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विकास की आस में उत्तर प्रदेश

27_03_2017-26gn_bajpaiउत्तर प्रदेश के चुनाव नतीजे आने के बाद तमाम पहलुओं पर उसके जनादेश का आकलन हो रहा है। आकांक्षाओं से लबरेज उत्तर प्रदेश ने चुनाव में भाजपा को स्वर्ण पदक से नवाजा है। इस बीच ‘सामाजिक न्याय’ और ‘समावेशन’ की तथाकथित राजनीति भी अवसर और समृद्धि के वादों के आगे हार गई। विकास का अर्थशास्त्र सोशल इंजीनियरिंग पर भारी पड़ गया। संकीर्ण राजनीतिक बयानबाजी भारी गरीबी और विपन्नता के कोलाहल में दम तोड़ गई।

उत्तर प्रदेश में गरीबों की तादाद 30 प्रतिशत है जो 21.9 प्रतिशत के राष्ट्रीय औसत से अधिक है। ऐसे में यह स्पष्ट है कि नई सरकार को किस मोर्चे पर तुरंत कदम उठाने होंगे। उसके लिए काम एक तरह से पूर्व निर्धारित है। राज्य की समस्याओं की जड़ें खासी गहरी हैं। एक के बाद एक सरकारों खासतौर से पिछली सरकार के बड़े-बड़े वादों के बावजूद अधिकांश मानदंडों पर राज्य निचले स्तर पर ही कायम है। निचले स्तर का यह आधारतल भी काफी बड़ा और विस्तारित है और जब तक उत्तर प्रदेश में तरक्की नहीं होती तब तक भारत की जीडीपी वृद्धि और उससे होने वाली समृद्धि को पंख नहीं लग सकते। वर्तमान में देश की 16 प्रतिशत जनसंख्या को समाहित करने वाले इस प्रदेश की देश के जीडीपी में महज 12 प्रतिशत हिस्सेदारी है।
चीन की अधिनायकवादी सरकार ने महज चार दशकों में अपनी अधिकांश निर्धन आबादी को गरीबी के दुष्चक्र से बाहर निकाला है। यह आर्थिक तौर पर तो काफी आकर्षक लगता है, लेकिन स्वतंत्रता के अधिकार पर अंकुश की दुखद दास्तान भी बयान करता है। वह लगभग सभी विकसित अर्थव्यवस्थाओं को पछाड़कर बेहद ताकतवर अमेरिका को भी चुनौती दे रहा है जिसे एकध्रुवीय दुनिया में इकलौती महाशक्ति का दर्जा हासिल है। वहीं भारत ने ‘लोकतंत्र’ की राह चुनी है जहां स्वतंत्रता को आर्थिक समृद्धि के साथ ही जोड़ा गया। जब चीनी राजनीतिक नेतृत्व ने 1970 के दशक में अपनी दिशा में आधारभूत परिवर्तन किया तब तक जीडीपी प्रति व्यक्ति के पैमाने पर भी भारतीय अर्थव्यवस्था चीन से आगे थी। विपन्न भारत के समक्ष एक बड़ा सवालिया निशान लगता है कि ‘क्या आधुनिक भारत के निर्माताओं ने जिस लोकतंत्र का चयन किया वह हमारे समाज पर शासन के लिए उपयुक्त विकल्प है?’चूंकि भारत आंशिक रूप से ही जागरूक आर्थिक ताकत है लिहाजा इससे जुड़े संदेहों को दूर करने के लिए राजनीतिक एवं आथर््िाक तबके को ही कंधे से कंधा मिलाकर काम करना होगा। वहीं आर्थिक विकास का व्यापक परिदृश्य यही दर्शाता है कि जमीन, श्रम और पूंजी इसकी बुनियादी जरूरत हैं।

