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एससी-एसटी एक्ट में सरकार के संशोधन को सुप्रीम कोर्ट से हरी झंडी

 

नई दिल्ली। उच्चतम न्यायालय ने अनुसूचित जाति-अनुसूचित जनजाति संशोधन अधिनियम 2018 की संवैधानिक वैधता को बरकरार रखा है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अत्याचार कानून के तहत शिकायत किए जाने पर प्रारंभिक जांच जरूरी नहीं है, एफआईआर दर्ज करने से पहले वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों या नियुक्ति प्राधिकरण से अनुमति जरूरी नहीं है। कोर्ट ने तीन अक्टूबर, 2019 को फैसला सुरक्षित रख लिया था।

बीते 24 जनवरी, 2019 को सुप्रीम कोर्ट ने एससी-एसटी एक्ट में सरकार की ओर से किए गए बदलाव के खिलाफ दायर याचिका पर सुनवाई करते हुए सरकार की ओर से किए गए संशोधन पर रोक लगाने से इनकार कर दिया था।

सुप्रीम कोर्ट में दायर याचिकाओं में एससी-एसटी एक्ट के मामलों में तुरंत गिरफ्तारी के प्रावधान का विरोध किया गया था। याचिका में कहा गया था कि सुप्रीम कोर्ट ने इस एक्ट में तुरंत गिरफ्तारी पर रोक लगाई थी लेकिन सरकार ने बदलाव कर रद्द किए गए प्रावधानों को फिर से जोड़ दिया। उससे पहले सात सितम्बर, 2018 को याचिका पर सुनवाई करते हुए कोर्ट ने केंद्र सरकार द्वारा एससी-एसटी एक्ट में सुप्रीम कोर्ट के आदेश को निष्प्रभावी करने वाले संशोधन पर रोक लगाने से इनकार कर दिया था।

याचिका वकील प्रिया शर्मा और पृथ्वी राज चौहान ने दायर की थी। याचिका में केंद्र सरकार के नए एससी-एसटी संशोधन कानून 2018 को असंवैधानिक बताया गया था। याचिका में कहा गया था कि इस नए कानून से बेगुनाह लोगों को फिर से फंसाया जाएगा। याचिका में मांग की गई थी कि सरकार के इस नए कानून को असंवैधानिक करार दिया जाए। याचिका में मांग की गई थी कि इस याचिका के लंबित रहने तक कोर्ट नए कानून के अमल पर रोक लगाए।

उल्लेखनीय है कि केंद्र सरकार ने इस संशोधित कानून के जरिए एससी-एसटी अत्याचार निरोधक कानून में धारा-18ए जोड़ी है। इस धारा के मुताबिक इस कानून का उल्लंघन करने वाले के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने से पहले प्रारंभिक जांच की जरूरत नहीं है, न ही जांच अधिकारी को गिरफ्तारी करने से पहले किसी से इजाजत लेने की जरूरत है। संशोधित कानून में ये भी कहा गया है कि इस कानून के तहत अपराध करने वाले आरोपित को अग्रिम जमानत के प्रावधान का लाभ नहीं मिलेगा।