दाश्त की हद पार हो गई थी। 2014 में उसे नरेंद्र मोदी (भाजपा नहीं) के रूप में ऐसा नेता नजर आया जो इस दुष्चक्र को तोड़ सकता है। लोकसभा चुनाव में भाजपा की भारी जीत और पिछले तीन साल में सरकार की तमाम कमियों के बावजूद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता में कोई कमी नहीं आने का यही कारण है।
राष्ट्रपति के भाषण में विपक्ष को विरोध करने का कोई मुद्दा नहीं मिला, परंतु कांग्रेस ने इस आधार पर उनकी आलोचना की कि उन्होंने तमाम नेताओं का नाम लिया, लेकिन देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का नाम नहीं लिया। कांग्रेस को अभी तक समझ में नहीं आ रहा है कि देश नेहरूवादी विचारधारा को पीछे छोड़ चुका है। अर्थनीति के मुद्दे पर इस बदलाव की शुरुआत खुद कांग्र्रेस के ही पीवी नरसिंहराव और मनमोहन सिंह की जोड़ी ने 1991 में कर दी थी। जब रातोंरात नेहरू के समाजवादी रास्ते को छोड़कर देश की अर्थव्यवस्था पूंजीवाद के रास्ते पर चल पड़ी थी। राजनीतिक बदलाव का सिलसिला नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने से शुरू हुआ। रामनाथ कोविंद का राष्ट्रपति बनना उस दिशा में आगे की यात्रा का एक अहम प्रस्थान बिंदु है। इस बात को नए राष्ट्रपति ने अच्छी तरह से समझा और समझाया भी है। कांग्रेस और उसके साथी इतिहास की किताब लेकर खड़े हैं। वे इतिहास से बाहर निकलना ही नहीं चाहते, क्योंकि वर्तमान संघर्ष की मांग कर रहा है। जिसकी न तो उन्हें आदत है और न ही इच्छाशक्ति, परंतु उसके बिना भविष्य अंधेरी गली के बंद मकान सा है।