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नीति और नियामक बदलेंगे नियति

दूरसंचार क्षेत्र विशेषकर सूचना एवं संचार तकनीक यानी आइसीटी से देश, अर्थव्यवस्था और देशवासियों के जीवन में आमूलचूल बदलाव आए हैं। पहले सेल्युलर लाइसेंस को भी 2018 में पूरे पच्चीस वर्ष हो जाएंगे। मुझ जैसा व्यक्ति जो आरंभ से ही इसके साथ जुड़ा हो, उसके लिए ये पच्चीस वर्ष मिली-जुली यादों भरे रहे। अरबों रुपये के निवेश और लाखों की तादाद में नौकरियां देने के लिहाज से यह अर्थव्यवस्था का इंजन बना हुआ है और सरकार को जीडीपी के 6.5 प्रतिशत के बराबर राजस्व इसी क्षेत्र से प्राप्त होता है। फिर भी भारतीय दूरसंचार के इतिहास से बहुत कुछ सीखना बाकी है ताकि वे गलतियां न की जाएं जो अभी भी दोहराई जा रही हैं।

अभी भी प्रतीकों के नाम पर एकीकरण हो रहे हैं। अस्तित्व के संकट से जूझ रही टाटा सेल्युलर और रिलायंस कम्युनिकेशंस का एयरटेल अधिग्र्रहण करने जा रही है। रिलायंस और टाटा भारत के दो बड़े कारोबारी घराने हैं। वर्ष 2001 में अपने संपर्कों और प्रभाव का इस्तेमाल करते हुए उन्होंने विवादित ढंग से सीडीएमए कारोबार में प्रवेश किया था। उन्होंने उद्यमिता की भावना को तार-तार किया जिसकी लड़ाई मैंने लड़ी। मैंने तभी कहा था कि इस कारोबार में ये नाकाम रहने वाली हैं और यही हुआ भी। वह डब्ल्यूएलएल प्रकरण नियामकों पर ताकतवर उद्योगपतियों की पकड़ साबित हुआ जिसे बाद में देश के न्यायिक तंत्र ने ही उजागर किया। वोडाफोन में आइडिया का मिलन भी भारतीय कंपनी के विदेशी दिग्गज में विलय के पुराने ढर्रे की कहानी बयान करता है।

प्रतिस्पर्धा और ग्र्राहकों को विकल्प देने के लिहाज से यह चुनौतियां पेश करता है। प्रतिस्पर्धा घटने पर कीमतें बढ़ती हैं। यहीं पर 25 सालों के अनुभव से सबक सीखने की बात आती है। भारत में आइसीटी क्षेत्र अहम चौराहे पर खड़ा है। जहां नवाचार, उद्यमिता और उपभोक्ता जरूरतें तेजी से बढ़ रही है, लेकिन संकुचित सोच वाली नौकरशाही के नियंत्रण में हस्तक्षेपकारी सरकारी नियमन ढांचा इसकी वास्तविकताओं को समझ नहीं रहा है। अगले दशक में भारत तकनीक के क्षेत्र में दुनिया का सिरमौर बन सकता है और किसी भी अन्य क्षेत्र की तुलना में दूरसंचार और आइसीटी की इसमें कहीं अधिक महती भूमिका होगी, लेकिन यह तभी संभव हो पाएगा जब हम पुराने अनुभवों से सही सबक लेते हुए वैश्विक स्तर के संस्थानों और नीतियों का निर्माण करें।

सबसे पहले तो नियामक ट्राई को नए सिरे से खड़ा करने की जरूरत है। फिलहाल ट्राई, संचार मंत्रालय और इलेक्ट्रॉनिक्स एवं सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय जैसी तीन संस्थाएं हैं जो इसके लिए नीति निर्माण और नियमन का काम करती हैं। इन तीनों की कार्य संस्कृति, सांगठनिक ढांचे और क्षमताओं का कायाकल्प करना ही होगा। इंटरनेट और दूरसंचार क्षेत्र का कामकाज दो अलग-अलग मंत्रालयों द्वारा किए जाने की कोई तुक नहीं। सूचना प्रौद्योगिकी और दूरसंचार मंत्रालय का निश्चित रूप से विलय कर देना चाहिए। हद से हद इलेक्ट्रॉनिक्स निर्माण को अलग मंत्रालय के हवाले किया जा सकता है। स्वतंत्र नियामकों की भूमिका भी कमजोर हो रही है और वे एफडीआइ और निजता जैसे मसलों पर मंत्रालयों से सलाह ले रहे हैं। प्रतिस्पर्धा के मोर्चे पर भी यह त्रिगुट लड़खड़ा रहा है और प्रतिस्पर्धा से ही कीमतों, उत्पादों और सेवाओं के जरिये ग्र्राहकों को लाभ पहुंचाया जा सकता है। 

