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महबूबा मुफ्ती के बेलगाम बोल

जम्मू कश्मीर की मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती का एक फलसफिया बयान है कि ‘आप किसी विचार को कैद नहीं कर सकते। आप किसी विचार को मार नहीं सकते।’ इसका अहसास उन्हें शायद तब हुआ जब राष्ट्रीय जांच एजेंसी यानी एनआइए हुर्रियत के सात लोगों को गिरफ्तार कर दिल्ली ले आई और सुरक्षा बलों के साथ मुठभेड़ में आतंकी मारे जाने का सिलसिला तेज हो गया। एनआइए की कार्रवाई से ठीक एक दिन पहले 28 जुलाई को नई दिल्ली की एक संगोष्ठी में उन्होंने चेतावनी भरे लहजे में कहा था, ‘अगर संविधान के अनुच्छेद 370 और 35-ए से छेड़छाड़ की गई तो कश्मीर में तिरंगा उठाने वाला कोई नहीं मिलेगा।’ गौरतलब है कि इससे पहले 17 जुलाई को सुप्रीम कोर्ट ने अनुच्छेद 35-ए को लेकर दायर याचिका पर सुनवाई के लिए विशेष पीठ का गठन किया था। नए राष्ट्रपति के शपथ ग्र्रहण समारोह में शिरकत के तुरंत बाद महबूबा ने अपने उक्त विचार रखे। आखिर ऐसा क्या है कि महबूबा कुछ भी बयान देने के बावजूद अपने पद पर काबिज हैं? सवाल यह भी है कि उनकी सत्ता में टेक बनी भाजपा की कौन सी मजबूरी है कि वह उन्हें ढोए चले जा रही है? भले ही महबूबा के शिगूफे नए हों, लेकिन ऐसे तुर्रे छेड़ने की उनकी आदत खासी पुरानी है। इसी साल 17 मार्च को महबूबा ने कहा था कि राज्य के कुछ हिस्सों से अफस्पा कानून को हटा देना चाहिए। उन्होंने यह बयान तब दिया था जब सुरक्षा बलों की आतंकियों से मुठभेड़ आम हो चली थी। इन मुठभेड़ों के दौरान सुरक्षा बलों पर पत्थरबाज छोड़ दिए जाते थे। 

महबूबा विदेश नीति में भी खासी दिलचस्पी दिखा रही हैं। 18 मार्च को मुंबई में मोदी सरकार को एक बिन मांगी सलाह देते हुए उन्होंने कहा था कि भारत को चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे यानी सीपीईसी से जुड़ जाना चाहिए, क्योंकि इससे कश्मीर का मध्य एशिया के साथ जुड़ाव काफी फायदेमंद साबित होगा। उन्होंने ऐसा कहने से पहले इस परियोजना के विरोध में भारत सरकार की उस घोषित नीति का भी लिहाज नहीं किया कि जिसके तहत उसे गुलाम कश्मीर में चीन के दखल को औपचारिक और स्थाई बताते हुए खारिज किया गया है। मुख्य विपक्षी-दल कांग्रेस तो छोड़िए, अमूमन चीन की ओर झुकाव रखने वाले वामपंथी भी ऐसा कहने का दुस्साहस नहीं करते, लेकिन भाजपा के समर्थन से सरकार चला रहीं महबूबा आए दिन उसे मुंह चिढ़ाते हुए लक्ष्मण रेखा लांघ रही हैं और भाजपाई मजबूरन धृतराष्ट्रवादी बनने को मजबूर हैं। अगर भाजपा की विवशता को समझना है तो उस समझौते को देखना होगा जिसके आधार पर दोनों दलों का गठजोड़ टिका है। जिन शर्तों पर यह सरकार बनी है उससे यही लगता है कि भाजपा ने पीडीपी के समक्ष समर्पण कर दिया है। समझौते की एक शर्त यह है कि भारतीय संविधान में जम्मू-कश्मीर को विशेष राज्य के दर्जे सहित सभी कानूनों को यथावत रखा जाएगा। तीन साल तक सुप्रीम कोर्ट में जवाब टालते हुए केंद्र सरकार ने अनुच्छेद 35-ए पर अपना पक्ष रखने से यह कहते हुए इन्कार कर दिया कि ‘यह अति संवेदनशील मामला है।’ दूसरी ओर महबूबा 35-ए को लेकर बेचैन दिख रही हैं। इस मामले में उन्होंने फारूख अब्दुल्ला से भी मुलाकात कर डाली है। गठबंधन की शर्तों में यह भी शामिल है कि केंद्र सरकार कश्मीर में हालात की पुन: समीक्षा कर उसे अपीड़ित क्षेत्र घोषित कर अफस्पा की आवश्यकता पर पुनर्विचार करे। ‘राजनीतिक पहल’ के तहत पाकिस्तान से बातचीत शुरू करना और रिश्ते सुधारने की भी बात है। लगता है कि यही वजह रही कि भारत ने पाकिस्तान के साथ अपनी ओर से जो वार्ता बंद की उसी को प्रधानमंत्री ने अपमान का घूंट पीकर 23 फरवरी, 2015 को स्वयं शुरू किया। 

