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भीड़ के हाथों पिटता कानून

27_06_2017-rajeevsachanअफवाह और उन्माद से ग्रस्त भीड़ ने एक बार फिर अपना कहर ढाया। इस बार उसने पश्चिम बंगाल के उत्तरी दिनाजपुर जिले के एक गांव में अपना वीभत्स रूप दिखाया। इस गांव में रात के अंधेरे में आएं तीन संदिग्ध लोगों को मवेशी चोर समझकर मार डाला गया। तृणमूल कांग्रेस के स्थानीय विधायक हमीदुल रहमान की मानें तो ये तीनों मवेशी चोर ही थे। उनके मुताबिक इस इलाके में पिछले कुछ माह में गाय चोरी की सात घटनाएं घट चुकी हैं, लेकिन पुलिस ने उनका संज्ञान नहीं लिया इसलिए लोग गुस्से में थे। पता नहीं ये तीनों किस मकसद से गांव में आए थे, लेकिन यदि यह मान भी लिया जाए कि उनका इरादा नेक नहीं था तो भी भीड़ की ऐसी हिंसा का कोई औचित्य नहीं। भीड़ को इस तरह ‘न्याय’ करने की इजाजत नहीं दी जा सकती। ऐसी हिंसा कानून एवं व्यवस्था का उपहास उड़ाने के साथ ही कबीलाई तौर-तरीकों की याद दिलाती है।

दुर्भाग्य से इस तरह की घटनाएं रह-रहकर घट रही हैं। पिछले हफ्ते ही श्रीनगर में जामिया मस्जिद के बाहर जम्मू-कश्मीर पुलिस के डीएसपी मोहम्मद अयूब पंडित की हत्या भी भीड़ के उन्माद का नतीजा थी। भीड़ ने उनके साथ इसलिए बर्बर बर्ताव किया, क्योंकि उसकी नजर में वह कश्मीरी पंडित के रूप में एक मुखबिर थे। उनके परिचय पत्र पर एएम पंडित लिखा था। भीड़ ने समझा कि वह कश्मीरी मुस्लिम पंडित नहीं, बल्कि कश्मीरी हिंदू पंडित हैं। इस ‘समझ’ ने भीड़ को और अधिक उन्माद से भर दिया। इसके पहले झारखंड में बच्चा चोर मानकर सात लोगों की पीट-पीटकर हत्या कर दी गई थी। झारखंड के जिस इलाके में यह भयावह घटना घटी वहां बच्चों की चोरी आम बात है। स्थिति यह है कि लोग कथित बच्चा चोरों से बचने के लिए रात-रात भर पहरा देते हैं।

ऐसे माहौल के बावजूद इसका कोई औचित्य नहीं कि भीड़ खुद ही फैसला करे और सजा दे। चूंकि झारखंड में मारे गए लोगों में हिंदू और मुस्लिम, दोनों थे इसलिए घटना को सांप्रदायिक रंग देने की कोशिश सफल नहीं हो सकी, लेकिन बीते सप्ताह हरियाणा के बल्लभगढ़ में घटी घटना को ऐसा ही रंग दिया जा रहा है। इस घटना में ट्रेन में सीट को लेकर हुए झगड़े में जुनैद नामक युवक की हत्या कर दी गई। यदि यह मान भी लिया जाए कि ट्रेन में सीट को लेकर शुरू हुए झगड़े में ही जुनैद की जान गई तो भी घटना की गंभीरता कम नहीं होती। वैसे भी हमलावर जुनैद की धार्मिक पहचान से अवगत थे।

हालांकि भीड़ या समूह विशेष की उग्रता और उन्माद के कारण होने वाली घटनाएं नई नहीं हैं, लेकिन सोशल मीडिया के प्रभाव के चलते अब हर ऐसी घटना की कहीं ज्यादा चर्चा हो रही है। कई बार उनकी चर्चा अंतरराष्ट्रीय मीडिया में भी होती है और जब ऐसा होता है तो देश की बदनामी होती है। इस पर गौर करें कि ऐसी घटनाओं पर सबसे ज्यादा शोर कौन मचा रहे हैं? ये मुख्यत: वामपंथी नेता हैं जो पहले पश्चिम बंगाल और फिर केरल में अपने राजनीतिक विरोधियों को शुत्र करार देकर खत्म करने का अभियान चलाते रहे हैं। केरल में ऐसा अभियान आज भी जारी है। इस राज्य में करीब-करीब हर सप्ताह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ या भाजपा का कोई न कोई नेता अथवा कार्यकर्ता वामपंथी गुटों की हिंसा का शिकार होता रहता है। इस हिंसा पर वामपंथी दलों के नेता मौन रहना ही बेहतर समझते हैं। वामदलों के गुट केरल में जैसी हिंसा में लिप्त हैं वह एक तरह से वैसी ही हिंसा है जैसी नक्सली संगठन अपने विरोधियों के खिलाफ अंजाम देते रहते हैं। वे जिस-तिस को पुलिस-प्रशासन का मुखबिर बताकर निर्मम तरीके से मारते रहते हैं।

