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बेड़ियां तोड़तीं मुस्लिम औरतें

10_04_2017-9naish_hasanमशहूर शायर फैज अहमद फैज ने अरसा पहले अपनी एक नज्म के जरिये औरतों को झकझोरने की कोशिश की थी। नज्म कुछ यूं है, ‘बोल कि लब आजाद हैं तेरे, बोल जुबां अब तक तेरी है।’ उनकी इस नज्म ने महिलाओं पर गहरा असर डाला। यह नज्म जगह-जगह गुनगुनाई जाने लगी और अब इसका असर भी दिखने लगा है। यूं तो औरतों पर बंदिशों की कमी नहीं, लेकिन मुस्लिम समुदाय में ये कुछ ज्यादा नजर आती हैं। बहरहाल औरतें अब बोलने लगी हैं। फैज आज जिंदा होते तो यकीनन बेहद खुश होते कि औरतों ने अपने हक में अपनी आवाज बुलंद करनी शुरू कर दी है। यह एक खुशनुमा सवेरे की दस्तक है।

देश ही नहीं दुनिया भर में मुसलमान औरतें बदल रही हैं और सही मायनों में अपनी मौजूदगी दर्ज करा रही हैं। हाल के वर्षों में औरतों ने कई झंडे गाड़े हैं जो किसी नजीर से कम नहीं। इनमें से एक नाम है इराक में यजीदी समुदाय की 15 साल की लड़की लाम्या का। नौवीं कक्षा की छात्रा लाम्या को वर्ष 2014 में आइएसआइएस ने बंधक बना लिया था। पांच मर्तबा उसकी खरीद-फरोख्त की गई। किसी तरह आतंकियों के चंगुल से निकलकर छूटी यह लड़की आज दुनिया भर में घूम-घूमकर अपनी दास्तान सुना रही है। वह उम्मीद जताती है कि एक दिन दुनिया आइएसआइएस नाम के नासूर से जरूर मुक्ति पा लेगी। पड़ोसी पाकिस्तान में पख्तून औरतें भी बगावत पर उतर आई हैं और वजीरिस्तान में उन्होंने खुद को ‘सेक्स स्लेव’ बनाए जाने का तगड़ा विरोध किया। फ्रांस की एक नेता मैरीन ली पेन को लेबनान यात्रा के दौरान सिर पर स्कार्फ पहनने के लिए कहा गया, लेकिन उन्होंने ऐसा करने से साफ मना कर दिया। अपने अधिकारों के लिए सऊदी अरब की महिलाओं का संघर्ष भी धीरे-धीरे रंग लाया। नतीजतन 2014 के स्थानीय निकाय चुनाव में उन्हें पहली बार मताधिकार हासिल हुआ। इतना ही नहीं उन्हें चुनाव में उम्मीदवार बनने का अधिकार भी मिला और पहली बार ही 200 महिलाएं चुनावी मैदान में उतर गईं।
मतदाता पंजीकरण कराने वाली पहली महिला सलमा अल रशादी ने कहा कि उन्हें बहुत अच्छा लग रहा है, बदलाव एक बड़ा शब्द है, लेकिन चुनाव ही एक मात्र जरिया है जिससे हमें वास्तव में प्रतिनिधित्व मिल सकेगा। 43 साल में पहली बार 20 वर्षीय शायमा अब्दुर्रहमान मिस इराक चुनी गईं। इस आयोजन के मुख्य द्वार पर एके 47 की चाकचौबंद पहरेदारी में ही सही, चार दशकों में पहली बार किसी ने जंग की नहीं, बल्कि जिंदगी की बात की। ईरान की एक लड़की मसीह अलीनेजाद ने फेसबुक पर हिजाब फ्री कैंपेन चलाया, ईरानी लड़कियों से बिना हिजाब वाली फोटो मंगाई और लाखों लड़कियों ने अपनी फोटो अपलोड कर दी। जबकि आज भी ईरान में बिना हिजाब निकलने पर गिरफ्तारी हो सकती है। ये मुसलमान औरतों के मुसलसल संघर्ष की मुकम्मल होती मिसालें हैं।
भारत में भी मुस्लिम महिलाएं पितृसत्तात्मक बेड़ियों को तोड़कर सफलता के नए प्रतिमान गढ़ रही हैं। हाजी अली दरगाह में अचानक महिलाओं का प्रवेश बंद कर दिया गया। मुस्लिम औरतों ने इस पर बहस-मुबाहिसा किया। उससे बात नहीं बनी तो उन्होंने अदालत का रुख किया। इस पर अदालत में उन्हें मिली जीत से धर्म के ठेकेदार मुंह ताकते रह गए। शाहबानो मामले से लेकर सायरा बानो मामले तक आते-आते मुस्लिम महिलाएं काफी बदल गईं। उन्होंने तीन तलाक के मुद्दे को भी अदालत में चुनौती दे डाली और किसी भी स्त्री विरोधी मजहबी व्याख्या को मानने से इन्कार कर दिया। हरियाणा में एक साधारण सी लड़की ने सिर्फ इस वजह से निकाह करने से इन्कार कर दिया, क्योंकि वर पक्ष के यहां शौचालय नहीं था।
