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विवाद के 25वें साल क्या चाहती है अयोध्या

ayodhya_1481000408-1विवादित ढांचा विध्वंस के 25वें साल अयोध्या क्या चाहती है? मंदिर या मस्जिद। नहीं… या फिर कुछ और…। 

कोहरे की चादर में सिमटी अयोध्या में श्रीराम जन्म भूमि से महज दो सौ मीटर दूर सुटेहटी मोहल्ले में गरीबुल निशां और उनकी बेटी नाजरा बानो फूलों की मालाएं तैयार कर रही हैं। ये मालाएं हनुमान गढ़ी जानी है। उनके बराबर में कासिम के घर प्रसाद के लिए गत्ते के डिब्बे तैयार हो रहे हैं। ये भी हनुमान गढ़ी जाएंगे। गरीबुल निशां ही नहीं, ऑटो चलाने वाले उनके शौहर हाशिम भी खुश है कि माहौल अच्छा है, श्रद्धालुओं की तादाद बढ़ी हुई है। मंदिर में चढ़ने वाली फूल-मालाओं से उनके परिवार को अतिरिक्त आमदनी हो जाती है। 

6 दिसंबर की पूर्व संध्या पर यह हाल उसी अयोध्या का है, जहां कभी दिसंबर का महीना आते-आते मंदिरों, बाजारों में सन्नाटा पसरने लगता था। जगह-जगह बैरियर गिर जाते थे, अर्धसैनिक बलों का फ्लैग मार्च सन्नाटा तोड़ता था। विवादित ढांचा विध्वंस के 25वें साल में राम की नगरी बदली-बदली सी है।सरयू के घाटों पर रौनक है, कई दिनों से राम विवाहोत्सव के आयोजनों के चलते चहल-पहल आम दिनों से कहीं ज्यादा है। रामायण मेले के आयोजन का पूरे अयोध्या में लाउडस्पीकर लगाकर प्रसारण हो रहा है। विवाद के पुराने दौर को भूलकर लोग आगे बढ़ने को तैयार हैं। उनका दर्द है तो विकास की अनदेखी को लेकर।अयोध्या के मंदिरों में पूजा पाठ, सरयू स्नान के साथ ही 6 दिसंबर को शौर्य दिवस और यौम-ए-गम के आयोजन होंगे, लेकिन सिर्फ रस्म अदायगी के लिए। शहर के लोगों का अब इनसे ज्यादा जुड़ाव नहीं लगता। ‘रामलला हम आएंगे, मंदिर वहीं बनाएंगे’ और यौम-ए-गम के उद्घोष नहीं सुनाई दे रहे। आम लोग, बाहरी श्रद्धालु मेलों, आयोजनों में बेरोकटोक आ-जा रहे हैं। स्कूल, कॉलेजों की बंदी के आदेश नहीं हैं।मोटर साइकिलों पर छात्रों का हुजूम साकेत छात्र संघ चुनाव के प्रत्याशियों के समर्थन में जुलूस के रूप में नारे लगाता दिख रहा है। शायद यही वजह है कि सरयू के किनारे तीन पीढ़ियों से पूजा पाठ कराने वाले 80 वर्षीय रामचरित्र पंडा पूछ बैठते हैं कि क्या कल ही 6 दिसंबर है?वे बताते हैं कि 4 दिसंबर को पंचमी पर राम विवाह के कारण सरयू स्नान और दर्शन करने वालों की बहुत भीड़ रही। आसपास के जिलों ही नहीं, दिल्ली, राजस्थान, मध्यप्रदेश और गुजरात तक के लोग आए। लगभग ढाई हजार तो मुंडन संस्कार ही हुए हैं। वे कहते हैं, यहां कोई झगड़ा झंझट नहीं है। नेता लोग वोट के कारण माहौल खराब करते हैं। खौफ तभी होता है जब हजारों पुलिस वाले लगाए दिए जाएं, बैरिकेडिंग और तलाशी शुरू हो जाए।सियासी हलचल की सुर्खियां बनने वाली अयोध्या में आवेश और विद्वेष के बजाय अब कसक तरक्की और विकास की है। रामकोट बदहाली का शिकार हैं। अयोध्या का अर्थशास्त्र बहुत हद तक बाहर से आने वाले श्रद्धालुओं पर टिका होता है। खौफ और तनाव कम होने से बाहर से लोग आने तो लगे हैं, लेकिन बुनियादी सुविधाओं के अभाव में उनके कदम पीछे खिंच जाते हैं। अयोध्या व्यापार मंडल के पूर्व अध्यक्ष सुफल चन्द्र मौर्य कहते हैं कि खासकर विवाद के नाते दुनिया भर में मशहूर हुई राम की नगरी तरक्की और विकास में पिछड़ गई है। पिछले 25 साल में केवल ढांचा गिरा है, विकास पर किसी ने ध्यान नहीं दिया। सियासी लोग मजबूरी का फायदा उठाते रहे हैं।

