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जम्‍मू-कश्‍मीर में हुआ परिसीमन तो बदल जाएगी मुफ्ती-अब्‍दुल्‍ला परिवार की सियासत

दूसरे कार्यकाल में मोदी सरकार का सबसे ज़्यादा Focus देश की एकता, अखंडता और सुरक्षा पर है. नए गृहमंत्री अमित शाह पिछले 4 दिनों में जम्मू और कश्मीर पर तीन बैठकें कर चुके हैं. आज भी अमित शाह ने जम्मू-कश्मीर की स्थिति पर एक बैठक की और सूत्रों से हमें ये जानकारी मिल रही है कि सरकार, जम्मू और कश्मीर में परिसीमन किए जाने पर विचार कर रही है.

परिसीमन क्या होता है? ये हम आपको आगे विस्तार से बताएंगे. लेकिन आसान भाषा में आप ये समझ लीजिए कि अगर जम्मू-कश्मीर में परिसीमन हुआ तो राज्य के तीन क्षेत्रों… जम्मू, कश्मीर और लद्दाख में विधानसभा सीटों की संख्या में बदलाव होगा. अगर परिसीमन हुआ तो जम्मू और कश्मीर के विधानसभा क्षेत्रों का नक्शा पूरी तरह बदल जाएगा. जम्मू और कश्मीर की राजनीति में आज तक कश्मीर का ही पलड़ा भारी रहा है, क्योंकि विधानसभा में कश्मीर की विधानसभा सीटें, जम्मू के मुकाबले ज्यादा हैं. अगर परिसीमन होता है और जम्मू की विधानसभा सीटें बढ़ती है, तो अलगाववादी मानसिकता के नेताओँ की स्थिति कमज़ोर होगी और राष्ट्रवादी शक्तियां मजबूत होंगी.

आज हम कश्मीर पर मोदी सरकार की इस नई योजना का DNA टेस्ट करेंगे. हम कश्मीर पर इस नए Action Plan के सामने आने वाली चुनौतियों और रुकावटों का भी विश्लेषण करेंगे. परिसीमन का मतलब होता है… किसी राज्य के निर्वाचन क्षेत्र की सीमा का निर्धारण करने की प्रक्रिया. संविधान में हर 10 वर्ष में परिसीमन करने का प्रावधान है. लेकिन सरकारें ज़रूरत के हिसाब से परिसीमन करती हैं. जम्मू-कश्मीर की विधानसभा में कुल 87 सीटों पर चुनाव होता है. 87 सीटों में से कश्मीर में 46, जम्मू में 37 और लद्दाख में 4 विधानसभा सीटें हैं. परिसीमन में सीटों में बदलाव में आबादी और वोटरों की संख्या का भी ध्यान रखा जाता है.

ऐसा माना जा रहा है कि अगर परिसीमन किया जाता है तो जम्मू की सीटें बढ़ जाएंगी और कश्मीर की सीटें कम हो जाएंगी, क्योंकि 2002 के विधानसभा चुनाव में जम्मू के मतदाताओं की संख्या कश्मीर के मतदाताओं की संख्या से करीब 2 लाख ज्यादा थी. जम्मू 31 लाख रजिस्टर्ड वोटर थे. कश्मीर और लद्दाख को मिलाकर सिर्फ 29 लाख वोटर थे.

कश्मीर के हिस्से में ज्यादा विधानसभा सीटें क्यों हैं? ये समझने के लिए आपको जम्मू और कश्मीर के इतिहास को समझना होगा. वर्ष 1947 में जम्मू और कश्मीर की रियासत का भारत में विलय हुआ. तब जम्मू और कश्मीर में महाराज हरि सिंह का शासन था. वर्ष 1947 तक शेख अब्दुल्ला कश्मीरियों के सार्वमान्य नेता के तौर पर लोकप्रिय हो चुके थे.

जम्मू-कश्मीर के महाराजा हरि सिंह, शेख अब्दुल्ला को पसंद नहीं करते थे. लेकिन शेख अब्दुल्ला को पंडित नेहरू का आशीर्वाद प्राप्त था. पंडित नेहरू की सलाह पर ही महाराजा हरि सिंह ने शेख अब्दुल्ला को जम्मू और कश्मीर का प्रधानमंत्री नियुक्त कर दिया. वर्ष 1948 में शेख अब्दुल्ला के प्रधानमंत्री नियुक्त होने के बाद महाराजा हरि सिंह की शक्तियां तकरीबन खत्म हो गई थीं.

