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बदसलूकी का विशेषाधिकार

31_03_2017-30surya_prakashएयर इंडिया के एक वरिष्ठ अधिकारी के साथ शिवसेना सांसद रवींद्र गायकवाड़ का दुर्व्यवहार और उसके बाद टेलीविजन चैनलों पर 25 बार चप्पल मारने की शर्मनाक स्वीकारोक्ति ने समूचे देश के अंतर्मन को झकझोर कर रख दिया। इस मसले पर ज्यादातर सांसदों की चुप्पी और गायकवाड़ के खिलाफ बोलने की अनिच्छा भी चिंतित करने वाली है। इससे भी चिंता की बात यह है कि गायकवाड़ के समर्थक सामने आने लगे हैं। शिवेसना के कई अन्य सांसदों ने उनके पक्ष में बोलना शुरु कर दिया है। इस वाकये ने ‘अनुशासनहीन सांसदों को अनुशासित करने और उनके लिए आचार संहिता बनाने में संसद की अनिच्छा’ के मुख्य मुद्दे को फिर से केंद्र में ला दिया है। 1951 में अस्थाई संसद में मुदगल मामले की जांच से जुड़ी समिति के एक सदस्य ने सांसदों के लिए आचार संहिता तैयार की थी। फिर 1993 में लोकसभा अध्यक्ष शिवराज पाटिल के प्रयासों से संसद के दोनों सदनों में आचार समितियों की स्थापना के रूप में नई कोशिश की गई, मगर सांसदों के व्यवहार की निगरानी की दिशा में कुछ खास नहीं हुआ।

हमारे सांसद जहां अपने विशेषाधिकारों को लेकर खासे आग्रही हैं वहीं संसद आचार संहिता को लागू कराने और दुर्व्यवहार पर दंडित करने में नाकाम है। अगर अतीत में ऐसी बदसलूकी से सख्ती से निपटा गया होता तो गायकवाड़ प्रकरण घटित ही नहीं होता। हमारे सांसदों को भारतीय रेल के वातानुकूलित यानी एसी प्रथम श्रेणी में मुफ्त सफर करने की सहूलियत हासिल है। देश में यात्रा के लिए उन्हें मुफ्त 32 हवाई टिकट भी मिलते हैं। इसके अलावा संसद सत्र के दौरान अपने संसदीय क्षेत्र से हवाई यात्रा की सुविधा भी उन्हें निशुल्क प्राप्त है, फिर भी तमाम ऐसे मामले देखने को मिलते हैं जहां सांसदों के परिवार बेटिकट यात्रा करते हुए पकड़े जाते हैं। ऐसे वाकये भी देखने को मिले हैं जहां सांसदों और उनके समर्थकों ने अपने टिकट पर सफर करने वाले मुसाफिरों को तब बुरी तरह धमकाया जब वे उनकी आरक्षित सीट पर जबरन कब्जा करने पर आमादा हो गए। ये मामले असामान्य नहीं हैं,लेकिन हमने कभी नहीं सुना कि अपने विशेषाधिकारों का इस तरह बेजा इस्तेमाल कर दुर्व्यवहार करने वाले सांसदों को कभी सजा भी मिली हो।
एक पुरानी मिसाल देखें, जो दर्शाती है कि सांसद किस तरह बर्ताव करते हैं और उनकी बदसुलूकी पर संसद किस प्रकार प्रतिक्रिया देती है। 28 फरवरी, 1992 का वाकया है। एक आइएएस अधिकारी सपरिवार नई दिल्ली-कलकत्ता राजधानी एक्सप्रेस के एसी प्रथम श्रेणी डिब्बे में यात्रा कर रहे थे। गोमोह और धनबाद स्टेशनों से बिहार के दो सांसद रेलगाड़ी में दाखिल हुए। पहले सांसद अपने तीन साथियों के साथ गोमोह स्टेशन पर चढ़े। उनमें से दो उनके अंगरक्षक थे और एक अन्य वर्दीधारी सुरक्षाकर्मी। सांसद ने असल यात्री से अपनी आरक्षित सीट खाली करने के लिए कहा। जब यात्री ने ऐसा करने से इन्कार किया तो सांसद के अंगरक्षकों ने उनकी बुरी तरह से पिटाई की और रिवॉल्वर तानकर गोली से उड़ाने की धमकी दी। उस मुसाफिर और उनके परिवार की प्रताड़ना वहीं खत्म नहीं हुई। धनबाद स्टेशन से एक और सांसद ट्रेन में सवार हुए। उनके दस हथियारबंद समर्थकों ने उस मुसाफिर को धमकाया। यहां तक कि उन्हें बाहर फेंकने तक की कोशिश की। मीडिया में इस मामले की खूब चर्चा हुई, लेकिन उन दबंग सांसदों पर संसद ने कोई दंडात्मक कार्रवाई नहीं की।
हमारे जनप्रतिनिधियों के खिलाफ शिकायतों का अंबार लगातार बढ़ता ही जा रहा है। सांसदों-विधायकों के खराब बर्ताव की एक बड़ी वजह ‘विशेषाधिकारों’ को लेकर गलत समझ और अपनी अहमियत कुछ ज्यादा ही समझना है। संसद के दोनों सदनों और विधानसभाओं में पीठासीन अधिकारियों को जनप्रतिनिधियों को उनके विशेषाधिकारों का अर्थ समझाना चाहिए और यह भी बताना चाहिए कि ये विशेषाधिकार क्यों प्रदान किए गए हैं। संसदीय प्रक्रिया और नियमों की बुनियादी विषयवस्तु के लेखक एमएन कौल और एसएल शकधर ने इस मसले को बेहद सारगर्भित तरीके से समझाया है।

