अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने एक जून को एलान किया कि अमेरिका पेरिस जलवायु परिवर्तन से हट रहा है। अपने चुनाव अभियान में भी उन्होंने इस समझौते को अमेरिकी उद्योगों के लिए बेहद नुकसानदेह बताते हुए वादा किया था कि अगर वह राष्ट्रपति बने तो इसे खारिज कर देंगे। दुनियाभर के नेताओं और खुद अमेरिका के राजनीतिक एवं कारोबारी वर्ग के प्रभावशाली वर्गों की अपील को दरकिनार करते हुए ट्रंप ने अपने चुनावी वादे को पूरा कर दिखाया। ऐसा करके उन्होंने यही संकेत दिया कि वह जलवायु परिवर्तन को मानवता के लिए बड़ा खतरा नहीं मानते।
ट्रंप का फैसला वैज्ञानिकों की उस चेतावनी की अनदेखी है जिसके अनुसार हानिकारक ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन से जलवायु परिवर्तन हो रहा है और उससे वातावरण में गर्मी बढ़ रही है। आज लगभग हर कोई इस सच से वाकिफ है कि अगर ग्लोबल वार्मिंग पर अंकुश नहीं लगा तो समस्त मानव जाति पर उसके खतरनाक प्रभाव होंगे। पेरिस समझौते से पल्ला झाड़ते हुए ट्रंप ने भारत और चीन के रूप में सिर्फ दो ही देशों को निशाना बनाया। उन्होंने कहा कि जलवायु परिवर्तन से जुड़े उपाय करने के लिए भारत ने मदद के तौर पर अरबों डॉलर मांगे। उनकी यह राय अनुचित है। उन्हें इससे भी शिकायत है कि जहां भारत को अपना कोयला उत्पादन दोगुना करने की छूट है वहीं अमेरिका को कोयले का उत्पादन बंद करना पड़ेगा। भारत को लेकर अंतरराष्ट्रीय बिरादरी ने ये फैसले अंतरराष्ट्रीय समझौतों को ध्यान में रखकर लिए थे, लेकिन ट्रंप ने इसकी पूरी तरह अनदेखी की।
वैश्विक बिरादरी ने जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए जिस राह का चयन किया ट्रंप उससे भटक रहे हैं। हालांकि यह भी सच है कि जलवायु परिवर्तन रोकने के लिए विकसित देश अपने वादों को पूरा करने में नाकाम रहे हैं। ऐसे में ट्रंप का फैसला इस मोर्चे पर प्रगति की बची-खुची उम्मीदों पर पानी फेर देगा। पिछली शताब्दी के अंतिम दशक तक यह स्पष्ट हो गया था कि उद्योगीकरण की वजह से ग्र्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में वृद्धि हुई है जिसकी वजह से ग्लोबल वार्मिंग का खतरा उत्पन्न हुआ है। इसकी परिणति जलवायु परिवर्तन के रूप में हुई है। विकसित देशों में से अधिकांश का औपनिवेशिक अतीत रहा है और उन्होंने अपने उपनिवेशों का जमकर दोहन किया है। ऐसे में उन्हें ही ग्लोबल वार्मिंग की जिम्मेदारी लेनी चाहिए थी। यही देश विज्ञान और प्रौद्योगिकी में भी अगुआ हैं और उनके पास ही सबसे ज्यादा वित्तीय संसाधन भी हैं जिनके माध्यम से वे अपने उद्योगों में ऐसे बदलाव लाने में सक्षम हैं जिनसे ग्र्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन कम हो और परिणामस्वरूप वैश्विक तापमान में कमी आ सके।
विकासशील देशों के लिए विकास का रास्ता व्यापक उद्योगीकरण और कृषि में उन्नत तकनीक के उपयोग से ही होकर जाता है। विकासशील देशों की ऐसी गतिविधियां निश्चित रूप से ग्र्रीन हाउस गैस उत्सर्जन का कारण बनेंगी। विकसित देशों ने इस हकीकत को स्वीकारा कि विकासशील देशों के लोग कभी यह नहीं चाहेंगे कि वे हमेशा यूं ही गरीब बने रहें। ऐसे में ग्र्रीन हाउस गैसों के मामले को प्रति व्यक्ति उत्सर्जन के पैमाने से देखना होगा। इसमें कोई संदेह नहीं कि विकसित देशों की जीवनशैली को देखते हुए वहां प्रति व्यक्ति उत्सर्जन गरीब देश के किसी भी नागरिक के मुकाबले कहीं ज्यादा है। इन सभी पहलुओं को ध्यान में रखते हुए अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने इसी सिद्धांत पर सहमति जताई कि प्रत्येक देश को अपनी क्षमता के अनुसार ग्लोबल वार्मिंग कम करने के उपाय करने चाहिए। 