आज कोई और नहीं, बल्कि महबूबा ही पाकिस्तान से बातचीत शुरू करने के लिए लगातार दबाव बना रही हैं। विदेश नीति के मोर्चे पर शायद ही किसी मुख्यमंत्री ने सरकार की इतनी फजीहत की हो, जितनी महबूबा करती आ रही हैं। बहरहाल इसके लिए महबूबा और उनकी पार्टी पीडीपी की पृष्ठभूमि को समझना बेहद जरूरी है। महबूबा के पिता और पार्टी के संस्थापक मुफ्ती मोहम्मद सईद खानदानी मुफ्ती यानी ‘मजहबी कानून’ के ज्ञाता थे। उन्होंने कांग्र्रेस के साथ अपने सियासी सफर का आगाज किया। फिर नेशनल कांफ्रेंस की लोकप्रियता का मुकाबला करने के लिए उन्हें जमात-ए-इस्लामी के नेतृत्व और संगठन की शरण में जाना पड़ा। वहीं अलगाववाद के झंडाबरदार और हुर्रियत के सरगना सैयद अली शाह गिलानी के साथ उनके रिश्तों की बुनियाद पड़ी। कांग्र्रेस की राजनीति करते हुए भी उनकी जहनियत पर इस्लाम का ही ज्यादा असर रहा। स्मरण रहे कि 1990 के विस्थापन से पहले घाटी के हिंदू समुदाय ने 1986 में अनंतनाग के दंगों की विभीषिका झेली थी। उसमें हिंदुओं का बड़े पैमाने पर जान-माल का नुकसान हुआ था। 40 से अधिक मंदिरों को लूटखसोट कर आग के हवाले कर दिया गया था। मुफ्ती के गृहनगर का यह तांडव उनकी शह पर ही हुआ था। 

राज्य विधानसभा चुनाव के बाद महबूबा दिल्ली में थीं। एक मीडिया संस्थान के कार्यक्रम में उनसे जब पूछा गया कि चुनाव नतीजे 23 दिसंबर को ही आ गए तो नई सरकार के शपथ ग्र्रहण में एक मार्च तक की देरी क्यों हो गई? तब महबूबा के मुंह से अनायास ही निकल आया कि हुर्रियत को मनाने में हफ्तों निकल गए। इससे जाहिर होता है कि उनके पिता ने शपथ लेते ही सबसे पहले हुर्रियत और पाकिस्तान को धन्यवाद क्यों दिया और वह भी प्रधानमंत्री मोदी की मौजूदगी में। यह भी समझ आता है कि गठबंधन की शर्तों में पाकिस्तान के साथ बातचीत की शर्तों पर इतना जोर क्यों है और इस पर भाजपा ने घुटने क्यों टेके? यह वही महबूबा हैं जिन्होंने 2008 में कांग्रेस के साथ अपनी ही गठबंधन सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल दिया था। तब उन्हें श्रीअमरनाथ श्राइन बोर्ड को दी गई जमीन पर कड़ा एतराज था। जमीन 16 हजार फीट ऊंचाई पर यात्रियों के प्राथमिक उपचार और दूसरी बुनियादी सुविधाओं के लिए आवंटित की गई थी जिनके अभाव में कई वर्षों से तीर्थयात्रियों की मौत हो रही थी। विरोध के पीछे उनकी दलील थी कि यह कश्मीर का जनसंख्या अनुपात बदलने की साजिश है, जबकि इतनी ऊंचाई पर आम इंसानी बसावट कोई आसान बात नहीं है। 

यह भूमि भी अस्थाई निर्माण के लिए थी। जब राज्यपाल ने असहमति जताई तो राज्यपाल को ही बदल दिया गया और आवंटन रद कराया गया। वर्ष 2003 में अटल बिहारी वाजपेयी के एक कार्यक्रम में तत्कालीन रॉ प्रमुख एएस दुलत ने मंच पर महबूबा को जगह भी नहीं दी थी। इसके पीछे वजह यही बताई गई कि भारतीय गुप्तचर एजेंसियों ने महबूबा की हिजबुल कमांडरों से नजदीकियां ताड़ ली थीं। अब उन्हीं महबूबा को यह मुगालता हो गया है कि कश्मीर में तिरंगा उनके हाथों का मोहताज बन गया है। अच्छा होगा कि भाजपा उनसे यह कहती रहे कि कश्मीर में तिरंगा उनसे पहले भी और उनके बाद भी बदस्तूर लहराता रहेगा।

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