यदि राम जन्म भूमि न्याय कार्यशाला की जगह प्रदर्शनी लगी होती, व्यायामशाला बनी होती तो लोग इससे जुड़ते। बात किसी एक दल की नहीं है, सभी ने केवल भाषण दिए हैं। सरयू किनारे चार साल से गेट बन रहा है, पर अभी तक निर्माण पूरा नहीं हो पाया है। इसे तीन बार तोड़ा जा चुका है। राम की पैड़ी वैसी की वैसी है। लोग बोलते तो नहीं, लेकिन अयोध्या में शौचालय से लेकर पार्किंग की भी सुविधा नहीं है। 25 बरस में बस अड्डा नहीं बन पाया। बाईपास पर श्रद्धालु बसों से उतरते हैं रास्ते में लुट जाते हैं। 9 ट्रेनों का स्टॉपेज ही नहीं है। कुंड पट गए हैं, उन पर कब्जे हो गए हैं।
मुस्लिम बनाते हैं संतों के लिए खड़ाऊं
छोटी देवकाली हाता में मुख्य मार्ग पर 65 वर्षीय मो. कलीम बेटे मो. कासिम के साथ काम में जुटे हैं। दो पीढ़ियों से खड़ाऊं बनाने वाले कलीम खुश इसलिए हैं कि माहौल ठीक है। कहते हैं, यूं भी अयोध्या के लोग कभी फिजा खराब नहीं करते हैं। जब भी दिक्कतें हुईं बाहरी लोगों ने पैदा कीं। कलीम कारोबार में सुस्ती के चलते मायूस भी है।
कहते हैं, खड़ाऊं बेचने के सहारे रोजी-रोटी चलना मुश्किल हो गया है। पुराने साधु अभी भी खड़ाऊं पहनते हैं, लेकिन युवा संत जूते पहनने को तरजीह देने लगे हैं। पहले मंदिरों में यूं भी दो-चार जोड़ी खड़ाऊं पड़ी रहती थी, लेकिन अब उनकी मांग कम हो गई है। वक्त को पहचानते हुए कलीम ने रोजी-रोटी चलाने के लिए खड़ाऊं के साथ ही चकला, बेलन, मथनी, रेहल आदि बनाने शुरू कर दिए हैं। कलीम ही क्यों, कई अन्य मुस्लिम परिवार मंदिरों और पूजा से जुड़ी सामग्री बनाने में योगदान कर रहे हैं।
मानवता की शुरुआत अयोध्या से : स्वामी रामदिनेशाचार्य जगद्गुरु रामानंदाचार्य स्वामी रामदिनेशाचार्य जी महाराज कहते हैं कि अयोध्या भक्ति का माहौल है। अयोध्या एक है, इसे देखने की दृष्टि अलग-अलग है, लेकिन अयोध्या का वास्तविक रूप विश्व पटल पर नही लाया गया। दुर्भाग्य से इसमें पिछले सालों के विवाद का रूप देखा गया है।
अयोध्या विश्व की राजधानी है। यहां से चरित्र द्वारा आईना दिखाया गया है। यह मनु महाराज की राजधानी थी। उन्होंने ही मानवता की शुरुआत की। श्रीराम और राम जन्म भूमि बाद में आए हैं। 24 सालों का दौर भटकाव का रहा है। इससे न जाने कितनों का लाभ हुआ, कितनों की हानि हुई, लेकिन समाज को कुछ नहीं मिला। श्री राम जन्म भूमि को भुलाया नहीं जा सकता, लेकिन इस पर अब राजनीति नहीं हो सकती।
हाशिम की राह पर बेटा, कहा-अयोध्या नहीं चाहता फसाद
बाबरी मस्जिद के मुद्दई रहे हाशिम अंसारी का इसी साल इंतकाल हुआ। यह पहला मौका है, जब 6 दिसंबर के मौके पर वह अयोध्या के लोगों के बीच नहीं हैं। सेहत में गिरावट के चलते हाशिम ने दिसंबर 2014 में बाबरी मस्जिद की पैरोकारी से पीछे हटने की घोषणा की थी। इन्होंने अपने बेटे इकबाल अंसारी को मुख्तार बनाते हुए इसकी कमान सौंपी थी। इकबाल भी अपने पिता के नक्शे कदम पर हैं। कहते हैं, हर साल 6 दिसंबर को मुसलमान गम मनाते हैं तो हिंदू शौर्य दिवस। बेहतर हो कि मसला आपस में तय हो जाए या अदालत में जल्द से जल्द फैसला आ जाए।

 वे कहते हैं, मेरे वालिद हाशिम अंसारी ने संत ज्ञानदास के साथ मिलकर इस विवाद में सुलह की कोशिशें की थीं, लेकिन विश्व हिंदू परिषद ने इसे परवान नहीं चढ़ने दिया। वालिद चाहते थे कि इस मसले का हल निकालकर देश का भला हो, अयोध्या का विकास हो। वे कहते हैं कि अयोध्या के लोग कभी दंगा-फसाद नहीं चाहते।

 मैं अपने वालिद (पिता) के बताए रास्ते पर चलता रहूंगा। हम चाहते हैं कि मसले का जल्द फैसला हो ताकि किसी को राजनीति करने और दंगा-बवाल कराने का मौका न मिंले। कुछ बाहरी लोग नहीं चाहते हैं कि सुलह हो। वे झगड़ा बरकरार रखना चाहते हैं। पब्लिक जान गई है कि इस मसले पर राजनीति में बड़ों का फायदा और छोटों का नुकसान होता है।

 काश परमहंस होते, ज्ञानदास की बात सुनी जाती

इकबाल अंसारी को अपने वालिद के साथ ही परहंस रामचन्द्र दास के दुनिया में न रहने का गम है। कहते हैं, अब्बा के परहंस जी और ज्ञानदास जी से गहरे संबंध थे। वे भाई की तरह बात करते थे। उनकी जगह कोई और नहीं ले सकता। वे हमेशा मसले का हल निकालने के पक्षधर रहे। काश परमहंस जी होते और ज्ञानदास जी की बात सुनी जाती।
 

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