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विदेश नीति के मोर्चे पर नई मुश्किलें

09_06_2017-8uday_bhaskarसमंदर की लहरें नापने में नाविकों का कोई सानी नहीं होता, लेकिन कुछ पैमाने उनके मददगार होते हैं। समंदर चाहे शांत हो या उसकी लहरें उफान पर हों, दुनियाभर में स्वीकार्य पैमाने उन्हें मापने के काम आते हैं। अगर वैश्विक राजनीतिक-राजनयिक परिदृश्य में इस पैमाने का इस्तेमाल करें तो भारतीय प्रधानमंत्री का जहाज बेहद अशांत पानी में प्रवेश करता दिख रहा है। भले ही भारतीय प्रधानमंत्री हाल में चार देशों का बेहद सफल दौरा करके लौटे हों और शंघाई सहयोग सम्मेलन यानी एससीओ में भाग लेने के लिए कजाकिस्तान पहुंच गए हों, लेकिन उनके समक्ष मौजूदा अस्थिर हालात को नकारा नहीं जा सकता। तेजी से बढ़ती वैश्विक अस्थिरता की आग इस महीने की पहली तारीख को अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के उस बयान से भड़की जब उन्होंने एलान किया कि अमेरिका जलवायु परिवर्तन के पेरिस समझौते का हिस्सा नहीं रहेगा।