इसके बाद शेख अब्दुल्ला ने राज्य में अपनी मनमानी शुरू कर दी. वर्ष 1951 में जब जम्मू कश्मीर के विधानसभा के गठन की प्रक्रिया शुरू हुई. तब शेख अब्दुल्ला ने जम्मू को 30 विधानसभा सीटें, कश्मीर को 43 विधानसभा सीटें और लद्दाख को 2 विधानसभा सीटें आवंटित कर दीं.

वर्ष 1995 तक जम्मू और कश्मीर में यही स्थिति रही. वर्ष 1993 में जम्मू और कश्मीर में परिसीमन के लिए एक आयोग बनाया गया था. 1995 में परिसीमन आयोग की रिपोर्ट को लागू किया गया. पहले जम्मू कश्मीर की विधानसभा में कुल 75 सीटें थीं. लेकिन परिसीमन के बाद जम्मू कश्मीर की विधानसभा में 12 सीटें बढ़ा दी गईं. अब विधानसभा में कुल 87 सीटें थीं. इनमें से कश्मीर में 46, जम्मू में 37 और लद्दाख में 4 विधानसभा सीटें हैं. इतने वर्ष बीत जाने के बाद भी जम्मू और लद्दाख से हुए इस अन्याय को ख़त्म करने की कोशिश नहीं हुई.

यही वजह है कि जम्मू-कश्मीर की विधानसभा में हमेशा नेशनल कॉन्फ्रेंस और PDP जैसी कश्मीर केंद्रित पार्टियों का वर्चस्व रहता है. ये पार्टियां, संविधान के अनुच्छेद 370 और अनुच्छेद 35 A को हटाने का विरोध करती हैं. यही वजह है कि कश्मीर से अलगाववादी मानसिकता खत्म नहीं हो रही है.

जम्मू कश्मीर की विधानसभा का राजनीतिक गणित इस तरह का है कि हर परिस्थिति में कश्मीर केंद्रित पार्टियों का ही वर्चस्व रहता है. अगर जम्मू और लद्दाख की 37 और 4 सीटों को जोड़ दिया जाए, तब भी सिर्फ 41 सीटें होती हैं. ये कश्मीर की 46 विधानसभा सीटों से 5 कम है. यही वजह है कि जम्मू कश्मीर की राजनीति में हमेशा मुख्यमंत्री कश्मीर से ही चुनकर आता है.

जम्मू कश्मीर में बहुमत की सरकार बनाने के लिए किसी भी पार्टी को 44 सीटों की ज़रूरत होती है. कश्मीर में मुसलमानों की आबादी करीब 98 प्रतिशत है. सांप्रदायिक राजनीति करने में माहिर जम्मू और कश्मीर के क्षेत्रीय दल बहुत आसानी से कश्मीर की 46 सीटों को जीत कर बहुमत के आंकड़े को हासिल कर लेते हैं.

बीते 30 वर्षों से जम्मू और कश्मीर में नेशनल कॉन्फ्रेंस या PDP के बग़ैर किसी भी दल की सरकार नहीं बन पायी. इन दोनों पार्टियों में कोई आंतरिक लोकतंत्र नहीं है. नेशनल कॉन्फ्रेंस पर अब्दुल्ला परिवार का राज है और PDP मुफ्ती परिवार की सियासी संपत्ति की तरह हैं. ये दोनों ही परिवार कश्मीर से आते हैं. आज से कुछ साल पहले जम्मू कश्मीर की राजनीतिक स्थिति ये थी कि वहां या तो मुफ्ती मोहम्मद सईद मुख्यमंत्री बनते थे या फिर फारुख अब्दुल्ला और मौजूदा राजनीतिक स्थिति ये है कि जम्मू कश्मीर में या तो महबूबा मुफ्ती मुख्यमंत्री बनेंगी या फिर उमर अब्दुल्ला मुख्यमंत्री बनेंगे.

इन राजनीतिक परिस्थितियों में सबसे ज़्यादा अन्याय जम्मू और लद्दाख के साथ हो रहा है. कश्मीर केंद्रित पार्टियों की सरकार में जम्मू और लद्दाख के साथ सौतेला व्यवहार होता रहा है. मोदी सरकार ने इस समस्या को जड़ से ख़त्म करने का फ़ैसला किया है. लेकिन ये इतना आसान नहीं है, क्योंकि नेशनल कॉन्फ्रेंस और PDP इसका विरोधी करेंगी. महबूबा मुफ्ती ने एक Tweet करके इसका विरोध किया है. उन्होंने लिखा है कि  भारत सरकार की परिसीमन की योजना के बारे में सुनकर वो परेशान हैं. ज़बरदस्ती परिसीमन सांप्रदायिक आधार पर राज्य के भावनात्मक बंटवारे की कोशिश है.

