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यूपी में बिखरता समाजवाद बना राह का रोड़ा

राजनीतिक लिहाज से उत्तर प्रदेश की एक अलग पहचान है। कहा जाता है कि दल्ली की तख्त पर कौन विराजमान होगा और सत्ता का ताज किसके सिर बंधेगा, यह उत्तर प्रदेश तय करता है। लेकिन राज्य के सत्ताधारी दल समाजवादी पार्टी (सपा) में मचे आंतरिक घमासान ने राजनीतिक संकट पैदा कर दिया है।

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बाप-बेटे और चाचा-भतीजे के साथ भाइयों के बीच सत्ता और उत्तराधिकार का संकट सैफइ से सीधे लखनऊ की सड़कों पर नूरा- कुश्ती में बदल गया है। राज्य में लोकतंत्र और सरकार मजाक बन गई है। परिवारवाद की जंग ने लोकतांत्रिक व्यवस्था, संविधान और राजनीति का गला घोंट दिया। इसके बाद भी संवैधानिक व्यवस्था में गणितीय आंकड़े के चलते लोकतंत्र और उसकी रक्षा को संरक्षित करने वाली संस्थाएं इस संकट पर मौन हैं। जमीनी हकीकत यही है कि यूपी में सरकार और संविधान नाम की कोई चीन नहीं रह गई है।

लोकतंत्र यहां परिवारवाद की परिधि में उलझ मजाक बन गया है। हलांकि केंद्र सरकार और प्रदेश के राज्यपाल राम नाईक पूरे घटनाक्रम पर निगाह गड़ाए हुए हैं। राज्यपाल ने सीएम अखिलेश यादव को बुलाकार पिछले दिनों सरकार की स्थिति का आकलन भी किया।

समाजवादी इसे घर और परिवार का झगड़ा मानकर भले ही अपने मुंह पर पट्टी बांध लें, लेकिन यह संकट अब घर की चाहारदीवारी से बाहर निकल चुका है। यह यूपी की राजनीति के लिए सुखद नहीं है। क्योंकि राज्य में समाजवादी पार्टी की अहमियत को झुठलाया नहीं जा सकता। लेकिन परिवार की लड़ाई में बिखरती समाजवादी पार्टी का सीधा लाभ भाजपा उठाएगी।

भाजपा लंबे समय से राज्य की सत्ता से बाहर है। राम मंदिर आंदोलन के बाद भाजपा यूपी से गायब है। प्रदेश भाजपा नए सिरे से पैर जमाना चाहती है। इस झगड़े का उसे निश्चित तौर पर लाभ मिलेगा। चुनाव नजदीक आते-आते बड़ी संख्या में दलबदल देखने को मिल सकता है।

सपा का टूटना और बिखरना गैर भाजपा दलों के लिए भी शुभ संकेत नहीं है। उस स्थिति में, जब राज्य में चुनाव करीब हो और सेक्युलर दलों के एका यानी महागठबंधन की बात की जा रही हो। लेकिन लोहियावाद पर परिवारवाद और उत्तराधिकार की लाड़ाई भारी पड़ती दिखती है।

सपा को सुरक्षित रखने की मुलायम सिंह की पहल रंग लाती नहीं दिखती है। इसकी जड़ भी मुलायम सिंह यादव है। शिवपाल सिंह तो केवल मोहरे हैं। मुलायम सिंह यादव उन्हें आगे कर अपनी शातिर चालों को कामयाब करना चाहते थे, लेकिन मुख्यमंत्री बेटे की चाल के आगे राजनीतिक अखाड़े में पिता खेत होते दिखते हैं। इस लड़ाई में अखिलेश यादव एक नई सोच और उम्मीद के साथ युवाओं के बीच उभरे हैं।

राज्य के विकास में उनकी उपलब्धियों को भुलाया नहीं जा सकता। सीएम अखिलेश के बयान से अमर सिंह बेहद आहत हैं। ‘दलाल’ परिभाषित किए जाने पर उन्हें दुख भी है। लेकिन मुलायम भक्ति के आगे मान-सम्मान कोई मायने नहीं रखता।

सीएम अखिलेश ने हालांकि सोमवार को ऐलान किया है कि अगली सरकार में वही मुख्यमंत्री होंगे और छठा बजट वही पेश करेंगे। लेकिन यह तो वक्त बताएगा। समाजवादी पार्टी के थिंकटैंक कहे जाने वाले और सीएम के करीबी चाचा रामगोपाल यादव को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया है। मुलायम सिंह कह चुके हैं कि उनकी कोई अहमियत नहीं है। इससे यह साफ जाहिर होता है कि समाजवाद में परिवारवाद का झगड़ा अब थमने वाला नहीं है।

 पार्टी को टूटने से कोई रोक नहीं सकता, आज नहीं तो कल यह होना ही है, क्योंकि अखिलेश को कभी खुलकर काम नहीं करने दिया गया। विपक्ष ने उन्हें रिमोट कंटोल सीएम मानता है।

पिता मुलायम सिंह यादव समय-समय पर उन्हें कानून व्यवस्था को लेकर अपमानित करते रहे। वह फोड़ा अब फट गया है। राज्य में सपा का थोक वोटबैंक मुस्लिम समाज इस घटनाक्रम से बेहद डरा हुआ है। उसे अपने सामने अब विकल्प नहीं दिख रहा है। वह सपा से टूटकर कांग्रेस और बसपा की तरफ भी जा सकता है। इसका खुलासा प्रदेश के काबीना मंत्री आजम खां अपने पत्र बम में कर चुके हैं।

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