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विदेशी बीमारी से बचें देसी कंपनियां

27_02_2017-26krishnamurthy-subramaniamक्या भारतीय कंपनी जगत यानी इंडिया इंक की कार्य संस्कृति में भी अमेरिकी कॉरपोरेट गवर्नेंस की कुछ खामियां दोहराई जानी चाहिए? देश की दिग्गज सूचना प्रौद्योगिकी कंपनी इंफोसिस के संस्थापकों और मौजूदा प्रबंधन के बीच चल रही खींचतान को देखते हुए देश में कॉरपोरेट गवर्नेंस की दृष्टि से यह प्रश्न काफी प्रासंगिक हो जाता है। इसके लिए कुछ तथ्यों पर गौर करना होगा। 1992 से 2000 के दौरान जब अमेरिकी शेयर बाजार कुलांचे भर रहा था तब एसएंडपी में शामिल 500 कंपनियों के सीईओ का औसत वास्तविक वेतन यानी महंगाई का असर जोड़कर मिलने वाली तनख्वाह चौगुने से भी ज्यादा बढ़ गई। इस दौरान उनका वेतन 35 लाख डॉलर से बढ़कर 1.47 करोड़ डॉलर हो गया। सामान्य कर्मचारियों को मिलने वाले मेहनताने की तुलना में वरिष्ठ अधिकारियों को दिए जाने वाले वेतन में भारी बढ़ोतरी हुई। 1991 में अमेरिका की किसी बड़ी कंपनी में सीईओ को आम कर्मचारी की तुलना में तकरीबन 140 गुना वेतन मिलता था।

