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संतों में झगड़ा भारी

10_03_2017-9hriday_narain_dixitधर्म इकाई और अनंत की प्रीति-रीति है। प्रकृति की सभी शक्तियां नियम बंधन में हैं। ऋग्वेद में इंद्र, अग्नि, वरुण, रूद्र और विष्णु आदि अनेक देवताओं का जिक्र है। सब अनंत सामर्थ्‍यवान हैं, लेकिन प्राकृतिक नियमों से बड़ा कोई नहीं। सनातन धर्म का अर्थ प्राकृतिक नियम ही है। प्रकृति अराजक नहीं है। इसकी गति विधि-बंधन में है। भारतीयों ने हजारों साल पहले ही प्रकृति के अंतस्-छंद्स में नियमबद्धता देखी थी। देखा-देखी उन्होंने अपने लिए भी एक आचार शास्त्र का विकास किया। इसे धारण किया। सदाचरण की यही आचार संहिता धर्म कहलाई। भारत का धर्म किसी देवदूत की घोषणा नहीं। यह वैदिक पूर्वजों के वैज्ञानिक दृष्टिकोण व अनुभूत दर्शन का परिणाम है। यह जड़ संहिता नहीं। इसमें कालबाह्य को छोड़ने और कालसंगत को जोड़ने की आत्म रूपांतरणकारी शक्ति है। ऋषि, आचार्य जैसे महानुभाव धर्म दर्शन का संवर्धन, परिवर्धन करते रहे हैं, लेकिन आश्चर्य है कि तर्क और विज्ञान दर्शन आधारित इस जीवनशैली में नकली और असली शंकराचार्यों के बीच भिड़ंत है। कोर्ट-कचहरी तक विवाद हैं। इन दिनों भूमा पीठाधीश्वर अच्युतानंद तीर्थ को द्वारिका पीठ का शंकराचार्य बनाने का प्रस्ताव विवादों में है। इस पर द्वारिका पीठाधीश्वर शंकराचार्य स्वरूपानंद ने गहरी आपत्ति जताई है।
श्रद्धालु आहत हैं। जिन्हें प्रेम, सद्भाव और धर्मतत्व पर मार्गदर्शन देना चाहिए वे स्वयं ही लट्ठमलट्ठा कर रहे हैं। ज्योतिष पीठ बद्रिकाश्रम के शंकराचार्य का विवाद न्यायपालिका तक पहुंचा है। एक सिविल जज ने वासुदेवानंद को स्वयं को शंकराचार्य घोषित करने पर रोक लगा रखी है। उत्तराखंड में प्राकृतिक आपदा के समय (जून 2013) केदारनाथ मंदिर के मुख्य पुजारी रावल भीमशंकर लिंग और शंकराचार्य स्वरूपानंद टकरा गए थे। एक शंकराचार्य ने साईंबाबा पर लगातार हमले किए थे। किन्नरों ने भी आहत होकर उज्जैन में अपने अलग अखाड़े की घोषणा की थी। शंकराचार्य हिंदुओं की आदरणीय संस्था हैं। प्रथम शंकराचार्य विलक्षण संन्यासी और दार्शनिक थे। वह लगभग 33 वर्ष ही जिए। अल्पजीवन में ही उन्होंने ब्रह्मसूत्र, गीता और 11 प्रमुख उपनिषदों का भाष्य किया। तब रेल नहीं थी तब भी वह पूरा भारत घूमे। बौद्ध दार्शनिकों से उनका शास्त्रार्थ हुआ। उन्होंने भारतीय दर्शन के नए क्षितिज छुए। उन्होंने बद्रीनाथ, द्वारिका, जगन्नाथपुरी और श्रंगेरीमठ रामेश्वरम के रूप में चार धाम घोषित किए। जैसे भारतीय संस्कृति और दर्शन की नींव डालने का श्रेय वैदिक ऋषियों को है वैसे ही शंकराचार्य ने भारत की भू-सांस्कृतिक एकता को यथार्थ बनाया था। इसलिए शंकराचार्य के नाम पर जारी विवाद से राष्ट्र व्यथित है।
वैदिक काल में न मठ थे और न महंत। तब वैदिक समाज संसारवादी, लेकिन सत्यखोजी था। सत्यानुभूति को आमजन तक ले जाने का काम पुराणकारों ने किया। तीर्थयात्रा और संत समागम के पुण्य या लाभ वेदों में नहीं पुराणों में हैं। तीर्थाटन में लोक रमता है। ज्ञानार्जन कठिन है। संन्यास मुक्ति का मार्ग है। गीता में संन्यासी की परिभाषा है-जो इच्छा रहित है और सभी द्वंद्वों से मुक्त है, वही संन्यासी है। शंकराचार्य ऐसे ही दार्शनिक संन्यासी थे। संन्यास साधना है। साधु, योगी, मुनि, संत और महंत जैसी तमाम अंदरूनी आध्यात्मिक चित्त दशाएं भारत की प्रज्ञा से उगीं। सामाजिक विकास के क्रम में तमाम बदलाव आए। धर्म दर्शन के शोध और बोध को लेकर मठ बने। प्रथम शंकराचार्य द्वारा स्थापित मठों के पास संपदा नहीं थी। बाद में संपत्ति बढ़ी तो झगड़े बढ़े। शंकराचार्य ने जगत को मिथ्या माया कहा था और कबीर ने माया को महाठगिनी। मठों, पीठों की संपदा को लेकर बढ़े झगड़े अंग्रेजीराज में ही प्रिवी काउंसिल तक जा चुके थे। भारत रत्न पीवी काणे ने ‘धर्मशास्त्र का इतिहास’ में मठों, महंतों पर कठोर टिप्पणियां की हैं। बताया है कि मठों में अधिकार क्षेत्र आदि को लेकर मतभेद और झगड़े होते रहे हैं।
राजनीतिक पद-प्रतिष्ठा की तरह धार्मिक क्षेत्र के पद भी काफी आकर्षक हो रहे हैं। शंकराचार्य, पीठाधीश्वर या महामंडलेश्वर जैसी उपाधियां अकूत सम्मान देती हैं। गांव देहात के घुमंतू साधु भी ‘बाबा’ कहे जाते हैं। बेशक सब ठग नहीं होते, लेकिन ठगने वालों की सूची भी छोटी नहीं है। दिल्ली पुलिस की पकड़ में आए सचिन दत्ता को इलाहाबाद के एक अखाड़े ने महामंडलेश्वर बनाया था। कथित महामंडलेश्वर की संपदा और कारनामे नोएडा से जालंधर तक फैले बताए गए। आशाराम की चर्चा बेकार है। निर्मल बाबा जैसे तमाम लोग चर्चाओं में रहे हैं। नए-नए शंकराचार्यों और महंतों की आमद जारी है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर तमाम महानुभाव भक्ति प्रवचन दे रहे हैं। वे चुटकियों में मुकदमा जिताने, प्रेम प्रसंग सफल बनाने सहित तमाम सांसारिक उपलब्धियों की गारंटी दे रहे हैं। धर्म बिक रहा है। श्रद्धालु ठगे जा रहे हैं। धर्मशास्त्र पर अर्थशास्त्र का कब्जा है। यहां अर्थशास्त्री ग्रेशम का नियम लागू है, जिसके अनुसार खोटे सिक्कों ने असली सिक्कों को चलन से बाहर कर दिया है।

