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क्या यह उत्तर प्रदेश में जातिवाद और वंशवाद की राजनीति का अंत?

लखनऊ। उत्तर प्रदेश में आम चुनाव के परिणामों ने सपा-बसपा-रालोद गठबंधन के लिए जश्न मनाने का कोई मौका नहीं दिया, क्योंकि इनका जातीय गणित यहां औंधे मुंह गिरा है। 2019 की शुरुआत में महागठबंधन के तौर पर अस्तित्व में आया सूबे की तीन बड़ी पार्टियों का यह फैसला जनता ने पूरी तरह गलत साबित कर दिया है।

गौरतलब हो कि जब यह महागठबंधन किया गया थो तो कहा गया कि यह उप्र में भाजपा को मात देकर सत्ता में उसकी वापसी की राह रोकेगा। लेकिन नतीजों के रुझान ने गठबंधन को बिना ताकत का बना दिया है। निश्चित तौर पर अब यह साफ हो गया है कि ब्रांड मोदी ने उत्तर प्रदेश के दलित, यादव और मुस्लिम जैसे जातिगत गणित को ध्वस्त कर दिया।

अपने पारिवारिक झगड़ों से परेशान समाजवादी पार्टी नेतृत्व ने सालों पुरानी अदावत को दरकिनार करते हुए बहुजन समाज पार्टी (बसपा) से गठबंधन किया। इनका गणित साफ था। 40 फीसदी पिछड़ा (ओबीसी) और 21 फीसदी दलित (एससी) एक साथ आकर राज्य में नया इतिहास लिखेंगे।

जातीय राजनीति हुई बेदम

2014 में संसदीय चुनाव में एक भी सीट नहीं जीतने वाली और 2017 के विधानसभा चुनाव में महज 19 सीट जीतने वाली बसपा को भी यह गणित जादुई दिखा और उसने सालों पुरानी दुश्मनी को भुलाकर गठबंधन पर सहमति जताई। चुनाव प्रचार के दौरान इन दलों के नेताओं ने निचले तबके के वोटरों को ध्यान में रखकर रणनीति भी बनाई। हालांकि जमीनी स्तर पर यह धुंआ हो गई।

भाजपा ने गैर यादव (ओबीसी) और गैर जाटव (दलित) पर अपना ध्यान केंद्रित कर इनके सभी आकलन को गड़बड़ा दिया। पार्टी ने इन जातीय समूहों को अपनी तरफ खींच कर गणित को बदल दिया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने यह कह कर जाति युद्ध को वर्ग युद्ध में बदल दिया कि ‘मेरी जाति गरीब की जाति है।’

इसके अलावा मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने अपने आक्रामक हिंदुत्व अभियान के जरिए भी जातीय गोलाबंदी को और कमजोर बनाया। इसके चलते उत्तर प्रदेश में बीजेपी को फिर से सबसे ज्यादा सीटें मिलीं। हालांकि यह पिछली बार के मुकाबले कम हैं, लेकिन राजनीतिक पंडितों की मानें तो पार्टी ने एंटीइनकंबेन्सी जैसे माहौल में सूबे में अप्रत्याशित जीत दर्ज की। इस जीत के मायने इसलिए अधिक हैं क्यों राज्य की दो सबसे शक्तिशाली पार्टियां सपा-बसपा एक साथ चुनाव लड़ रही थीं।

बसपा की संजीवनी बने अखिलेश

ऐसे में यह माना जा सकता है कि लोकसभा चुनाव 2019 के नतीजों ने उत्तर प्रदेश के राजनीतिक समीकरणों को बदल दिया है। मसलन अब यहां न केवल जाति की राजनीति की ताकत ध्वस्त हुई है, बल्कि गठबंधन के भविष्य पर भी प्रश्नचिन्ह लगा दिया है।

नतीजों से यह पता चल रहा है कि सपा और बसपा एक-दूसरे को अपने वोट ट्रांसफर करने में सफल नहीं रहीं और दलितों तथा ओबीसी के बीच का तनावपूर्ण सामाजिक समीकरण राजनीति पर भारी पड़ गया।

बसपा को तो गठबंधन से फिर भी फायदा हुआ क्योंकि उसने संसद में अपनी उपस्थिति तय कर ली है, घाटा समाजवादी पार्टी को हुआ है। यादव परिवार के दो सदस्य बदायूं से धर्मेद्र यादव और फिरोजाबाद से अक्षय यादव चुनाव हार गए हैं। यह वंशवाद की राजनीति पर भी आघात है जिसे सपा ने बढ़ावा दिया।

क्या टूट जाएगा गठबंधन?

बसपा और राष्ट्रीय लोकदल के साथ गठबंधन का फैसला बतौर पार्टी अध्यक्ष अखिलेश यादव का था। मुलायम सिंह यादव ने इस पर आपत्ति भी जताई थी। यह पहला चुनाव है जब अखिलेश ने कोई चुनाव अपने पिता मुलायम सिंह यादव के मार्गदर्शन के बिना लड़ा। मुलायम अपने क्षेत्र मैनपुरी तक ही सिमटे रहे।

अब इस फैसले पर सवाल उठ सकते हैं और आने वाले दिनों में हो सकता है कि अखिलेश को अपनी पार्टी में इसे लेकर दिक्कत का सामना करना पड़े। क्योंकि पार्टी के छोटे नेताओं में शुरुआत से इस गठबंधन को लेकर आसमंजस्य देखा जा रहा था। कहा यह भी जा रहा था कि अखिलेश ने विधानसभा और लोकसभा चुनाव में उल्टे फैसले लिये।

जैसे जब विधानसबा में कांग्रेस मजबूत पार्टी नहीं थी तो उसके साथ गठबंधन कर लिया और फिर चुनाव हार गए। इसके बाद लोकसभा चुनाव में फिर एक बार कमजोर साथी चुनाव यानी बसपा से गठबंधन किया। बसपा इसलिए कमजोर थी, क्योंकि आम चुनाव में इस पार्टी के पास खोने को कुछ भी नहीं था और कांग्रेस की अपेक्षाकृत इस पार्टी के वोट कम थे।