विडंबना देखिए कि अरुंधती राय जैसी लेखिका ऐसे बर्बर नक्सलियों को बंदूकधारी गांधी बताती हैं और फिर भी दुनिया भर में बुद्धिजीवी के तौर पर नाम कमाती हैं। यह सही है कि कानून एवं व्यवस्था राज्यों का विषय है, लेकिन केंद्र सरकार इसकी अनदेखी नहीं कर सकती और न ही उसे करनी चाहिए कि हर ऐसी घटना का दोष उस पर मढ़ने की कोशिश होती है-उन घटनाओं को लेकर खासतौर पर जो भाजपा शासित राज्यों में घटती हैं और जिनमें गाय या गोमांस के बहाने किसी को मारा-पीटा जाता है। कानून एवं व्यवस्था राज्यों का मसला होते हुए भी केंद्र सरकार को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि राज्य सरकारें कानून हाथ में लेने और कथित दोषियों को सजा देने वाले बेलगाम तत्वों के उत्पात पर सख्ती के साथ अंकुश लगाएं। अंकुश के इस दायरे में बेलगाम गौरक्षक भी आने चाहिए। यह सही है कि पिछले साल जुलाई-अगस्त में प्रधानमंत्री ने फर्जी गौरक्षकों के प्रति अपनी सख्त नाराजगी प्रकट की थी, लेकिन जब हाल की घटनाओं पर उनके मौन को लेकर उनकी घेरेबंदी हो रही है तो फिर यह जरूरी हो जाता है कि वह नए सिरे से अपनी नाराजगी प्रकट करें। जो उत्पाती गौरक्षक मोदी सरकार की छवि को नुकसान पहुंचा रहे हैं उन्हें लेकर उसे सतर्क रहना भी चाहिए और दिखना भी चाहिए।

कानून हाथ में लेने वाले गौरक्षक इस आधार पर बेलगाम नहीं बने रह सकते कि गायों की तस्करी अथवा गोवध पर लगाम नहीं लग रहा है। सभ्य समाज में कानून के खिलाफ काम कर रहे लोगों से निपटने का यह कोई तरीका नहीं कि खुद भी कानून हाथ में ले लिया जाए। लोकतंत्र की प्रतिष्ठा जिन कई कारणों से बढ़ती है उनमें सबसे प्रमुख यही है कि देश विशेष में कानून के शासन की क्या स्थिति है?

मोदी सरकार और भाजपा शासित राज्य सरकारें इसकी अनदेखी नहीं कर सकतीं कि इन दिनों विपक्ष के पास उनके खिलाफ यदि कोई मसला है तो वह यही कि उसके नेता बेलगाम गौरक्षकों के उत्पात को रोकने के लिए तत्पर नहीं नजर आते। भाजपा नेता केवल यह कहकर कर्तव्य की इतिश्री नहीं कर सकते कि वे किसी भी तरह की हिंसा का समर्थन नहीं करते। इससे इन्कार नहीं कि गोवध अथवा गायों की तस्करी के कारण हिंसक और सांप्रदायिक घटनाएं पहले भी होती रही हैं, लेकिन आखिर कब तक ऐसी घटनाओं को अपवाद के तौर पर देखा जाता रहेगा? ऐसी घटनाओं की अनदेखी कानून के शासन के समक्ष सवाल खड़ी करने वाली है। कोई किसी भी कारण कानून अपने हाथ में ले उसके खिलाफ सख्ती ही कानून के शासन की रक्षा कर सकेगा। बेहतर हो कि मोदी सरकार इसके बावजूद देश में कानून एवं व्यवस्था की हालत को अपने एजेंडे पर ले कि यह राज्यों का विषय है। अच्छा होगा कि वह पुलिस सुधार की सुधि ले।

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