मूलभूत प्रश्न यह है कि आखिर श्रद्धालु हिंदू किसे असली शंकराचार्य, महामंडलेश्वर या पीठाधीश्वर मानें? शंकराचार्य, महंत या मंडलेश्वर होने की पात्रता और परिभाषा क्या है? धर्म बहुकोषीय संरचना है और रिलीजन या मजहब एक कोषीय। यहां एक पवित्र ग्रंथ नहीं, एक देवदूत नहीं। यहां कोई पोप नहीं, मौलवी या खलीफा नहीं। एकेश्वर के साथ बहुदेव उपासना है। प्रत्येक हिंदू का अपना निज धर्म है। सबकी अपनी आस्था और सबके अपने देवता हैं। हिंदू धर्म जैसा आध्यात्मिक लोकतंत्र उसे शक्ति देता है। बेशक यह बात गर्व करने लायक है, लेकिन शंकराचार्य जैसी धार्मिक संस्थाओं पर आसीन होने की कोई आचार संहिता तो होनी ही चाहिए। प्रथम शंकराचार्य ने मठों के अनुशासन के लिए ‘मठाम्नाय महानुशासन’ जैसी आचार सारणी बनाई थी। शंकराचार्य उससे शासित क्यों नहीं होते? आखिर हिंदू विद्वानों की कोई सर्वमान्य परिषद क्यों नहीं है? कुंभ पर्व या अन्य अवसरों पर पहले स्नान के लिए तो झगड़े होते हैं, लेकिन हमारे पीठाधीश्वर जातिगत ऊंच-नीच के खात्मे लिए कोई आह्वान क्यों नहीं करते? वे गंगा स्नान के समय ही अविरल निर्मल गंगा की मांग करते हैं, बाकी समय नदियों के निर्मल अविरल प्रवाह पर अभियान क्यों नहीं चलाते?
सभी साधु, संत, महंत असली नकली शंकराचार्य और महामंडलेश्वर हिंदू मन की पुकार सुनें। हमारे परिजन अमेरिका और यूरोप के साथ ही दुनिया के तमाम देशों में नकली-असली धर्मगुरुओं के विवाद में लज्जित होते हैं। हम अपनी धार्मिक संस्थाओं के प्रति गहन आदर रखते हैं। आप भारत की व्यथा समझें। धर्म और धार्मिक संस्थाओं को नए पंख और नए आकाश दें। महाभारत का यक्ष प्रश्न आपके सामने है-मार्ग है क्या? युधिष्ठिर ने कहा था कि वेद वचन ढेर सारे। ऋषि अनेक हैं। तर्क से बात बनती नहीं। धर्म तत्व भीतर है इसलिए महान लोगों द्वारा निर्धारित मार्ग ही उत्तम है। अखिल भारतीय दंडी संन्यासी समिति ने ऐसे ही विषयों पर विचार के लिए काशी में सभी वर्तमान शंकराचार्यों और नए दावेदारों सहित तमाम विद्वानों को न्योता भेजा है। इसमें निर्णय लें। हिंदू समाज को अधुनातन और प्रगतिशील रूप आकार दें। राजनीतिक स्तर पर भारत की विश्व प्रतिष्ठा बढ़ी है। भारत के धर्म को वास्तविक रूप में रखने का यही उचित समय है।

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