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सही बयान पर व्यर्थ की आपत्ति

20_02_2017-19ata_husnainसेना प्रमुख के हालिया बयान पर खासा हंगामा हुआ है। उन्होंने कड़े शब्दों में चेताया कि सेना के काम में बाधा पहुंचाने वालों को आतंकियों का समर्थक मानकर उनके खिलाफ कार्रवाई की जाएगी। यह न तो कई अनर्गल बयान था और न ही अपने सैनिकों को बेलगाम होने की आजादी देना। यहां तक कि यह कोई चेतावनी भी नहीं थी। यह महज एक संदेश था कि अगर अगली दफा सेना को निशाना बनाया गया तो वह हाथ पर हाथ धरे खामोश नहीं बैठेगी। बहरहाल उनके बयान पर हुई सियासी गोलबंदी को समझने से पहले सेना की कार्यप्रणाली पर गौर करना बेहतर होगा कि आखिर कश्मीर में वह कैसे काम करती है। जम्मू कश्मीर में आतंकियों की ताकत कमजोर पड़ने से सेना ने भी उत्तरोत्तर अपना रवैया कुछ नरम किया है। सैन्य परिचालन की अवधारणा अभी भी मुख्य रूप से नियंत्रण रेखा से सटे इलाकों में भारी घुसपैठ को रोकने, घुसपैठियों की तलाश और उन्हें नेस्तनाबूद करने तक ही सीमित है। इसमें गहन अभियान मुख्य रूप से ग्रामीण और जंगली इलाकों में ही चलता है। पुख्ता खुफिया जानकारी के आधार पर कस्बाई और शहरी इलाकों में भी कार्रवाई होती हैं। इनमें खासी एहतियात के साथ ध्यान रखा जाता है कि आम लोगों को नुकसान न हो। इनमें आम लोगों की चिंता सबसे अहम पहलू है। पिछले कुछ वर्षों के दौरान सुधरे हालात ने ऐसे संचालन की गुंजाइश बढ़ाई। इससे लोगों का भी हौसला बढ़ा है।
नतीजतन घेराबंदी और तलाशी अभियान की प्रकृति में नाटकीय बदलाव आया। अब सैन्य अभियान ज्यादा केंद्रित और खुफिया सूचनाओं से चलते हैं जिसमें घेराबंदी की जरूरत कम हुई है ताकि लोगों को कम से कम असुविधा हो। ऐसा बदलाव आया है कि कुछ जोखिमों के बावजूद ऐसे अभियानों में नुकसान न्यूनतम हो। कोशिश की जाती है कि आतंकी को बाहर आने दें और इसके लिए अतीत में रॉकेट लॉन्चर और विस्फोटकों से ही घरों को उड़ा देने का चलन खत्म हो गया है। इससे संघर्ष का मानवीयकरण हुआ है। सेना की सोच में भी इसे मान्यता मिली है। जनरल रावत उसी सोच के दायरे में दीक्षित हुए हैं और उनका बयान उसी संस्थागत अवधारणा के सांचे में ढला है। वर्ष 2015 से ही खासतौर से दक्षिण कश्मीर में सेना की विक्टर फोर्स ने सीमा पार आतंकियों द्वारा अपनाई जाने वाली तिकड़मों में बदलाव का बारीकी से अवलोकन किया। सेना, सीआरपीएफ और जम्मू-कश्मीर पुलिस ने एसओपी के रूप में आपसी सहयोग से इसका अस्थायी हल निकाला है।
इससे नुकसान के छिटपुट वाकये ही देखने को मिले हैं। हालांकि हाल में हुई तीनों मुठभेड़ उत्तरी कश्मीर में देखने को मिली हैं और उनमें एक ही प्रारूप नजर आया जिसमें अचानक जमा भीड़ ने खासा गतिरोध पैदा किया जिससे सेना को नुकसान उठाना पड़ा। 2008 से ही सेना को ऐसी भीड़ का सामना करना पड़ा जिसने कई मर्तबा उसके वाहनों को भी आग लगा दी। सितंबर 2016 में जब दक्षिण कश्मीर में दो ब्रिगेडों की तैनाती का फैसला हुआ तो मैंने भी लेख के जरिये कुछ सलाह दी। मैंने यही कहा कि सेना उच्च नैतिक आधार को गंवाना गवारा नहीं कर सकती और संघर्ष को लेकर उसका नजरिया हमेशा दुरस्त रहा है। सैनिकों ने मुझे निराश भी नहीं किया, क्योंकि बालापुर में उनके शिविर से महज तीन किलोमीटर दूर शोपियां में सेना द्वारा स्थानीय लोगों को स्वास्थ्य सेवाएं मुहैया कराए जाने के बीच पत्थरबाजी की खबरें आई थीं। यही वह उच्च नैतिक आधार है जिसका मैं जिक्र कर रहा था। हालांकि उन स्थानीय नेताओं के असंयमित व्यवहार से पूरा मामला गड़बड़ हो सकता है जिन्हें आम कश्मीरी की जिंदगी में आई मुश्किलों की कोई परवाह नहीं। सेना प्रमुख ने जो भी कहा वह इस उच्च नैतिक आधार को जरा भी प्रभावित नहीं करेगा। सेना लगातार यह काम जारी रखेगी और युवाओं और अन्य की भागीदारी के साथ अपनी गतिविधियों की रफ्तार को बनाए रखेगी। हद से हद वह यही करेगी कि सीआरपीएफ और जम्मू-कश्मीर पुलिस के साथ मिलकर भीड़ को उकसाने वाले नेताओं की नजरबंदी पर ज्यादा जोर लगाएगी।
