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राष्ट्रपति चुनाव का राजनीतिक महत्व

22_06_2017-21a_k_vermaभारत के प्रथम दलित राष्ट्रपति केआर नारायणन द्वारा केरल की झोपड़ी से राष्ट्रपति भवन और अब्राहम लिंकन का ‘झुग्गी’ से अमेरिकी ‘वाइट-हाउस’ के सफर की कड़ी में भारत के अगले राष्ट्रपति बनने के मुहाने पर खड़े रामनाथ कोविंद का कानपुर की दलित बस्ती से रायसीना-हिल्स का सफर भी जुड़ जाएगा। भाजपा ने उन्हें राष्ट्रपति पद का प्रत्याशी बनाया है। राष्ट्रपति हमारे गणतंत्र का गौरव है।

यह पद ब्रिटिश संसदीय लोकतंत्र में एक नया प्रयोग था। इसके बारे में विरोधाभासी दृष्टिकोण रहे हैं। व्यावहारिक रूप से यह ‘अलंकारिक’ माना जाता है। डॉ. अंबेडकर ने संविधान सभा में कहा था, ‘संविधान के प्रारूप में राष्ट्रपति की वही स्थिति है जो ब्रिटिश संविधान में राजा की। वह राज्य का प्रधान है, शासन का नहीं, लेकिन विधिक दृष्टिकोण से वह अत्यंत शक्तिशाली है। ब्रिटिश संविधान वर्षों पुरानी लोकतांत्रिक परंपराओं पर आधारित है, पर भारतीय संविधान तो लिखित है जहां लोकतांत्रिक परंपराओं को जन्म लेना है। इसका कारण मूल-संविधान का अनुच्छेद 74(1) था जिसमें राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के संबंध परिभाषित हैं जिसके अनुसार, ‘प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में मंत्रिपरिषद होगी जो राष्ट्रपति को उनके कार्यों के निष्पादन में सहायता और परामर्श देगी।’ संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने कहा था कि मुझे संशय है कि अनुच्छेद 74(1) के प्रावधान राष्ट्रपति को प्रधानमंत्री और मंत्रिमंडल की सलाह मानने को बाध्य करते हैं और इसलिए उन्होंने सदस्यों से पूछा कि क्या प्रधानमंत्री और मंत्रिमंडल की सलाह को राष्ट्रपति के लिए बाध्यकारी बनाने में कोई समस्या है? फिर भी संविधान सभा ने मूल संविधान में अनुच्छेद 74(1) को बाध्यकारी नहीं बनाया।
संविधान राष्ट्रपति को व्यवस्थापन, कार्यपालन, न्यायपालन, वित्त-आयोग, चुनाव-आयोग, सेना, वित्त-संबंधी और आपातकालीन शक्तियां देता है। वे शक्तियां इतनी व्यापक हैं कि अनेक विद्वानों ने उसकी तुलना हिटलर की शक्तियों से की है। राष्ट्रपति संसद भंग कर सकता है, प्रधानमंत्री को बर्खास्त कर सकता है और सेना के प्रमुख कमांडर के रूप में किसी भी आंतरिक अशांति या विद्रोह से निपटने की शक्ति रखता है। यदि कोई शक्तिशाली व्यक्ति भारत का राष्ट्रपति बन जाए तो उन शक्तियों का प्रयोग कर उसे लोकतंत्र को अधिनायकतंत्र बनाने में देर नहीं लगेगी। चूंकि विश्व में सबसे ज्यादा व्यक्ति-पूजा भारत में है इसलिए डॉ. अंबेडकर ने चेताया था कि लोकतंत्र की रक्षा के लिए हमें जॉन स्टुअर्ट मिल की वह सीख याद रखनी होगी कि ‘कोई व्यक्ति कितना भी महान क्यों न हो, हमें अपनी स्वंत्रतता उसके चरणों में अर्पित नहीं करनी चाहिए, न ही उसे ऐसी शक्तियां देनी चाहिए कि वह हमारी संस्थाओं का ह्रास कर सके।’ इतिहास साक्षी है कि कोई संविधान अपने निर्माताओं की अपेक्षाओं के अनुरूप नहीं, वरन राष्ट्रपति के व्यक्तित्व, चरित्र एवं क्षमता के अनुसार चलता है। संविधान लागू होने के 27 वर्षों बाद आपातकाल के दौरान प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को डॉ. राजेंद्र प्रसाद की वह सलाह मानने की जरूरत पड़ी और संविधान के 42वें संशोधन द्वारा प्रधानमंत्री और मंत्रिमंडल की सलाह को राष्ट्रपति के लिए बाध्यकारी बनाया गया।
राष्ट्रपति को संविधान के अनुच्छेद 60 के अंतर्गत ली गई शपथ के अनुसार.. संविधान और विधि का परिरक्षण, संरक्षण और प्रतिरक्षण भी करना होता है। ऐसे में यदि किसी राष्ट्रपति को प्रधानमंत्री की सलाह या उसके द्वारा ली गई शपथ में एक का चयन करना पड़े तो वह क्या करे? यदि राष्ट्रपति प्रधानमंत्री की सलाह नहीं मानता तो क्या उसके विरुद्ध महाभियोग का मामला बनता है? अभी तक देश ने अधिकतर मजबूत प्रधानमंत्री और शालीन राष्ट्रपति देखें हैं, लेकिन यदि यह समीकरण उलट जाए तो भारतीय संसदीय लोकतंत्र का नक्शा बदल सकता है। जो लोग राष्ट्रपति को ब्रिटिश राजा/साम्राज्ञी की तरह मानते हैं वे भूल जाते हैं कि ब्रिटिश राजा/साम्राज्ञी केवल प्रधानमंत्री से परामर्श लेता है, लेकिन भारत का राष्ट्रपति तो प्रधानमंत्री के अतिरिक्त अटॉर्नी जनरल, स्पीकर, राज्यसभा के सभापति, चुनाव-आयोग, सर्वोच्च न्यायालय और राज्यपालों आदि से भी परामर्श प्राप्त करता है। यदि उनके और प्रधानमंत्री के परामर्शों में विरोधाभास हो तो राष्ट्रपति के सामने प्रधानमंत्री की बात को न मानने का कोई आधार तो होगा।

