देहरादून: उत्तराखंड में हाल ही में हुए विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की करारी हार का ठीकरा आखिरकार प्रदेश अध्यक्ष किशोर उपाध्याय के ही सिर फूटा। हालांकि सच तो यह है कि पूरे चुनाव अभियान में किशोर काफी सीमित भूमिका में दिखे, मगर पार्टी आलाकमान ने हार की जिम्मेदारी तय करने में उन्हें कतई नहीं बख्शा। इसके अलावा उनके नेतृत्व में जिस तरह पार्टी के एक के बाद एक बड़े नेताओं ने कांग्रेस से दामन झटका, वह भी उनके खिलाफ गया।
प्रदेश कांग्रेस कमेटी अध्यक्ष पद से किशोर की विदाई के मूल में विधानसभा चुनाव में पार्टी की अप्रत्याशित हार ही मानी जा सकती है। 70 सदस्यीय विधानसभा में कांग्रेस का आंकड़ा इस विधानसभा चुनाव में महज 11 तक आ सिमटा। किशोर स्वयं तो चुनाव हारे ही, तत्कालीन मुख्यमंत्री हरीश रावत भी दो-दो सीटों से मैदान में उतरने के बावजूद कहीं से भी जीत दर्ज नहीं कर पाए। रावत मंत्रिमंडल के अधिकांश सदस्यों को भी पराजय का मुंह देखना पड़ा।
हालांकि यह भी सच है कि उत्तराखंड में विधानसभा चुनाव पूरी तरह हरीश रावत के ही नेतृत्व में कांग्रेस ने लड़ा। प्रत्याशी चयन से लेकर चुनाव अभियान तक, सब कुछ रावत पर ही केंद्रित रहा। यहां तक कि प्रदेश संगठन के मुखिया रहते हुए भी किशोर उपाध्याय अपनी मनपसंद सीट टिहरी से चुनाव मैदान में नहीं उतर पाए।
बतौर निर्दलीय पिछला चुनाव जीत कर रावत मंत्रिमंडल में शामिल हुए दिनेश धनै को उन पर तरजीह दी गई। यह बात दीगर है कि धनै भी विधानसभा चुनाव में अपनी नैया पार नहीं लगा पाए। हाशिये पर रहने के बावजूद कांग्रेस आलाकमान ने उन्हें विधानसभा चुनाव में हार की जिम्मेदारी से मुक्त नहीं किया।
किशोर को अध्यक्ष पद से बेदखल करने का एक बड़ा कारण यह भी माना जा रहा है कि वह पार्टी को विघटन से बचा नहीं पाए। किशोर के ही कार्यकाल में कांग्रेस को उत्तराखंड में अब तक की सबसे बड़ी टूट का सामना करना पड़ा। पिछले साल मार्च में पूर्व मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा व दो पूर्व कैबिनेट मंत्री हरक सिंह रावत तथा अमृता रावत समेत नौ और फिर एक अन्य विधायक कांग्रेस छोड़ भाजपा में शामिल हो गए।
हालांकि तब तत्कालीन मुख्यमंत्री हरीश रावत सरकार बचाने में तो कामयाब हो गए मगर इसका श्रेय उनके खाते में गया न कि किशोर के। रही-सही कसर ऐन विधानसभा चुनाव से पहले दो बार प्रदेश अध्यक्ष रहे तत्कालीन कैबिनेट मंत्री यशपाल आर्य के भी भाजपा में चले जाने से पूरी हो गई।