सेना दूरदराज के इलाकों से महिलाओं को बचाती रहेगी। दुर्घटनाओं या प्राकृतिक आपदाओं के पीड़ितों की मददगार बनी रहेगी। उसकी इन भूमिकाओं में जरा भी बदलाव नहीं आने वाला, क्योंकि सेना के संचालन की धारणा वही है। सेना प्रमुख के बयान से इसमें कुछ भी नहीं बदलने वाला। ऐसे में उनके बयान पर इतना हंगामा क्यों बरपा है? असल में यह उस नजरिये पर निर्भर करता है कि उनके बयान को किस संदर्भ में देखा जा रहा है। जनरल रावत से इकलौती गलती यही हुई कि उन्होंने नेताओं और मीडिया के लिए कश्मीर में सेना के संचालन पर एक व्याख्यान का आयोजन नहीं किया। सैद्धांतिक स्वरूप में भी कोई बदलाव आसन्न नहीं है। सेना प्रमुख के बयान ने फील्ड कमांडरों को जरा सी आजादी ही दी है कि वे अपने अभियानों में भीड़ से निपटने में कुछ और तौर-तरीके अपना सकते हैं। यह कैसे किया जाएगा? इसका फैसला कमांडर ही करेंगे कि जमीनी हालात उन्हें किस विकल्प की गुंजाइश देते हैं। बिलकुल वैसे जैसे इससे पहले उन्होंने दक्षिणी कश्मीर में अभियान को अंजाम दिया था। लिहाजा इस पर हुए हंगामे की वजह सियासी है और इसका मकसद अलगाववादी विचारकों और उनके समर्थकों के हितों की पूर्ति करना है।
सेना को सलाह देने और उसकी सैन्य क्षमताओं पर संदेह व्यक्त करने वाले तथाकथित ‘विशेषज्ञ’ सबसे ज्यादा निराश हैं। सेना के परंपरागत आलोचकों में जोश आ गया और उन्होंने चैनलों के पैनलों में बैठकर सेना की कार्यप्रणाली और कश्मीर के हालात से वाकिफ विशेषज्ञों पर निशाना साधने में कोताही नहीं बरती। भारतीय सेना की इस दशा पर शायद पाकिस्तान मंद-मंद मुस्करा रहा होगा और वह भारतीय सेना को एक हौवे के रूप में सामने रखना चाहेगा। जिन लोगों को किसी एक हथियार तक की जानकारी नहीं वे एकाएक सेना को बताने लगते हैं कि उसके प्रमुख को थोड़ा संयमित रहना चाहिए भले ही उसके फील्ड कमांडर कुछ भी कहते-करते रहें। ईमानदारी और बेबाकी की कीमत चुकानी पड़ती है। जो लोग यह कह रहे हैं कि सेना को मिले हालिया घाव 90 के दशक में उसे हुए नुकसान की तुलना में कुछ भी नहीं हैं तो वे एक तरह के भ्रम में ही जी रहे हैं। इन सभी बातों का सार यही है कि सेना को गैरजिम्मेदार तबके द्वारा कामयाबी के साथ उसके खिलाफ किए गए दुष्प्रचार से संभलने की दरकार है। उसे अपनी पहुंच दोगुनी क्षमता से बढ़ानी होगी और उसे बखूबी मालूम है कि इसे कैसे अंजाम देना है। कश्मीरियों की संवेदनशीलता को लेकर सेना की समझ पर कोई संदेह नहीं और वह नौजवानों को यह समझा सकती है कि वे अपना ही अहित करने पर क्यों आमादा है। मसलन उनके हाथों में पत्थरों के बजाय किताबें होनी चाहिए। उन्हें तकनीकी उपकरण सुधारने के कौशल में सिद्धहस्त होना चाहिए। नफरत की आग में जलने के बजाय एक बेहतर जिंदगी बनाने के लिए उन्हें खुद अपनी नियति तय करनी चाहिए। उनकी ऐसी सभी कवायदों में उन्हें हरदम सेना का साथ मिलेगा और वादी में मौजूद हर एक शख्स यह बात बखूबी जानता है। बस उन्हें एक छोटी सी मुश्किल का हल निकालना है कि उनके हित किस पाले में निहित हैं।

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