बेवजह का विवाद तब पैदा हो गया जब ट्रंप ने इसके लिए भारत को निशाना बनाया। उन्होंने कहा कि इससे भारत को बेजा आर्थिक फायदा मिल रहा है। उनके इस बयान से दोनों देशों के रिश्तों में राजनयिक तल्खी सी आ गई। प्रधानमंत्री मोदी का इस महीने के अंत में वाशिंगटन में ट्रंप से मिलने का कार्यक्रम है। उनके दौरे से पहले प्रतिकूल संकेत दिख रहे हैं। भारत को लेकर ट्रंप के आरोपों का कड़ाई से खंडन करते हुए विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने कहा कि उनमें कोई सच्चाई नहीं है। जलवायु परिवर्तन के मसले को लेकर ट्रंप प्रशासन फिलहाल रक्षात्मक मुद्रा में है, क्योंकि पेरिस समझौते से कदम पीछे खींचने पर अमेरिका की दुनियाभर में निंदा हो रही है। इस निंदा पर अमेरिका की संयुक्त राष्ट्र में राजदूत निक्की हेली ने कहा है कि भारत, चीन और फ्रांस अमेरिका को न बताएं कि पेरिस समझौते पर उसे क्या करना है। भारत-अमेरिका द्विपक्षीय रिश्तों में यह महज एक पहलू भर है।
ट्रंप प्रशासन ‘बाय अमेरिकन, हायर अमेरिकन’ यानी अमेरिकी उत्पाद खरीदने और अमेरिकी नागरिकों को ही रोजगार देने की रणनीति को प्राथमिकता दे रहा है। भारत के लिए इसके खासे निहितार्थ हैं। इसके चलते भारतीय आईटी कंपनियों के पेशेवरों को मिलने वाले एच1बी वीजा पर अब अनिश्चितता के बादल मंडराने लगे हैं। मोदी-ट्रंप के बीच होने वाली पहली बैठक की सबसे बड़ी चुनौती रिश्तों में भरोसे की बहाली या उसमें कमी को पाटने की होगी। इसके साथ ही उन द्विपक्षीय रिश्तों में विश्वसनीय निरंतरता के भाव को भी सुनिश्चित करना होगा जिनकी बुनियाद राष्ट्रपति बुश के कार्यकाल में पड़ी और ओबामा के शासन में परवान चढ़ते हुए नए मुकाम पर पहुंची। अगर जलवायु परिवर्तन को एक संकेत के तौर पर देखें तो लगता है कि ट्रंप ओबामा की अधिकांश नीतियों को पलटने के लिए कमर कस चुके हैं। इसमें भारत-अमेरिका रक्षा संबंध भी कसौटी पर होंगे जिन्हें पूर्व रक्षा मंत्री एश्टन कार्टन ने बड़े करीने से आकार दिया था। ये रिश्ते प्रधानमंत्री मोदी के लिए कड़ी परीक्षा साबित होंगे।
ट्रंप की ओर से ओबामा की नीतियों को पलटने की सोची समझी कोशिश ईरान के साथ संबंधों की तासीर बदलने के रूप में पहले से ही नजर आने लगी है। हालांकि इसमें भी हैरानी की कोई बात नहीं, क्योंकि अपने चुनाव अभियान में ट्रंप ने ईरान के साथ अमेरिका के परमाणु करार की कड़े शब्दों में आलोचना की थी। हाल में अमेरिकी राष्ट्रपति का सऊदी अरब दौरा भी अमेरिका के उसी पुराने रवैये को ही दर्शाता है जिसमें अमेरिका सऊदी अरब का पुरजोर समर्थन करते हुए ईरान को अस्थिरता एवं मुस्लिम जगत में चरमपंथ फैलाने का कसूरवार मानता आया है। अमेरिका के रवैये में आए ऐसे दोहरे बदलाव से पश्चिम एशिया की राजनीति में खासी उथल-पुथल मचनी शुरू हो गई है। यह क्षेत्र भारत के लिए भी बेहद महत्वपूर्ण है। सऊदी अरब और उसके साथी देशों द्वारा कतर का बहिष्कार करना अस्थिरता का ही परिचायक है। यह किसी से छिपा नहीं कि रियाद का ईरान और कतर के साथ छत्तीस का आंकड़ा है। उसका मानना है कि कतर इस्लामिक स्टेट और मुस्लिम ब्रदरहुड को समर्थन दे रहा है। ईरानी संसद पर आइएस के हमले के बाद सऊदी अरब और ईरान के बीच तनाव और बढ़ना तय है। इस सिक्के का दूसरा पहलू यह भी है कि मौजूदा अमेरिकी नीति में आतंक के प्रसार को लेकर वहाबी-सलाफी संगठनों की भूमिका की पूरी तरह अनदेखी की जा रही है। अमेरिकी नीतियों में यह विरोधाभास सऊदी-ईरान प्रतिद्वंद्विता के मुताबिक ही है जिसकी जड़ों में शिया-सुन्नी विरोध है। इसका काफी हद तक असर एससीओ की उस बैठक में भी देखने को मिलेगा जिसमें भाग लेने के लिए प्रधानमंत्री कजाकिस्तान गए हुए हैं।
कजाकिस्तान में भारत और पाकिस्तान, दोनों औपचारिक तौर पर एससीओ का हिस्सा बन जाएंगे। बीजिंग ने इस संगठन की शुरुआत 1996 में शंघाई फाइव के नाम से की थी। फिर 2011 में छह सदस्यों के साथ विस्तार कर इसे एससीओ का नाम दिया। आतंक के खिलाफ मोर्चा बनाकर क्षेत्रीय सुरक्षा सहयोग पर जोर देना एससीओ के मुख्य एजेंडे में शामिल है और चीन एवं रूस इसके दो मुख्य कर्णधार हैं। एससीओ शिखर सम्मेलन अफगानिस्तान और ब्रिटेन में बड़े आतंकी हमलों की पृष्ठभूमि में हो रहा है। हमेशा की तरह आतंकवाद को लेकर राजनीति भी हो रही है। यह तय है कि अस्ताना में होने वाले सम्मेलन में पाकिस्तान भी एक खास पहलू होगा। हाल में अफगानिस्तान में हुए आतंकी हमलों में पाकिस्तान की भूमिका और तमाम अंतरराष्ट्रीय मंचों पर आतंक को लेकर भारत द्वारा उठाई जाने वाली आवाज के साथ ही इस मोर्चे पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की निरंतर कोशिश के बावजूद इसकी संभावनाएं कम ही हैं कि कजाकिस्तान में आतंकवाद के खिलाफ कोई सर्वमान्य हल निकलेगा। प्रधानमंत्री मोदी के लिए फिलहाल सबसे बड़ी चुनौती यही है कि अपने सुरक्षा एवं सामरिक हितों की खातिर अमेरिका से लेकर चीन और रूस तक पाकिस्तानी फौज की सराहना कर रहे हैं। यह मोदी की आतंक विरोधी मुहिम में आड़े आ रहा है। एक ओर अमेरिका, चीन और रूस के साथ द्विपक्षीय रिश्तों का तकाजा है तो दूसरी ओर यूरोपीय संघ और जापान के साथ रिश्तों की धुरी है। किसी एक खेमे के साथ लामबंदी की गुंजाइश कम है।
मुश्किल भंवर में पतवार थामकर नैया पार लगाने में मोदी पहले भी अपनी क्षमता साबित कर चुके हैं। यहां तक कि प्रधानमंत्री बनने से पहले भी इस मामले में वह अपना जौहर दिखा चुके हैं जिसमें अमेरिकी वीजा पर हुए विवाद के मुद्दे पर उनका रवैया एक मिसाल है। अभी कजाकिस्तान के बाद इस महीने के आखिर में जब वह अमेरिका के लिए उड़ान पकड़ेंगे तो उनसे इसी तरह के चातुर्य और कौशल की उम्मीद होगी, क्योंकि वैश्विक सामरिक समंदर की लहरें अभी और ज्यादा हलचल मचाने वाली हैं।

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