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स्वास्थ्य ढांचे की बीमारी का इलाज

गोरखपुर मेडिकल कालेज में बच्चों की मौत पर लोगों का गुस्सा फूटना पूरी तरह जायज है। इन मौतों के लिए अस्पताल प्रशासन, अस्पतालों की निगरानी के लिए बैठे सरकारी अमले और राज्य में इन्सेफेलाइटिस यानी मस्तिष्क ज्वर की देखभाल का जिम्मा संभाल रहे लोगों की आपराधिक लापरवाही का मामला बनता है। उनकी यह लापरवाही उन बच्चों की जिंदगी पर भारी पड़ गई जो बेहतर बचपन और जिंदगी के हकदार थे। गोरखपुर की घटना के पहले केरल में डेंगू महामारी की तरह फैला था।

इसके चलते करीब 400 बच्चों की मौत हुई। इसके बाद राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप और एक दूसरे पर निशाना साधने का दौर शुरू हो गया। यह इन दिनों बेहद आम हो गया है। केरल से लेकर गोरखपुर की घटनाएं यही बताती हैैं कि राज्यों में सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं की हालत कितनी दयनीय है। यह महत्वपूर्ण है कि इन मौतों पर उपजा गुस्सा समय के साथ खुद ब खुद शांत न हो जाए। हमें इन मौतों को भूलना नहीं होगा। मौजूदा हालात को एक नजीर मानकर गौर करना होगा, क्योंकिपिछले कुछ वर्षों में देश के तमाम हिस्सों में बच्चे असमय काल-कवलित हुए हैं। इस पर होने वाले विमर्श के बिंदु पूरी तरह वास्तविक मुद्दों पर केंद्रित होने चाहिए। इसलिए और भी, क्योंकि हमारे अधिकांश राज्यों के स्वास्थ्य ढांचे में बेलगाम भ्रष्टाचार, लापरवाही और सरकारों की अनदेखी सेहत के इस तंत्र को बीमार बना रही है। 

हमारा संविधान अनुच्छेद 21 के तहत प्रत्येक नागरिक को जीवन और स्वतंत्रता का अधिकार प्रदान करता है। इसके साथ ही वह राज्य यानी सरकार को नागरिकों के लिए स्वास्थ्य सेवाएं सुनिश्चित करने का दायित्व भी बाध्यकारी बनाता है। उच्चतम न्यायालय ने भी तमाम फैसलों में अनुच्छेद 21 की व्यापक विवेचना की है और उनमें स्वास्थ्य के अधिकार को भी अनुच्छेद 21 का ही भाग माना है। पिछले एक दशक से भी ज्यादा समय से एक सांसद के तौर पर मैंने देखा है कि स्वास्थ्य ढांचे पर संसद में अव्वल तो कोई सार्थक बहस नहीं हुई और अगर हुई भी तो महज खानापूर्ति के तौर पर रस्म अदायगी की ही तरह। मुझे संदेह है कि विधानसभाओं में भी इसे लेकर कमोबेश यही स्थिति होगी। अब समय आ गया है कि सभी नेता इस लापरवाही भरे रवैये का परित्याग करते हुए इस बेहद महत्वपूर्ण मसले पर चर्चा और निगरानी को अहमियत दें। 

बीमारी किसी व्यक्ति की जाति या धर्म को देखकर नहीं घेरती। इससे महिला, पुरुष और बच्चे सभी प्रभावित होते हैं। राज्य सरकारों की जवाबदेही तय करने पर जोर दिया जाना चाहिए कि वे नागरिकों के लिए जीवन के अधिकार की बाध्यकारी शर्त को पूरा करने के लिए अपनी कमर कसें। इसका अर्थ यही होगा कि सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रशासन और वितरण तंत्र की सड़ांध को साफ करते हुए उसे भ्रष्टाचार मुक्त बनाया जाए। यह इसलिए भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि अधिकांश भारतीय इलाज के लिए सरकारी अस्पताल और प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों पर ही निर्भर हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मई, 2017 में जारी किए गए आंकड़ों के अनुसार डायरिया भारत में पांच साल से कम उम्र के बच्चों की मौत का दूसरा सबसे बड़ा कारण बना हुआ है जिसने 2015 में रोजाना 132 बच्चों की जान ली। बच्चों के विकास से जुड़ी 132 देशों की सूची में भारत 114वें स्थान पर था। यह उम्र से कहीं कम लंबाई और कुपोषण के स्तर को दर्शाता है। 

