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हर हाल में बचें बूथ लूटने वाले दौर से

15_04_2017-a_surya_prakash_prasar_bhartiइलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन यानी ईवीएम पर संदेह जताने की लगातार कोशिश से आजिज आए चुनाव आयोग ने स मशीन में छेड़छाड़ करके दिखाने की चुनौती पेश की है। उसने ऐसी ही चुनौती 2009 में पेश की थी और तब कोई यह साबित नहीं कर सका था कि ईवीएम में छेड़छाड़ हो सकती है। स बार ईवीएम पर सवाल खड़े करने का काम मायावती और अरविंद केजरीवाल ने हाल के विधानसभा चुनावों के बाद उठाया और फिर कुछ अन्य दलों के नेताओं ने भी उनके सुर में सुर मिलाना शुरु कर दिया। वीएम पर संदेह और आरोप नए नहीं हैं। अतीत में भाजपा सहित अन्य दल स पर सवाल उठा चुके हैं, लेकिन हाल के वर्षो का घटनाक्रम ईवीएम के खिलाफ तर्को को खारिज करता है।

इस दौरान दुनिया के कई मुल्कों में ईवीएम का सफल प्रयोग भी उसके पक्ष में एक मजबूत दलील देता है जहां उनकी क्षमता-विश्वसनीयता पर कोई सवाल नहीं उठा। न मशीनों के आगमन से बूथ कब्जाने जैसी विकराल समस्या से निजात पाने में खासी कामयाबी मिली है। अदालती आदेश भी मतपत्र युग की वापसी के समर्थन का संकेत नहीं करते। हालांकि ससे जुड़े विवादों पर विराम लगाने के लिए अदालत ने वीवीपीएटी वाली मशीनों के उपयोग का जरूर निर्देश दिया है जिनमें मतदाता को बाकायदा एक मुद्रित पर्ची मिलती है कि उसने अपना मत किसे दिया। चुनाव आयोग पर्ची वाली मशीनों को जल्द से जल्द तैयार करने को लेकर पूरी तरह प्रतिबद्ध है।

वोटिंग मशीनों के मामले में यह समझने की जरूरत है कि आखिर 2015 के दिल्ली विधानसभा चुनावों के बाद उनके स्तेमाल पर ऐसी हाय-तौबा क्यों नहीं मची थी? उस चुनाव में केजरीवाल की आम आदमी पार्टी को दिल्ली की 70 विधानसभा सीटों में से अप्रत्याशित 67 सीटें हासिल हुई थीं जबकि भाजपा महज तीन सीटों पर सिमट गई थी। केजरीवाल की पार्टी 54.34 प्रतिशत मतों के साथ 95.71 फीसद सीटों पर काबिज हो गई तो भाजपा 32.10 प्रतिशत वोटों के साथ केवल 4 फीसदी सीटें जीत पाई। अमूमन चुनाव तने एकतरफा नहीं दिखते, मगर हैरानी की बात यह थी कि तब कोई संदेह नहीं जताया गया। जिन लोगों को लगता है कि 2015 के दिल्ली चुनावों में गड़बड़ी नहीं हुई उनके द्वारा 2017 के पंजाब और उत्तर प्रदेश के चुनावों पर उंगली उठाने की दलील कमजोर मालूम पड़ती है।

यह 1980 के दशक की बात है। बूथ कब्जाने और मतपत्रों को नुकसान पहुंचाने जैसी चुनौतियों को देखते हुए चुनाव आयोग ने ईवीएम के रूप में एक कारगर विकल्प पर विचार किया। स विचार पर आयोग में पहली बार मंथन तब हुआ जब एसएल शकधर मुख्य चुनाव आयुक्त और के गणोशन चुनाव आयोग में सचिव थे। उन्होंने प्रायोगिक आधार पर मशीनों के स्तेमाल का जोखिम लिया जबकि चुनावी कानून भी मतदान के लिए मशीनों के स्तेमाल की जाजत नहीं देते थे। 1982 में केरल की परूर विधानसभा के कुछ बूथों पर पहली बार मशीनों का प्रयोग किया गया। फिर मार्च 1989 में जनप्रतिनिधित्व कानून,1951 में संशोधन कर न मशीनों के स्तेमाल को सुनिश्चित किया गया।