उत्तर प्रदेश में नई सरकार बनने के साथ ही रोजाना बड़ी संख्या में आ रहे तीन तलाक के मामलों को लेकर महिलाएं मुख्यमंत्री से मुलाकात कर रही हैं। महिलाएं बाकायदा प्रतिनिधिमंडल गठित कर महिला कल्याण मंत्री डॉ. रीता बहुगुणा जोशी के पास चली जाती हैं और उनसे पूछती हैं कि आप की पार्टी के चुनावी संकल्प पत्र में तीन तलाक का मसला भी था तो इस पर अब आप क्या कर रही हैं? यह सच है कि भारत के इतिहास में पहली बार किसी राजनीतिक दल के चुनावी घोषणा पत्र में मुस्लिम महिलाओं की पीड़ा का पर्याय बने तीन तलाक के मसले को शामिल किया गया है। इसलिए अब जवाबदेही भी सरकार की बनती है। महिलाएं बहुत उत्साह में हैं, आशान्वित हैं विशेषकर पीड़ित महिलाएं बार-बार सवाल कर रही हैं।
मुस्लिम महिलाओं से जुड़े मुद्दे पिछले सत्तर सालों के इतिहास में हमेशा हाशिये पर ही रहे। अल्पसंख्यक अधिकारों के नाम पर मुसलमान मर्द अपने लिए तो सब कुछ लेना चाहते हैं, लेकिन औरतों को वे अपनी मर्जी के मुताबिक ही देना चाहते हैं। कौम की आधी आबादी को तवज्जो ही नहीं मिली। उसे अनसुना किया गया। उसी कौम के तथाकथित रहनुमाओं ने उसकी लगातार अनदेखी की। उनकी बदजुबानी और मजहबी जकड़बंदी ने भी औरत को पीछे धकेल दिया। स्वयंभू उलमाओं ने खुद की गढ़ी किताबों के जरिये उसकी भूमिका को सीमित करने का काम किया। पितृसत्ता इतना डरती है औरत से! ये देख कर हैरानी होती है। बाबा साहेब आंबेडकर ने एक बार कहा था-गुलाम को गुलामी का अहसास करा दो तो वह विद्रोह कर गुलामी की बेड़ियां तोड़ देगा। सदियों की गुलाम मुसलमान औरतों को गुलामी का अहसास हो गया है और अब वे विद्रोह पर उतारू होकर आजाद हवा में सांस लेने पर आमादा हैं। किसी राजनीतिक दल ने मुसलमान औरत का वर्ग तैयार नहीं किया। यह तबका खुद अपनी परेशानियों से आजिज आकर खड़ा हुआ है। उसे लगातार अनसुना करते रहे, बेड़ियों में जकड़े रहे, मजहबी खौफ से डराते रहे, जन्नत जाने के लिए उसे जमीनी खुदा शौहर की खिदमत करने का सबक देते रहे। इससे औरतों का दम घुटता ही रहा और आखिरकार वह दिन आ ही गया जब वे बिना जंजीरों वाले कैदखाने से खुद ही निकल भागने में कामयाब हो गईं।
अब उसे स्त्री विरोधी गढ़ी हुई मजहबी किताबों से डराया नहीं जा कसता। उन्हें तीन तलाक की मनमानी व्याख्या भी कतई नामंजूर है। औरतें सवाल उठा रही हैं। पूछ रही हैं कि इसी देश की धरती पर हिंदू धर्म में प्रचलित ‘सती’ जैसी कुप्रथा को तिलांजलि दी गई। वे यह सवाल भी कर रही हैं कि हिंदू धर्म में तलाक नहीं है, फिर भी धर्म को किनारे रखकर इसी देश ने 1955 मे हिंदू स्त्री को तलाक का हक कैसे दिया? अगर ये मुमकिन है तो फिर उसी देश में मुस्लिम मजहबी किताबों को किनारे रखकर मुस्लिम स्त्री को जुबानी तीन तलाक से निजात मिलना क्यों मुमकिन नहीं है? मुस्लिम औरतों के इस जायज सवाल का जवाब भारत सरकार को देना ही होगा। उम्मीद से टकटकी लगाए औरतें सरकार की ओर ताक रही हैं कि जिस तरह उत्तर प्रदेश की भाजपा सरकार ने अपने संकल्प पत्र में किए अन्य वादों के प्रति दृढ़ता दिखाई़ है उसी तरह तीन तलाक के मामले में भी जल्द ही जरूरी कदम उठाए जाएंगे।

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