1992 में ब्राजील के रियो डि जेनेरियो में पहली बार संयुक्त राष्ट्र की पहल पर वैश्विक सम्मेलन आयोजित हुआ। उसके बाद से अभी तक हुए ऐसे सभी सम्मेलनों का मकसद पर्यावरण बचाने के उपाय तलाशना ही रहा। रियो केपांच साल बाद जापान के क्योटो में अमेरिका सहित सभी विकसित देशों ने 15 वर्षों की अवधि में ग्र्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी लाने के लक्ष्य पर सहमति जताई, लेकिन बाद में अमेरिका वादे से मुकर गया। इस तरह देखा जाए तो जलवायु परिवर्तन समझौते से पलटने वाले ट्रंप पहले अमेरिकी राष्ट्रपति नहीं हैं। तमाम बड़ी-बड़ी बातों के बावजूद विकसित देश ग्लोबल वार्मिंग रोकने के लिए क्योटो प्रोटोकॉल के लक्ष्यों को पूरा नहीं कर पाए हैं। किसी भी विकसित देश ने स्वच्छ ऊर्जा के लिए विकासशील देशों को वित्त एवं तकनीक मुहैया कराने की प्रतिबद्धता को भी पूरा नहीं किया है।
क्योटो प्रोटोकॉल की मियाद 2012 में खत्म हो गई। इसके बाद विकसित देशों ने तय किया कि 1992 में अंतरराष्ट्रीय जलवायु कार्यक्रम के जिन बुनियादी सिद्धांतों पर सहमति बनी थी उनके प्रभाव का दायरा कुछ कम किया जाना जाए। इसका अर्थ यही था कि वे ऐतिहासिक उत्तरदायित्व से पीछा छुड़ाकर जलवायु परिवर्तन में अपनी मुख्य जिम्मेदारी से किनारा करना चाह रहे थे। उनकी कोशिश थी कि सभी देशों को अपने स्तर पर ग्र्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी के लक्ष्य की कानूनी बाध्यता तय करनी चाहिए। चूंकि इससे विकसित और विकासशील देशों के बीच बुनियादी फर्क की रेखा ही मिट जाती इसलिए रियायत के तौर पर विकसित देश इस पर सहमत हुए कि वे विकासशील देशों को ज्यादा वित्तीय मदद देंगे और तकनीक का हस्तांतरण करेंगे। 2015 में हुए पेरिस समझौते का यही मर्म था। पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा इस समझौते के प्रमुख शिल्पकारों में से एक थे। भारत और अन्य विकासशील देशों को विकसित देशों का यह रवैया रास नहीं आया कि वे अपनी जिम्मेदारियों से मुंह चुराने के साथ ही अपना रवैया भी बदल रहे हैं। उन्हें यही महसूस हुआ कि विकसित देश जलवायु परिवर्तन के मसले को आर्थिक एवं राजनीतिक प्रभुत्व के चश्मे से ही देख रहे हैं। वैश्विक शक्ति के तौर पर चीन के उभार और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारत के बढ़ते रसूख ने विकसित देशों को चुनौती दी और जलवायु परिवर्तन पर उनकी स्थिति को प्रभावित किया। स्वाभाविक रूप से विकसित देशों ने भारत सहित तमाम विकासशील देशों में अभी भी मौजूद गरीब आबादी के एक बड़े तबके को नजरअंदाज किया। हालांकि भारत ने पेरिस समझौते की सफलता के लिए काफी कड़ी मेहनत की। उसे यह महसूस हुआ कि आने वाली पीढ़ियों की भलाई के लिए विकास और पर्यावरण के बीच संतुलन बनाना होगा।
यह अजीब है कि ट्रंप विकासशील देशों को मिली रियायतों पर नाखुश हैं और यह चाहते हैं कि अमेरिकी लोगों को पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाली अपनी जीवनशैली से समझौता न करना पड़े। उन्हें ऐसी गतिविधियों से भी गुरेज नहीं जिनसे ग्र्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन बढ़ेगा। वह किसी तरह का नियंत्रण नहीं चाहते और चीन के अलावा कुछ हद तक भारत को भी प्रतिद्वंद्वी देश के रूप में ही देखते हैं। वह यह भी सुनिश्चित करना चाहते हैं कि अमेरिका को विकासशील देशों को वित्तीय एवं तकनीकी मदद न मुहैया करानी पड़े। कुल मिलाकर ट्रंप ने दुनिया को खतरनाक दौर में पहुंचा दिया है और वह भी तब जब जलवायु परिवर्तन को लेकर व्यापक वैश्विक सहयोग की दरकार है। इस मुश्किल हालात से निपटने के लिए मोदी और दुनिया के अन्य नेताओं को बहुत समझदारी दिखानी होगी।