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दांव पर दिग्गजों का भविष्य

09_02_2017-op1हर चुनाव में चुनाव लड़ने और वोट देने वालों के मन में अन्य अनेक सवालों के साथ य एक सवाल भी जरूर होता है कि किसी एक पार्टी को बुमत मिलेगा या नहीं? वैसे तो राजनीतिक दलों और विश्लेषकों की नजर विधानसभा वाले पांचों राज्यों पर है, लेकिन उत्तर प्रदेश और पंजाब पर कुछ ज्यादा ही गहरी नजर है। उत्तर प्रदेश में लंबे समय बाद और पंजाब में पली बार त्रिकोणीय संघर्ष है। दोनों राज्यों के चुनाव नतीजे देश की राजनीति को प्रभावित करने वाले होंगे। इन नतीजों से 2019 में होने वाले लोकसभा चुनाव की राजनीतिक खेमेबंदी का खाका भी उभरेगा। इन चुनाव नतीजों से य भी तय होगा कि संसद चलेगी या नहीं और चलेगी तो कैसे? केंद्र सरकार के कामकाज पर भी इसका असर पड़ सकता है। संसदीय जनतत्र में जनादेश स्पष्ट न हो तो विधानसभा के गठन से पहले ही अंदेशे उभर आते हैं। पहला सवाल तो यही उठता है किसके साथ कौन सरकार बनाएगा? फिर दूसरा सवाल उपस्थित होता है कि सरकार चलेगी कितने दिन? त्रिशंकु सदन की स्थिति में चुनाव के समय एक-दूसरे को बुरा-भला कने वाली पार्टियां-नेता बताने लगते हैं कि राज्य के हित में या फिर जनतंत्र अथवा पंथनिरपेक्षता की रक्षा के लिए साथ आना पड़ रहा है।

देश की राजनीति में त्रिशंकु विधानसभा की बात लोग भूल से चले हैं। इसके बावजूद पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के नतीजों में एक आशंका त्रिशंकु विधानसभा को लेकर भी है। इसका एक बड़ा कारण य है कि व समय चला गया जब किसी दल के पक्ष में चलने वाली हल्की सी हवा का भी पता चल जाता था। अब तो लहर का पता-ठिकाना खोजना मुश्किल हो जाता है। पता नहीं अब मतदाता पहले से चालाक हो गया है या सतर्क, लेकिन यह साफ है कि व अपने रुख की हवा ही नहीं लगने देता। उससे पूछिए किसका जोर है तो व पहले आपका इरादा और फिर आपकी ही राय भांपने की कोशिश करेगा। उसके बाद सबको बुरा बताएगा। सब कुछ बताएगा, पर य नहीं बताएगा कि वोट किसको देगा। जो बताते हैं वे ज्यादातर पार्टियों के कार्यकर्ता या फिर प्रतिबद्ध समर्थक होते हैं। पूछने वाले भी अपने मन का जवाब सुनना चाते हैं। मन का नहीं सुनने को मिले तो उसे खारिज कर देते हैं।

इसलिए मतदाताओं का मूड भांपने वाले ज्यादातर लोगों को वही दिखता है जो वे देखना चाते हैं। ऐसे हालात में दूर से देखने पर लगता है कि किसी एक दल को बहुमत न मिले तो कोई आश्चर्य नहीं। उत्तर प्रदेश और पंजाब में तो ऐसा ही अंदेशा है। वैसे हम लोगों की याददाश्त भी कमजोर है। 2007 और 2012 में भी ऐसा ही लग रहा था और ऐसे लोगों की तादाद अच्छा-खासी थी जो 2014 के लोकसभा चुनाव में भी त्रिशंकु लोकसभा की भविष्यवाणी कर रहे थे, लेकिन मतदाता ने ‘मरे मन कछु और है, दाता के कछु और’ की कहावत को चरितार्थ करते हुए स्पष्ट जनादेश दिया। इन सब बातों के बावजूद पिछले छह सात महीनों में उत्तर प्रदेश में राजनीतिक दलों के समर्थन में जैसा उतार-चढ़ाव आया है वैसा इससे पहले शायद ही किसी चुनाव में नजर आया हो।