फारुक अब्दुल्ला ने भी हमेशा परिसीमन को टालने की कोशिश की है. नए सिरे से परिसीमन में सबसे बड़ी रूकावट उन्होंने ही पैदा की थी. वर्ष 2002 में नेशनल कॉन्फ्रेंस की सरकार ने परिसीमन को 2026 तक रोक दिया था. इसके लिए अब्दुल्ला सरकार ने Jammu and Kashmir Representation of the People Act 1957 और जम्मू कश्मीर के संविधान के Section 47(3) में बदलाव किया था.

Section 47(3) में हुए बदलाव के मुताबिक वर्ष 2026 के बाद जब तक जनसंख्या के सही आंकड़े सामने नहीं आते हैं तब तक विधानसभा की सीटों में बदलाव करना ज़रूरी नहीं है. वर्ष 2026 के बाद जनगणना के आंकड़े वर्ष 2031 में आएंगे. इसलिए अगर देखा जाए तो अब जम्मू कश्मीर में परिसीमन 2031 तक टल चुका है. फारुख अब्दुल्ला सरकार के इस फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में भी याचिका दायर की गई थी. लेकिन 2010 में सुप्रीम कोर्ट ने इस याचिका को खारिज कर दिया था. यानी सरकार के सामने राजनीतिक चुनौती के साथ साथ कानूनी चुनौती भी है.

अगर देखा जाए तो परिसीमन की सबसे बड़ी रुकावट फारुख अब्दुल्ला की सरकार का फैसला है. उनके बेटे उमर अब्दुल्ला ने आज फेसबुक पर एक पोस्ट लिखकर अपने पिता के फैसले का बचाव किया है. उमर अब्दुल्ला ने लिखा है कि वर्ष 2001 में भारत के संविधान के आर्टिकल 82 और 170 में संशोधन किया गया था. जिसके मुताबिक लोकसभा और विधानसभा की सीटों पर परिसीमन को 2026 के बाद पहली जनगणना तक टाल दिया गया.

उमर अब्दुल्ला ने अपनी फेसबुक पोस्ट में लिखा है कि इसी संविधान संधोशन के आधार पर जम्मू और कश्मीर में भी परिसीमन को 2026 के बाद तक टाल दिया गया. उमर अब्दुल्ला, भारतीय संविधान के मुताबिक फैसले लेने का दावा कर रहे हैं. लेकिन, असलियत ये है कि कश्मीर समस्या की एक बड़ी वजह अब्दुल्ला परिवार की राजनीति है. ये परिवार राज्य में अपनी मनमानी करता रहा और उस समय की केंद्र की सरकारों ने उन्हें रोकने की कोई कोशिश नहीं की. आज हमने इस पर एक रिपोर्ट बनाई है. ये रिपोर्ट कश्मीर समस्या के बारे में आपकी जानकारी को बढ़ाएगी.

अलगाववाद और आतंकवाद के ख़िलाफ़ मोदी सरकार की नीति Zero Tolerance की है. इसीलिए एक तरफ़ तो सरकार ने कश्मीर समस्या के समाधान के लिए आक्रामक रवैया अपनाया है और दूसरी तरफ National Investigation Agency भी लगातार अलगाववादी नेताओं पर शिकंजा कस रही है. Terror Funding Case में आरोपी अलगाववादी नेता.. आसिया आंद्राबी, शब्बीर शाह और मसरत आलम को आज दिल्ली की एक स्पेशल कोर्ट में पेश किया गया था. अदालत ने इन अलगाववादी नेताओं को 10 दिन के लिए NIA की हिरासत में भेज दिया है.

NIA ने 2018 में आतंकवादी हाफिज सईद, सैयद सलाउद्दीन और कई कश्मीरी अलगाववादियों पर फंड मुहैया कराने के मामले में FIR दर्ज की थी. जम्मू-कश्मीर को नक़्शे को देखा जाये तो यहां का 61 प्रतिशत भूभाग लद्दाख़ है. जहां आतंकवाद का कोई असर नहीं है. वहीं 22 प्रतिशत जम्मू में आतंकवाद ख़त्म हुए लंबा वक़्त बीत चुका है. लेकिन कश्मीर घाटी…जो राज्य का क़रीब 17 प्रतिशत हिस्सा है…वहीं पर अलगाववादी और आतंकवादी सक्रिय हैं. कश्मीर घाटी में 10 ज़िले हैं…जहां आतंकवादी घटनाएं होती हैं। इनमें से भी दक्षिण कश्मीर के 4 ज़िले शोपियां, पुलवामा, कुलगाम और अनंतनाग ही आतंकवाद के गढ़ माने जाते हैं.