रिलायंस जियो की ही मिसाल देखें। उसके विवादित ट्रायल लांच के बाद मोबाइल डाटा उपभोग कई गुना बढ़ गया। जियो के आने से बाजार में हलचल हुई जिसका फायदा ग्र्राहकों को मिला, क्योंकि प्रतिस्पर्धा के चलते डाटा की दरें नाटकीय रूप से कम हो गईं। हताश करने वाली बात यही थी कि बाजार में नए प्रवेश पर विवाद खड़ा किया जा रहा था और 25 साल बाद भी नियामक प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा देने के लिए क्षमताएं हासिल नहीं कर पाया। इसका मर्म यही था कि मंत्रालय और ट्राई नई प्रतिस्पर्धा के लिए विश्वसनीय और पारदर्शी नियमों की रूपरेखा नहीं तैयार कर पाए। नतीजा यही हुआ कि बाजार में पहले से मौजूद कंपनियों को प्रधानमंत्री कार्यालय में शिकायती गुहार लगानी पड़ी जिससे यकीनन वैश्विक निवेशक बिरादरी को सही संदेश नहीं मिला होगा। वह भी उस क्षेत्र में जो वृद्धि का झंडा थामने का माद्दा रखता हो। ट्राई के इरादे उसकी क्षमताओं से किसी भी तरह मेल नहीं खाते। कॉल ड्रॉप पर उसके आदेश को लेकर सुप्रीम कोर्ट को दखल देना पड़ता है। इंटर कनेक्ट यूसेज चार्ज जैसे बुनियादी मसलों पर भी वह बेजा विवाद आमंत्रित कर बैठता है। वैश्विक निवेशकों के लिए निवेश से पहले नियामक की साख खासी मायने रखती है। आइसीटी-दूरसंचार के अगले दौर की वृद्धि के लिए वैश्विक मानदंडों वाले नियामक और नीतियों की जरूरत होगी। दुनिया की बड़ी तकनीक अर्थव्यवस्था के नाते हमें एफसीसी और ऑफटेल जैसे पश्चिमी ढर्रे वाले नियामक चाहिए और मौजूदा स्वरूप में ट्राई उनकी छायामात्र भी नहीं है। यह उन संकुचित सोच वाले सेवानिवृत्त नौकरशाहों की शरणगाह न बने जो आर्थिक-तकनीकी दृष्टिकोण से नहीं सोचते। ऐसी शक्तियों, क्षमताओं और प्रतिभाओं वाले संस्थानों का निर्माण सरकारी ढांचे के भीतर संभव नहीं लगता, लेकिन ऐसा करना ही होगा। 

अब दूरसंचार एवं तकनीक नीति 2018 की बात। इससे पहले भारत सरकार ने 1999 में ही व्यापक दूरसंचार नीति बनाई थी। तकनीक और इंटरनेट की दुनिया 1999 से काफी बदल गई है। आज मशीन इंटेलिजेंस और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस जैसी तकनीकों के जरिये ही दुनिया भर में कंपनियां सेवाएं दे रही हैं। ऐसे में नई नीति राष्ट्रीय तकनीक एवं दूरसंचार नीति के नाम से बने जो प्रत्येक भारतीय तक इंटरनेट पहुंचाने के साथ ही इन अत्याधुनिक तकनीकों और उद्यमिता के पहलुओं का भी समाधान तलाशे। इसमें सभी उभरती हुई तकनीकों को लाइसेंस और स्पेक्ट्रम आवंटन से मुक्ति देते हुए साइबर सुरक्षा और मशीन इंटेलिजेंस जैसे प्रमुख सामयिक मुद्दों को प्रोत्साहित किया जाए। नीतियां और नियमन ऐसे हों जो नई तकनीकों में निवेश और उद्यमिता को बढ़ावा दें। अगर हम वैश्विक स्तर की सुविधाएं चाहते हैं तो उसके लिए वैश्विक मानदंडों वाले नियामक भी बनाने होंगे। कानून द्वारा उपभोक्ता हितों का संरक्षण हो। नेट निरपेक्षता, निजता, सेवा की गुणवत्ता जैसे अधिकारों को सही से परिभाषित करें।

सेवा प्रदाताओं के लिए कड़े नियम तय हों। सरकार ने रियल एस्टेट क्षेत्र में रेरा कानून के जरिये यह सफलतापूर्वक किया है जिसे तकनीकी क्षेत्र में भी दोहराना होगा। सरकार भी कामकाज को अधिक ऑनलाइन बनाकर पारदर्शिता और सक्षमता बढ़ाए, क्योंकि अभी भी सरकारी कामकाज में शिथिलता का भाव बना हुआ है जिसे किसी भी सूरत में दूर करना होगा। मुझे गर्व है कि बीते ढाई दशक में देश की तकनीकी एवं दूरसंचार वृद्धि का मैं भागीदार रहा हूं और मुझे विश्वास है कि अगले दशक में भारत दुनिया की बड़ी तकनीकी शक्ति बन जाएगा, लेकिन नियति न तो स्वयं बनती है और न ही पूर्व निर्धारित होती है। इसके लिए सरकार को निर्णायक कदम उठाने होंगे। आशा है कि पीएम मोदी और उनकी सरकार डिजिटल इंडिया, न्यू इंडिया और बदलते भारत को मूर्त रूप देने के लिए अपनी विरासत के तौर पर 2018 में नई दूरसंचार एवं तकनीकी नीति तैयार करेगी।