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नेपाल पर चीन के वर्चस्व का खतरा

11_02_2017-10brahma_chelaniनेपाल के पास अपार जल संसाधन हैं। संयुक्त राष्ट्र ने भी इस बंदरगाह विहीन हिमालयी देश के बारे में कहा कि एशिया में नेपाल ऐसा राष्ट्र है जहां प्रति व्यक्ति जल संसाधन सबसे ज्यादा है। अरब देशों के पास जिस तरह तेल की भरमार है कुछ उसी तरह नेपाल के पास भी अकूत जल संपदा है। आंकड़ों के अनुसार उसके पास प्रति व्यक्ति 7,372 घन मीटर रिन्यूएबल यानी अक्षय जल संसाधन होने का अनुमान है। यही नहीं इस मामले में वह एशिया के दो विशाल आबादी वाले देशों भारत और चीन, (जिनके बीच वह स्थित है) से भी बेहतर स्थिति में है। दुर्भाग्य की बात है कि नेपाल के लिए यह जल संसाधन वरदान के बजाय अभिशाप साबित हो रहा है, क्योंकि वह इसका दोहन करने में विफल रहा है। इसी कारण उसे न सिर्फ बिजली की जबरदस्त किल्लत का सामना करना पड़ रहा है, बल्कि सिंचाई और पीने के पानी की कमी से भी दो-चार होने को मजबूर है। राजधानी काठमांडू सहित नेपाल के कई शहरों की आज यही हकीकत बन गई है। इस बीच एक और चिंतनीय बात यह देखने को मिल रही है कि नेपाल अपने दशकों पुराने साथी यानी भारत से दूर होकर बीजिंग के करीब जाता दिख रहा है। चीन भी नेपाल में अपनी पैठ बढ़ाने को लेकर ललचा रहा है। उसने हाल में नेपाल में एक बंदरगाह बनाने को लेकर उसके साथ समझौता किया है। इससे भारत के निकटतम पड़ोसी देश में चीन के बढ़ते प्रभाव का संकेत मिलता है। जाहिर है यदि भारत इसमें दखल देने की कोशिश करता तो उसे नेपालियों की राष्ट्रवादी प्रतिक्रियाओं का सामना करना पड़ता। दरअसल माओवादी, वामपंथी और राष्ट्रवादियों ने मिलकर नेपाल में भारत की नकारात्मक छवि बना दी है कि यह उसकी क्षेत्रीय संप्रभुता के अतिक्रमण के साथ ही उसकी पनबिजली परियोजनाओं को अटकाना चाहता है। हालांकि चीन के सामने वामपंथी विचारधारा से प्रभावित नेपाल में ऐसी कोई दिक्कत पेश नहीं आ रही है। इससे पता चलता है कि क्यों 750 मेगावाट क्षमता वाला सेती बंदरगाह समझौता नेपाल में पहली चीनी पनबिजली परियोजना नहीं है? चीन अपनी कंपनियों के निर्माण परियोजनाओं और बड़े-बड़े वित्तीय कर्जों द्वारा नेपाल में धीरे-धीरे अपना दखल बढ़ा रहा है और उसे अपने अहसान तले दबा रहा है। इससे नेपाल पर चीन के वर्चस्व का खतरा मंडराने लगा है। यही नहीं बीजिंग नेपाल पर पहले से ही इसके लिए दबाव बना रहा है कि वह अपने यहां से होकर भारत जाने वाले तिब्बतियों पर कड़ी कार्रवाई करे।

नेपाल के पास 83,000 मेगावाट पनबिजली पैदा करने में सक्षम जल संसाधन हैं, यदि वह इसका आंशिक रूप से भी दोहन कर लेता है तो वह बिजली का बड़ा निर्यातक बन सकता है। हिमालय में प्रकृति प्रदत्त इस बहुमूल्य उपहार का दोहन कर नेपाल अपनी अर्थव्यवस्था को गति देने लायक जरूरी रकम जुटाकर भूटान की बराबरी कर सकता है। अपेक्षाकृत एक छोटे से देश भूटान ने समृद्ध जल संसाधन को ही ‘नीले सोने’ में तब्दील कर दिया है। तथ्य यही है कि नेपाल अपने सभी स्रोतों से कुल 30 लाख आबादी के लिए सिर्फ 800 मेगावाट बिजली का उत्पादन ही कर पाता है। भारत में बहने वाली कई नदियों का उद्गम नेपाल में है। बावजूद इसके वह भारत से बिजली आयात करता है। भारत ने नेपाल और भूटान के साथ जल संबंधी कई समझौते किए हैं, जिन्हें वह कूटनीतिक उपकरण के रूप में इस्तेमाल करता है। इन समझौतों के तहत भूटान में पर्यावरण अनुकूल पनबिजली परियोजनाओं के विकास के लिए भारत सब्सिडी मुहैया कराता है। ये परियोजनाएं भूटान की सफलता में मददगार साबित हुई हैं। इसके विपरीत भारत-नेपाल जल समझौते अपने मकसद में कामयाब नहीं हो सके हैं। इसका कारण नेपाल में राजनीतिक अस्थिरता और भारत का नेपाल की चिंताओं के प्रति संवेदनशील नहीं होना रहा है। कई संयुक्त परियोजनाएं या तो अधूरी हैं या विफल हो गई हैं। इससे दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय सहयोग की भावना समय के साथ कमजोर हुई है। उधर बांग्लादेश ने फरक्का में गंगा नदी के प्रवाह को बढ़ाने के लिए नेपाल में एक जल परियोजना शुरू करने की मांग की है। फरक्का वह स्थान है जहां से भारत-बांग्लादेश 1996 की एक जल संधि के तहत बराबर मात्रा में गंगा नदी के जल का बंटवारा करते हैं। भारत ने बहाव क्षेत्र के नीचे स्थित देश बांग्लादेश को सूखे के मौसम में भी जल प्रवाह सुनिश्चित कर इस संधि को नया विस्तार दिया है।