उनके हिसाब से विशेषाधिकारों का मकसद संसद की स्वतंत्रता, शक्ति और गरिमा की रक्षा करना है। विशेषाधिकार का आशय संसद के दोनों सदनों की समितियों और उसके सदस्यों को मिली छूट और अधिकारों से है। सांसदों और विधायकों को विशेषाधिकार इसलिए दिए गए हैं ताकि वे बिना किसी दबाव या व्यवधान के अपने दायित्वों का उचित रूप से निर्वहन कर सकें। इसका अर्थ यह नहीं कि उन्हें आपराधिक व्यवहार करने का अधिकार मिल जाता है या फिर वे ट्रेन और विमान में मुसाफिरों को डरा-धमका सकें। अतीत में ऐसे सांसदों के प्रति संसद खासी नरम रही है और इससे ही हालात बिगड़े हैं। एक और प्रसंग अगस्त, 2010 का है। सांसद जसवंत सिंह विश्नोई दिल्ली से जोधपुर के बीच सफर कर रहे थे, लेकिन उनका एसी प्रथम श्रेणी के टिकट का दर्जा घटाकर एसी द्वितीय श्रेणी का कर दिया गया और उनका टिकट उच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश को आरक्षित कर दिया गया जो वरीयता क्रम में उनसे ऊपर थे। इस पर सांसद ने इतना हंगामा मचाया कि लोकसभा की विशेषाधिकार समिति ने समूचे रेलवे बोर्ड को तलब कर लिया और सांसद के व्यवहार के पक्ष में 75 पन्नों की एक रिपोर्ट जमा कराई। इसी तरह दिसंबर, 2011 में उत्तर प्रदेश और बिहार के 18 सांसदों ने रेलवे में खराब खिदमत की शिकायत रेल मंत्री से की, क्योंकि पटना-दिल्ली राजधानी एक्सप्रेस में उनका एसी प्रथम श्रेणी का टिकट एसी द्वितीय श्रेणी में कर दिया गया था।
कई बार सांसद अपनी मर्जी के मुताबिक ट्रेन में सवार हो जाते हैं और उम्मीद करते हैं कि वैध यात्री उनके लिए अपनी जगह खाली कर चलते बनें। उक्त मामले में रेलवे अधिकारियों ने बताया कि प्रथम श्रेणी की 22 सीटों में केवल छह सीटें ही खाली थीं जिन्हें सांसदों को दिया गया। शेष को द्वितीय श्रेणी एसी में भेजा गया, लेकिन हमारे सांसदों को यह अपनी तौहीन लगी। बेबस रेलमंत्री ने संसद में इन सांसदों से माफी मांगी और रेलवे के एक वरिष्ठ अधिकारी का तबादला कर दिया। 1992 की उस घटना और सांसदों के निंदनीय व्यवहार पर वरिष्ठ पत्रकार निखिल चक्रवर्ती ने कुछ तीखे सवाल किए थे। उन्होंने लिखा था कि दुर्व्यवहार करने वाले जनप्रतिनिधियों के खिलाफ उनकी पार्टी के अलावा लोकसभा अध्यक्ष ने क्या कार्रवाई की जबकि वह उनकी करतूत से वाकिफ हैं कि सांसदों ने कैसे नागरिकों को कैसे आतंकित किया? इसके आधार पर तो इस सम्मानित सदन से उनका निलंबन हो जाना चाहिए। जब तक उचित सजा नहीं दी जाएगी तब तक कलंकित करने वाले ऐसे वाकये संस्थान की प्रतिष्ठा को धूमिल करते रहेंगे और अंतत: वह अपना ओहदा गंवा देगा। अगर 25 साल पहले संसद ने सांसदों के विशेषाधिकारों की तुलना में उन्हें चुनने वाली जनता के अधिकारों पर गौर किया होता तो आज गायकवाड़ जैसे प्रकरण देखने को नहीं मिलते। तब बिहार के सांसदों ने संसद की गरिमा को तार-तार किया था। अब गायकवाड़ ने भी वही किया। आखिर संसद कब तक अपने सदस्यों को अनुशासित करने को लेकर बेपरवाह बनी रहेगी?

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