संविधान सभा के कानूनी सलाहकार बीएन राव ने लिखा कि यदि कभी राष्ट्रपति प्रधानमंत्री की सलाह के खिलाफ जाकर भी निर्णय ले तो उसकी वैधता को न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती है। हालांकि 42वें और 44वें संशोधनों के बाद स्थितियां बदल चुकी हैं।
राष्ट्रपति चुनाव के लिए संविधान निर्माताओं ने एक नायाब तरीका अपनाया। उन्होंने एक ओर निर्वाचित सांसदों के माध्यम से उसे चुनने का अधिकार दिया तो दूसरी ओर सभी राज्यों को भी जनसंख्या के अनुपात में अपने निर्वाचित विधायकों के माध्यम से राष्ट्रपति चुनने का अधिकार दिया। इसी कारण जहां उत्तर प्रदेश के विधायक के मत का मूल्य सर्वाधिक 208 है वहीं सिक्किम के विधायक के मत का मूल्य सबसे कम अर्थात मात्र सात है। महत्वपूर्ण यह है कि इसमें संघ और राज्यों का वजन बिलकुल बराबर है। जहां 30 राज्यों के कुल 4,120 विधायकों के मतों का मूल्य 5,49,474 तथा लोकसभा और राज्यसभा के प्रत्येक निर्वाचित सदस्य के मत का मूल्य 708 है अर्थात सभी 776 सांसदों के मत का मूल्य 776Ÿ708 यानी 5,49,408 है। इस प्रकार राष्ट्रपति के निर्वाचक मंडल में सभी सदस्यों के मतों का मूल्य 10,98,903 और विजय के लिए उसे 50 प्रतिशत+1 वोट चाहिए। इससे निर्वाचित राष्ट्रपति न केवल एक पार्टी का, वरन संपूर्ण संघ और सभी राज्यों का प्रतिनिधि हो जाता है। ऐसे राष्ट्रपति से इंग्लैंड की महारानी की तुलना कैसे की जा सकती है?

ऐसा राष्ट्रपति तो अमेरिका के राष्ट्रपति से भी ज्यादा प्रतिनिधिमूलक होता है। क्या ऐसे व्यक्ति को राजनीतिक पार्टी का प्रतिनिधि होना चाहिए? 1979 में अमेरिकी संविधान निर्माताओं ने भी सोचा था कि विशेष निर्वाचक-मंडल से निर्वाचित अमेरिकी राष्ट्रपति निष्पक्ष, राष्ट्रीय और संघीय अधिकारी के रूप में काम करेगा, लेकिन आज वह एक पार्टी प्रत्याशी के रूप में चुना जाता है। वर्ष 1975 में आपातकाल के समय फखरूद्दीन अली अहमद को इंदिरा गांधी ने और 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद ज्ञानी जैल सिंह को राजीव गांधी ने जिस तरह प्रयोग किया उससे बढ़ कर पार्टी के लिए काम करने का क्या उदाहरण हो सकता है? इसलिए भाजपा द्वारा पार्टी सदस्य को राष्ट्रपति पद का प्रत्याशी बनाने में कुछ गलत नहीं। हम राष्ट्रपति चुनाव में राजनीतिक पूर्वाग्रह, जातिगत प्रतिबद्धताओं से ऊपर उठ कर संविधान के अनुसार संसदीय लोकतंत्र के चलने की कामना करें। वहीं दलित राष्ट्रपति बनाने से भाजपा को 2019 के लोकसभा चुनावों में दलितों का समर्थन मिल सकता है। इससे पीएम ने अपने जनाधार का विस्तार करने के साथ ही दलित समाज को गौरवान्वित किया है। उनके इस कदम से टीआरएस, वाइएसआर-कांग्रेस, शिवसेना, बीजद, जदयू, तेलुगू देशम पार्टी, अन्नाद्रमुक आदि द्वारा राजग प्रत्याशी को समर्थन देने से राष्ट्रपति चुनावों की गरिमा बढ़ी है।

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