नेपाल में सैकड़ों नदियां बहती हैं जिसमें से कुछ का उद्गम तिब्बत है। उसके पास पश्चिम में महाकाली से पूर्व में कोसी तक पांच प्रमुख नदी घाटियां हैं। उसकी सभी नदियां भारत में गंगा में आकर गिरती हैं। नेपाल भू-जल स्तर के मामले में भी समृद्ध है। तथ्य यह भी है कि चीन के विपरीत भारत के साथ उसकी कई जल संधियां वजूद में हैं। किसी संधि में न बंधे होने के कारण ही चीन ने नेपाल में प्रवेश करने से तुरंत पहले करनाली नदी पर बांध बना रखा है। वह अरुण नदी पर भी पांच बांधों का झरना बनाने की योजना बना रहा है। इसके निर्माण से गंगा का जल प्रवाह कमजोर होगा। इससे बांग्लादेश के साथ भारत के गंगा नदी के जल बंटवारे की व्यवस्था भी प्रभावित होगी। नेपाल पिछले कुछ दशकों से भारी राजनीतिक उथल-पुथल से गुजर रहा है। आज भी वहां राजनीतिक स्थिरता कोसों दूर नजर आ रही है। इसके अलावा बेरोजगारी, गरीबी, कुशासन और खराब कानून-व्यवस्था के अलावा राजनीतिक विभाजन जैसी समस्याएं उसे अलग से परेशान कर रही हैं। दुख की बात है कि नेपाल की आंतरिक राजनीतिक समस्याओं ने उसकी पनबिजली और सिंचाई परियोजनाओं के विस्तार को बाधित कर रखा है, जबकि जरूरी राजस्व और विकास दर हासिल करने और मानसूनी बाढ़ पर काबू पाने के लिए इस क्षेत्र में प्रगति बेहद जरूरी है।

जाहिर है अब गंगा नदी घाटी का समेकित विकास करने का समय आ गया है। इसके लिए नेपाल, भारत और बांग्लादेश के बीच एक त्रिस्तरीय संस्थागत सहयोग की व्यवस्था बनानी होगी। आगे इसमें ऊर्जा, परिवहन और बंदरगाह के मुद्दों को शामिल करना चाहिए, क्योंकि गैर नदी घाटी देश चीन का इसमें प्रवेश तीनों देशों की समस्याओं को बढ़ा रहा है। साथ ही तिब्बत से निकलकर नेपाल, भारत और बांग्लादेश में बहने वाली नदियों पर एकतरफा बांध बनाकर और नेपाल के पनबिजली क्षेत्र में प्रवेश कर वह क्षेत्रीय अखंडता के लिए खतरा पैदा कर रहा है। ऐसे में जल अभिशाप से छुटकारा नेपाल के भविष्य के लिए अपरिहार्य है। विशाल हिमालय चीन शासित तिब्बत से नेपाल को अलग करता है, लेकिन वह भौगोलिक, सामाजिक और सांस्कृतिक रूप से भारत के बेहद करीब है। दोनों के पास कई साझा नदी घाटियां भी हैं। भारत और बांग्लादेश के साथ जल समझौता कर वह साझा नदियों के पानी का दोहन कर सामूहिक रूप से लाभान्वित हो सकता है, लेकिन यदि नेपाल राजनीतिक उठापटक से ग्रस्त रहता है तो उसके विफल राष्ट्र में तब्दील होने का खतरा बढ़ जाएगा। जाहिर है यह स्थिति भारत की सुरक्षा चुनौतियों को कई गुना बढ़ा देगी।

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