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गधे-घोड़ों का सेवा मूल्य

02_07_2017-santoshtrivediइस समय चारों ओर जीएसटी का शोर मचा हुआ है। बहुत सारे लोग चकरा गए हैं कि यह कौनसी बला है भला! पढ़े-लिखों की मानें तो पूरे देश में अब एक समान कर व्यवस्था लागू होने जा रही है। सरकार ने अलग-अलग चीजों को उनकी उपयोगिता के मुताबिक बांट दिया है ताकि निशानदेही में आसानी हो सके। कई चीजों पर जहां कर में कमी कर दी गई है वहीं कुछ पर कर की दर बढ़ा दी है। कुछ चकराए लोग जीएसटी को ‘गधा-घोड़ा सर्विस टैक्स’ के तौर पर समझ बैठे हैं। वे इससे हैरान हैं कि इतना बड़ा कानून अमल में आ गया और गधे-घोड़ों की दूर-दूर तक कहीं कोई चर्चा नहीं हो रही। उनकी शिकायत है कि यदि इस देश में चुनाव गधों का जिक्र किए बगैर नहीं हो सकते तो फिर कोई कानून उनकी चर्चा के बगैर कैसे लागू हो सकता है? उनकी मांग है कि जीएसटी को गधे-घोड़ों की खरीद-बिक्री के जरिये समझाया जाए। उनकी यह भी मांग है कि गधों की खरीद-फरोख्त पर कोई चार्ज नहीं लिया जाए जबकि घोड़ों की खरीदारी पर भारी कर लगाया जाए।

गधा आम आदमी के ज्यादा काम आता है। इसलिए उस पर और बोझ नहीं लादा गया है। गधा हमेशा से बोझा ढोने वाला प्राणी रहा है। वह निहायत सहनशील और समझदार जीव है। बिना कोई सवाल किए ईंट,पत्थर और लकड़ी के गट्ठर समान भाव से ढोता रहता है। घोड़े की नस्ल ऊंची होती है और वह खास लोगों के ही काबू में आता है। घोड़े पर यूं ही नहीं कुछ भी अल्लम-गल्लम लादा जा सकता। न ही कोई ऐरा-गैरा उसकी सवारी गांठ सकता है। उसकी लगाम वही थाम सकता है जो ख़ुद बेलगाम होता है। घोड़े उन्हीं को अपने ऊपर लादते हैं जो पहले से ही जनता की सेवा से लदे होते हैं। ऐसे में घोड़े के गिरने का खतरा बना रहता है। इससे जनसेवा का पूरा पैकेज धराशायी होने की आशंका रहती है। बाजार में इनकी कीमत इसीलिए ऊंची रखी जाती है कि यदि ये गिरें तो भी मुंह सही-सलामत रहे। वहीं बाजार में गधों की मांग कभी नहीं रहती जबकि इनकी आपूर्ति अधिक होती है ‘हॉर्स-ट्रेडिंग’ और ‘रेसकोर्स’ जैसी कुलीन परंपराएं और ‘हॉर्स-पावर’ जैसी नैसर्गिक विशेषता गधों में देखने को नहीं मिलती। गधे न बिकते हैं न बिदकते हैं, जबकि घोड़े दोनों गुणों में पारंगत होते हैं। एक बार बिकने पर उतारू हो जाएं तो सरकारें बना-बिगाड़ सकते हैं। उनमें गजब की गति होती है। जहां ऊंची बोली लगी, वहीं हिनहिनाने लगते हैं। रहन-सहन के मामले में भी दोनों में जमीन-आसमान का अंतर है। गधे खुले आसमान में विचरण करते हैं। घोड़ों के लिए अस्तबल होता है। पशुओं में घोड़े को आभिजात्य वर्ग का माना जाता है।

प्राचीन काल में यदि किसी राजा को चक्रवर्ती बनने की इच्छा प्रबल होती तो वह घोड़ा छोड़ता था। ‘अश्वमेध-यज्ञ’ संपूर्ण होने पर ही वह चक्रवर्ती सम्राट माना जाता था। आज भी उसकी शान बरकरार है। यह प्राणी औरों से अधिक संवेदनशील होता है। इसे सर्दी भी जल्द सताती है और गरमी भी। इसके उलट गधा सभी मौसमों से बेफिक्र होता है। बारिश हो या धूप, उसे अपना रूप नष्ट होने की आशंका नहीं रहती। कहीं भी अपनी टांगें पसार देता है। वह मान-अपमान से परे होता है। गधे का चेहरा हरदम भावशून्य रहता है। शायद इसीलिए उसे कोई भाव नहीं देता। अभिनय के मामले में वह बिल्कुल फिसड्डी होता है। भारी बोझा या टेढ़ी बात उसे विचलित नहीं करती। कितना भी बोझ लदा हो, तब भी उसके पास अतिरिक्त ‘स्पेस’ होता है। दो-चार गालियों से उसका कुछ बिगड़ता नहीं। वह पलट कर दुलत्ती भी नहीं लगाता। अपशब्द सुनना और तिरस्कार सहना उसकी आदत में शुमार है। इससे गधे की गुणवत्ता तो बढ़ती है, वह भी बिना कीमत बढ़े। ‘अबे गधे’ कहकर किसी की भी मार्केट-वैल्यू जमींदोज की जा सकती है। इन विलक्षण गुणों के चलते वह संत-कोटि में आता है। अब ऐसे सीधे, निरीह और स्थितप्रज्ञ जीव पर सरकार क्यों अधिभार लगाए?

मुंशी प्रेमचंद ने इस जीव को बहुत पहले परख लिया था। वह इसे जानवरों में सबसे बुद्धिमान मानते थे, लेकिन आज भी यह आदमियों के बीच बेवकूफ समझा जाता है। सच तो यह है कि बुद्धिमान से बेवकूफ कहीं अधिक दमदार होता है। उसमें न कोई बनावट होती है और न कोई मिलावट की जा सकती है। सरकार ने इसीलिए इसे ‘अमूल्य’ घोषित किया है। दूसरी तरफ घोड़ा पूरी तरह यथार्थवादी होता है। बिदकने को लेकर उसके मन में कभी कोई संशय नहीं होता। शादी-ब्याह में फूफा और जीजा की तरह उसका मूड पता नहीं कब खराब हो जाए। इसलिए उस पर सेवा का ‘प्रकोप’ भी अधिक होता है। जब तक उसको ढंग से घास नहीं डाली जाती तब तक वह शांत नहीं रहता। कहावत है कि घोड़ा घास से यारी करेगा तो क्या खाएगा! इसी परंपरा को कायम रखने के लिए वह हमेशा कटिबद्ध रहता है। हरी-भरी घास के लिए वह कहीं भी और कभी भी मुंह मार सकता है। गधे पंजीरी फांकते हैं और ख़ुश रहते हैं। ये आदमी की सेवा ख़ूब करते हैं, पर वह ‘स्किल’ नहीं पैदा कर पाते जिसमें घोड़े निपुण होते हैं। दोनों की तुलना कहां? ये मुंह खोलते हैं तो भी रेंकते हैं। वे हिनहिनाते भी हैं तो बयान झड़ते हैं। सेवा करना बड़े स्किल की बात है इसीलिए गधों को सेवा-श्रेणी से बाहर रखा जाना चाहिए और घोड़ों को अंदर।

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