इस संशोधन से पहले कानून केवल मतपत्रों से चुनाव की जाजत देता था। धारा 61ए के जरिये किए गए स संशोधन में वोटिंग मशीन की व्याख्या भी की गई है। 1सके अनुसार वोटिंग मशीन से आशय ऐसे उपकरण से है जो लेक्ट्रॉनिक या किसी अन्य रूप से संचालित होगी और जिसका उपयोग मत देने या उसे दर्ज करने में किया जाएगा। ईवीएम पर छेड़छाड़ के आरोपों और विवादों को देखते हुए चुनाव आयोग 2010 में वोटर वैरिफिएबल पेपर ऑडिट ट्रेल (वीवीपीएटी) मशीनों के स्तेमाल पर सैद्धांतिक रूप से सहमत हुआ। समें मशीन में वोट दर्ज होने के अलावा एक पर्ची भी निकलती है जिस पर उस प्रत्याशी का नाम और पार्टी का चुनाव चिह्न् अंकित होता जिसे मतदाता ने वोट दिया।

इससे चुनावी प्रक्रिया में व्यापक पारदर्शिता सुनिश्चित होगी। मतदाता के पास यह सबूत होगा कि उसका वोट उसकी पसंद के प्रत्याशी और पार्टी को पड़ा है या नहीं? विवाद की स्थिति में यह मतगणना के लिए एक वैकल्पिक व्यवस्था भी मुहैया कराएगा। एक तरह से मतगणना केवल मशीन की कंट्रोल यूनिट में दर्ज आंकड़ों पर ही निर्भर नहीं रहेगी। समें पारदर्शी विंडो के जरिये मतदाता को सात सेकंडों तक यह नजर भी आता है कि वोट किसे गया। चुनाव आयोग ने 2013 के नगालैंड उपचुनाव में पहली बार वीवीपीएटी मशीन का उपयोग किया था। हाल के वषों में उच्चतम न्यायालय में ईवीएम के उपयोग को चुनौती देने से पहले देश के कई उच्च न्यायालयों में भी ऐसा किया जा चुका है, मगर न्यायपालिका स बात से सहमत नहीं है कि मशीनों के साथ छेड़छाड़ की जा सकती है। तमाम उच्च न्यायालय तो ईवीएम की मुक्त कंठ से प्रशंसा कर चुके हैं।

चुनाव आयोग ने कुछ अदालती टिप्पणियों को अपनी वेबसाइट पर भी लगाया है। मिसाल के तौर पर कर्नाटक उच्च न्यायालय की टिप्पणी को ही लें जिसने ईवीएम को निर्विवाद रूप से एक बड़ी उपलब्धि और राष्ट्रीय गौरव बताया। मद्रास उच्च न्यायालय ने भी न मशीनों के साथ किसी भी तरह की छेड़छाड़ की आशंकाओं को सिरे से खारिज किया। उसने कहा कि ईवीएम की तुलना पर्सनल कंप्यूटरों से नहीं की जा सकती। कंप्यूटर की प्रोग्रामिंग और ईवीएम का कोई मेल नहीं। दिल्ली उच्च न्यायालय ने चुनाव आयोग से कहा है कि वह सभी पार्टियों से परामर्श कर वीवीपीएटी तंत्र को विकसित करे ताकि किसी तरह के संदेह की कोई गुंजाश ही न रहे और विवादों पर विराम लगे।

उच्चतम न्यायालय ने भी चुनाव आयोग को निर्देश दिया है कि वह चरणबद्ध तरीके से वीपीपीएटी तंत्र को लागू करे और सरकार से भी कहा है कि वह सके लिए समुचित वित्तीय आवंटन करे। आयोग 2019 के अगले आम चुनाव के दौरान सभी चुनाव क्षेत्रों में पर्ची वाली न मशीनों के स्तेमाल की योजना बना रहा है। सके लिए उसने सरकार से 3,174 करोड़ रुपये भी मांगे हैं। आयोग ने उच्चतम न्यायालय को बताया है कि यह राशि आवंटित होने के 30 महीनों के दौरान वह जरूरी मशीनें तैयार कर सकता है। जहां चुनाव आयोग ईवीएम को लेकर अपने विश्वास को फिर से पुख्ता कर रहा है वहीं दूसरी ओर पर्ची वाली व्यवस्था की ओर भी कदम बढ़ा रहा है।

पर्ची वाली व्यवस्था से समूची चुनावी कवायद में जरूरी पारदर्शिता आएगी और विवादों की गुंजाश भी घटेगी। किसी भी सूरत में हमें मतपत्रों और उसके चलते बूथ लूटने के दौर में वापस नहीं जाना है। फरवरी और मार्च में पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में चुनाव आयोग ने 52,000 वीवीपीएटी मशीनों का स्तेमाल किया था। गोवा की सभी 40 विधानसभा सीटों पर ऐसी मशीनों का स्तेमाल किया गया। न मजबूत अदालती फैसलों और पूरी तरह पर्ची वाली मशीनों की ओर बढ़ते हुए कदमों के मद्देनजर ईवीएम के खिलाफ अभियान पर निश्चित रूप से विराम लगना चाहिए।

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