अब यह आंकड़ा 500 गुना तक बढ़ गया है। क्या इन आठ वर्षों में इन कंपनियों में सामान्य कर्मचारियों की तुलना में सीईओ ने चार गुना अधिक योगदान दिया? योगदान चार गुना बढ़ाने के लिए ये सीईओ कौन सी जादुई खुराक खाते थे? क्या ऐसी किसी खुराक से इन सीईओ की रणनीतिक सोच, व्यक्ति प्रबंधन और नेतृत्व क्षमताओं में भी एकाएक चौगुने का इजाफा हुआ? चूंकि अगर ऐसी कोई जादुई खुराक होती तो वह बाजार में दस्तक जरूर देती लिहाजा यह निष्कर्ष निकालना मुश्किल नहीं कि ऐसी बढ़ोतरी सीईओ और उनकी सरपरस्ती वाले निदेशक मंडलों की सांठगांठ से संभव हुई होगी। अकादमिक शोध पत्रों ने ऐसी दुरभिसंधियों को पुष्ट किया है। इस सिलसिले में बर्कशर हैथवे के शेयरधारकों को 2004 में लिखे एक पत्र में वॉरेन बफेट के बयान की मिसाल भी दी जाती है। बफेट ने कहा था, ‘अमेरिकी उद्योग जगत में सुधारों के लिहाज से सीईओ का वेतन बड़ी अग्निपरीक्षा बना हुआ है। अभी तक इसके उत्साहजनक नतीजे देखने को नहीं मिले हैं।’
आदर्श रूप से सीईओ को उसी अनुपात में वेतन मिलना चाहिए जितना वह कंपनी की तरक्की में योगदान देता हो। इस आदर्श स्थिति में निदेशक मंडल उसी आधार पर सीईओ के वेतन का निर्धारण करेगा कि उसने शेयरधारकों की संपदा को कितना बढ़ाया। हालांकि तमाम कारणों से ऐसी आदर्श दुनिया एक काल्पनिक अवधारणा लगती है। अव्वल तो यही कि तमाम कारणों से किसी कंपनी में निदेशक कंपनी के शीर्ष अधिकारियों के अनुरूप ही काम करने को तरजीह देते हैं। इसमें कई सामाजिक एवं मनोवैज्ञानिक कारक भूमिका निभाते हैं। मसलन सह-शासन, टीम भावना, निदेशक मंडल में टकराव टालने की स्वाभाविक इच्छा के अलावा दोस्ती और वफादारी भी मायने रखती है। दूसरी बात यह कि सीमित समय और संसाधनों की कमी के चलते भी कई बार भली मंशा वाले निदेशक चाहकर भी अपनी भूमिका के साथ न्याय नहीं कर पाते। जब वे आश्वस्त नहीं होते तो निदेशक मंडल में टकराव टालने और शांति बनाए रखना ही मुनासिब समझते हैं। फिर उनके वेतन-भत्ते निर्धारित करने का अधिकार भी सीईओ के हाथ में होता है और उनमें से कुछ तो सीधे उसके मातहत होते हैं। शोध दर्शाते हैं कि कंपनी में योगदान से ज्यादा निदेशकों पर सीईओ का असर ज्यादा प्रभावी होता है जो सांठगांठ का सबब बनता है।
अमेरिका में 2001 से सामने आने शुरू हुए कारोबारी घपलों के बाद ये शोध सीईओ के वेतन से जुड़ी तिकड़मों पर रोशनी डालते हैं। इन घोटालों ने निजी कंपनियों के निदेशक मंडलों में भरोसे को झकझोर कर रख दिया था जिससे इनके शीर्ष अधिकारियों की क्षतिपूर्ति राशि से जुड़ी कवायदों में संभावित खामियों की ओर ध्यान गया। ये शोध दर्शाते हैं कि तमाम निदेशक मंडलों ने क्षतिपूर्ति से जुड़े ऐसे प्रावधान किए जो शेयरधारकों के हितों पर चोट करने वाले थे। उनमें व्यापक स्तर पर कमियां थीं जिनकी जड़ें संचालन ढांचे में व्याप्त उन्हीं गड़बड़ियों में थीं जो शीर्ष अधिकारियों को निदेशकों पर इतना प्रभाव जमाने की गुंजाइश देता था। सीईओ को उसके प्रदर्शन के आधार पर वेतन का कोई विरोध नहीं करता। समस्या तब होती है जब सीईओ सांठगांठ के जरिये इसे अंजाम देते हैं। अमेरिकी सीईओ ने अपने इस प्रभाव का बेजा इस्तेमाल किया। मिसाल के तौर पर जब कच्चे तेल की कीमतों में तेजी आई तो तेल कंपनियों ने अपने सीईओ के वेतन में भारी बढ़ोतरी की जबकि तेल कीमतें बढ़ने में उनका कोई योगदान नहीं था। इसी तरह जब शेयर बाजार में सामान्य रूप से तेजी थी तब भी अधिकांश सीईओ को मोटी पगार मिली जबकि उस तेजी में उनका तनिक भी योगदान नहीं था। इक्विटी से इतर सीईओ को मिलने वाले भुगतान का बड़ा भाग भारी-भरकम सेवरेंस यानी कंपनी छोड़ते समय दी जाने वाली राशि, वेतन और बोनस का रहा जो उद्योग जगत में कंपनी के कमजोर प्रदर्शन से मेल नहीं खाता। उद्योग स्तर पर भी कंपनी के प्रदर्शन का आकलन इसलिए अहम है, क्योंकि यहां भी सीईओ खरे नहीं उतरते। कमतर प्रदर्शन करने वाले प्रबंधकों को भी भारी धनराशि का भुगतान किया गया।
इक्विटी आधारित क्षतिपूर्ति राशि सैद्धांतिक रूप से कारगर होती है। मगर दुर्भाग्य से दुनिया भर में सीईओ ने अपने प्रभाव से इसका गलत ही फायदा उठाया। उन्होंने इक्विटी आधारित योजनाओं के आधार पर अपने लिए भारी फायदे सुनिश्चित किए भले ही उस दौर में उनका प्रदर्शन औसत या उससे भी कम रहा हो। कंपनियां शेयरों की कीमतों की उचित पड़ताल करने में नाकाम रहीं और अन्य कारणों से हो रहे फायदों का लाभ ऐसे अधिकारियों को देती रहीं भले ही शेयरधारकों के हित में उनकी कोई खास भूमिका न रही हो। हालांकि ऐसे तमाम उपाय मौजूद हैं जिनसे ऐसे अप्रत्याशित लाभ की परतों की पड़ताल की जा सकती है, लेकिन अधिकांश कंपनियां ऐसा नहीं करती हैं। इसके अतिरिक्त वे अधिकारियों को ऐसे अधिकार देती हैं जिससे उनका फायदा होता है लेकिन कीमत शेयरधारकों को चुकानी पड़ती है।
इसके केवल आर्थिक निहितार्थ ही नहीं हैं। चूंकि भारत अमेरिका की तुलना में काफी गरीब मुल्क है लिहाजा यहां उन्हीं गलतियों को दोहराने के नैतिक पहलू भी हैं। भारत न केवल गरीब है, बल्कि यहां विषमता भी काफी है जो 1990 के बाद और बढ़ी है। वह तो उदारीकरण के बाद तेज आर्थिक वृद्धि का शुक्र है जिससे गरीबी घटाने में मदद मिली है। जहां 1990 में देश की 80 प्रतिशत ग्रामीण आबादी गरीब थी वहीं 2011 में यह आंकड़ा 30 प्रतिशत रह गया और 40 प्रतिशत शहरी गरीब आबादी भी 20 प्रतिशत से कम रह गई। फिर भी वियतनाम और इंडोनेशिया जैसे देशों से तुलना करेंगे तो ये आंकड़े आकर्षक नहीं लगेंगे, क्योंकि 1990 में इन देशों में गरीबी की तस्वीर भारत से भी खराब थी और फिलहाल गरीबी के पैमाने पर उनके हालात भारत से बेहतर हैं। ऐसे में आर्थिक वृद्धि के वितरण की इतनी असमान स्थिति को देखते हुए सीईओ के आसमान छूते वेतन पूरी तरह अनैतिक लगते हैं। लिहाजा सेबी और कॉरपोरेट गवर्नेंस को लेकर आग्रही वर्ग को इंफोसिस घटनाक्रम पर नजर रखनी चाहिए और सुनिश्चित करें कि अमेरिका जैसी गड़बड़ियां भारत में जड़ें न जमाने पाएं।

 

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