उत्तर प्रदेश के संदर्भ में यह आकलन करना उपयोगी होगा कि वहां इन बुनियादी पहलुओं की क्या स्थिति है? अवसरों के अभाव में श्रम शक्ति तो प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। इसकी एक वजह तो रोजगार के अवसरों का विस्थापन है और दूसरी यही कि लोगों का अवांछित गतिविधियों में इस्तेमाल हो रहा है। उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार उत्तर प्रदेश में सबसे ज्यादा हत्या, हत्या के प्रयास, दुष्कर्म, अपहरण, डकैती, दंगों और फिरौती के मामले दर्ज किए जाते हैं। प्रति एक लाख की आबादी पर आपराधिक मामलों की संख्या भी 112 तक पहुंच गई है। हालांकि सच्चाई इन आंकड़ों से भी कड़वी हो सकती है, क्योंकि बड़ी संख्या में मामलों को दर्ज ही नहीं किया जाता। यहां चपरासी के लिए निकली 400 भर्तियों के लिए आए 23 लाख आवेदन रोजगार के अवसरों की कमी के खराब हालात बयान करने के लिए काफी हैं जिसमें कई पीएचडी डिग्रीधारी भी थे।
पिछले पांच वर्षों के दौरान राज्य में सकल पूंजी निर्माण में काफी कमी आई है। वहीं प्रत्यक्ष विदेशी निवेश यानी एफडीआइ भी 2.5 अरब डॉलर का ही हुआ जो देश में हुए एफडीआइ का महज 0.2 प्रतिशत था। अगर राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में स्थित नोएडा, ग्रेटर नोएडा और गाजियाबाद में सकल पूंजी निर्माण और एफडीआइ के आंकड़ों को हटा दिया जाए तो प्रदेश की झोली लगभग खाली नजर आएगी। स्पष्ट है कि उत्तर प्रदेश का रुख करने में पूंजी सकुचा रही है। पूंजी रोजगार सृजन के लिए अवसर तैयार करने में मददगार होती है जिससे धन-संपदा बढ़ती है। पूंजी सुरक्षा के साथ प्रतिफल चाहती है। लिहाजा स्पष्ट है कि राज्य प्रशासन और सामाजिक-राजनीतिक तबके का व्यवहार वह भरोसा ही नहीं जगा पाया।
अगर राज्य में संचालित अन्य आर्थिक गतिविधियों पर गौर करें तो वहां भी तस्वीर कम निराशाजनक नहीं है।

प्रदेश में परिचालन कर रहे 44 लाख एमएसएमई में से केवल पांच प्रतिशत से भी कम उद्यमों को तकनीक, ढुलाई और बाजार सहयोग सुविधाएं हासिल हैं। यहां तक कि कृषि के मोर्चे पर भी बात करें तो गन्ने के उत्पादन में मामूली बढ़ोतरी को छोड़ दिया जाए तो खाद्य उत्पादों में भी हालत खस्ता है। बुनियादी जरूरत के रूप में उपयोगी जमीन सामाजिक और राजनीतिक माफियाओं के चंगुल में है जिसे वे बेहद ऊंची कीमत पर ही उपलब्ध कराते हैं। ऐसे में कोई हैरानी की बात नहीं कि पिछले पांच वर्षों के दौरान राज्य की औसतन जीडीपी वृद्धि केवल 5.9 प्रतिशत रही। आंकड़ों का गहन विश्लेषण करने पर मालूम पड़ेगा कि आर्थिक दिशा एक तरह से दिशाहीन है जिसे विकासोन्मुखी नहीं कहा जा सकता। लगभग 22 करोड़ की आबादी वाले उस राज्य को तरक्की करनी ही होगी जहां भारत का प्रत्येक पांचवां व्यक्ति रहता है। नई सरकार के पास ‘पहले दिन से काम करने’ के अलावा और कोई विकल्प नहीं। राज्य की अर्थव्यवस्था के कायाकल्प के लिए एक साथ कई मोर्चों पर कदम उठाने होंगे जिसमें सबसे महत्वपूर्ण होगा कानून-व्यवस्था में जरूरी सुधार, ताकि जान-माल की रक्षा और स्वतंत्रता का अधिकार सुनिश्चित हो सके जिससे तमाम तरह की फायदेमंद आर्थिक गतिविधियों में बड़े पैमाने पर अवसरों का सृजन होगा। निराशा खासतौर से बेरोजगार युवाओं की बेचैनी को लाभप्रद आर्थिक सक्रियता वाले अवसरों से शांत करने की जरूरत है।
सड़कों, हवाई अड्डों, जलमार्गों और आतिथ्य सत्कार उद्योग जैसे बुनियादी ढांचे का विकास तुरंत रोजगार उपलब्ध कराने वाले क्षेत्र हैं। उत्तर प्रदेश में हिंदू, मुस्लिम, बौद्ध, ईसाई जैसे अलग-अलग धर्मावलंबियों के महत्वपूर्ण स्थल हैं लिहाजा सुरक्षा, संचार और बेहतरीन आवासीय सुविधाएं विभिन्न तरह की आर्थिक गतिविधियों के द्वार खोलने से ऊंची वृद्धि का माध्यम बन सकती हैं। साथ ही साथ राज्य के आर्थिक विकास की व्यापक योजना बनाने की तैयारी भी शुरू करनी होगी। उत्तर प्रदेश भौगोलिक, आर्थिक और सामाजिक रूप से कई भागों में विभाजित राज्य है और इन सभी के विकास के लिए उचित रूप से योजना तैयार करनी होगी। अधीर युवाओं की बेचैनी किसी भी वक्त सामाजिक असंतोष में बदल सकती है जो समूचे देश को अपनी जद में ले सकती है। तात्कालिक कार्रवाई तो यही होनी चाहिए कि तब तक कदम नहीं रुकें जब तक कि वंचित वर्ग की मर चुकी उम्मीदों में हसरतों के नए पंख न लग जाएं और ऐसी सुबह आए जब वे उम्मीद और भरोसे के साथ जगें।

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