आजादी के 70 साल बाद भी यह बेहद शर्मनाक है कि देश में बुखार, डेंगू, मलेरिया, हेपेटाइटिस ए और बी, डायरिया और एच1एन1 जैसी बीमारियों से लोग मर रहे हैं। यह स्थिति देश भर में अभिभावकों और बच्चों की मौजूदा मुश्किलों को और ज्यादा बढ़ा रही हैं। उत्तर प्रदेश में जिस इन्सेफेलाइटिस बीमारी की वजह से बच्चों की मौत हुई है वह उस क्षेत्र में बेहद आम हो गई है और यह लगभग हर साल की बात है, लेकिन यह देखने को नहीं मिला कि अतीत में भी किसी सरकार या राजनीतिक नेतृत्व ने उसका उचित रूप से अनुमान लगाकर बचाव की पुख्ता तैयारी करने पर कोई बात की हो। यह एक राजनीतिक जिम्मेदारी भी है कि हालात खराब होने पर आपात स्थिति में स्वास्थ्य सेवाएं मुहैया कराई जाएं। दुर्भाग्य की बात है कि संविधान की भावना और सहस्नाब्दि विकास लक्ष्यों के अनुरूप काम करने में वर्षों से लगातार लापरवाही भरा रवैया ही दिखा है। ऐसे में बच्चों की मौत पर हुए संताप से उपजा आक्रोश पूरी तरह जायज लगता है। 

वर्ष 2005 में गोरखपुर के इसी बीआरडी मेडिकल कॉलेज में इन्सेफेलाइटिस की वजह से 1,500 से भी ज्यादा मौतें हुई थीं जिनमें से 90 फीसद बच्चे थे। इस बीमारी से ग्र्रस्त 2,500 से 3,000 मरीज हर साल बीआरडी अस्पताल में भर्ती होते हैं। इस पर जरूर प्रश्न होना चाहिए कि इतने लंबे समय से ऐसे हालात क्यों बने हुए हैं? जवाबदेही की कमी, भ्रष्टाचार, दोयम दर्जे का इलाज, ठप स्वास्थ्य उपकरण और स्वास्थ्य के मामले में लापरवाही इस समय तमाम राज्यों के लचर सरकारी स्वास्थ्य ढांचे की खास पहचान बन गए हैं। यह तस्वीर इसलिए दिल दुखाने वाली है, क्योंकि हमारे सबसे बेहतरीन डॉक्टर, सर्जन और नर्स सरकारी स्वास्थ्य तंत्र में ही कार्यरत हैं। इससे पता चलता है कि इस मामले में समस्या नौकरशाही और राजनीतिक स्वरूप वाले ढांचे से ही जुड़ी है। देश के समक्ष चुनौती इस बात की है कि सभी नागरिकों के लिए आसान पहुंच वाली, किफायती और एकसमान स्वास्थ्य सेवाओं की परिकल्पना को साकार किया जाए।

 
उत्तर प्रदेश और केरल में हुई हालिया मौतों पर उपजा गुस्सा महज कुछ दिनों में शांत नहीं होना चाहिए। देश भर में सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार और उनके कायाकल्प के लिए सतत बहस आज की दरकार है। समय आ गया है कि 70 साल के भ्रष्टाचार और लापरवाही को विदाई देकर उसकी जगह नए-नवेले, विश्वसनीय, मरीज हितैषी सरकारी स्वास्थ्य तंत्र स्थापित किया जाए। इसमें नए किस्म के राजनीतिक नेतृत्व की भी जरूरत होगी जिसकी प्राथमिकता में सभी भारतीयों का स्वास्थ्य और बेहतरी शामिल हो। इस राजनीतिक नेतृत्व को कई भूमिकाओं को अंजाम देना होगा। इसमें एक तो यही है कि सभी सरकारी और निजी स्वास्थ्य सेवा प्रतिष्ठानों की तिमाही आधार पर समीक्षा कर उनकी रिपोर्ट तैयार की जाए। इसके उपरांत राजनीतिक सांठगांठ, भ्रष्ट और बाबूशाही के चंगुल में फंसे स्वास्थ्य तंत्र को उसके शिकंजे से छुड़ाकर उसके लिए पर्याप्त वित्तीय संसाधन आवंटित कर उसकी कमान जवाबदेह हाथों में सौंपी जाए। यह ठीक नहीं कि आजादी के 70 साल बीत जाने पर भी हम अपने बच्चों की जिंदगी महफूज नहीं कर पा रहे हैं।

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