1991-96 के दौर के बाद यह पहला मौका है जब उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा के अलावा भी कोई पार्टी सत्ता की प्रबल दावेदार है। अखिलेश यादव ने पांच साल की अपनी सरकार की नाकामियों का सारा ठीकरा शिवपाल यादव के सिर फोड़ दिया। यह भी पहला ही मौका है जब पांच साल तक सत्ता में रहने वाला मुख्यमंत्री हर चुनाव सभा में यह पूछे कि अच्छे दिन आए क्या और जब लोग हाथ उठाकर नहीं बोले तो मुख्यमंत्री खुश होकर कहे कि मुझे फिर मुख्यमंत्री बनाइए। कोई यह पूछे कि पांच साल सत्ता में रहकर अच्छे दिन नहीं ला पाए तो फिर मुख्यमंत्री क्यों बनाएं? यह भी पहला मौका है जब मुलायम सिंह यादव चुनाव प्रचार में कहीं नजर नहीं आ रहे हैं। पिछले कुछ महीने के उनके बोलबचन से ऐसा लगता है कि या तो उन पर उम्र हावी हो गई है या फिर उन्होंने एक्टिंग में बॉलीवुड के सितारों को मात देनी की ठानी है।

वह अपने को दिखाते बेटे के खिलाफ हैं, पर हैं पूरी तरह साथ। लखनऊ बहुत सी नूरा कुश्तियों का गवाह है, लेकिन उत्तर प्रदेश की राजनीति ने इससे पहले ऐसी नूरा कुश्ती कभी नहीं देखी। चौंकिएगा नहीं यदि चुनाव के बाद अखिलेश यादव चाचा शिवपाल के पैर छूते दिखें और चाचा भतीजे को गले लगाते। राजनीति की ही तरह यादव परिवार भी संभावनाओं का खेल है। उत्तर प्रदेश में पहली बार समाजवादी पार्टी और कांग्रेस मिलकर चुनाव लड़ रहे हैं। यह कहना बड़ा कठिन है कि इससे किसको कितना लाभ होगा? सपा कांग्रेस गठबंधन जितना जमीन पर चुनाव लड़ रहा है उससे ज्यादा मीडिया में दिख रहा है। सपा को मुसलिम-यादव वोट बैंक का आसरा है तो बसपा को दलित-मुस्लिम समर्थन का। भाजपा ने लोकसभा चुनाव के बाद से गैर यादव पिछड़ी जातियों का समर्थन हांसिल करने का व्यापक कार्यक्रम चलाया, लेकिन एक समय ऐसा भी लगा कि उसकी हालत ऐसे विद्यार्थी की हो गई है जो परीक्षा की तैयारी में इतना मशगूल है कि परीक्षा केंद्र पर देर से पहुंचेगा।

भाजपा ने इस चुनाव में वही समीकरण बनाने का प्रयास किया है जिसने 1991 में उसे बहुमत दिलाया था। यही कारण है कि 1996 के बाद व पहली बार सरकार बनाने की दौड़ में न केवल नजर आ रही है, बल्कि विरोधी दलों की चिंता भी बढ़ा रही है। बावजूद इसके यह मैराथन है। वही जीतेगा जो आखिर तक दमखम बचा के रखेगा। उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव व्यक्तित्वों का युद्ध बन गया है। भाजपा ने मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार न घोषित करके सारा दांव प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की छवि और विश्वसनीयता पर लगा दिया है। उसे लगता है कि टिकट बंटवारे से उपजा असंतोष मोदी की लोकप्रियता की हवा में उड़ जाएगा। भाजपा को लोकसभा चुनाव जैसे वोट विधानसभा में मिलें या न मिलें, लेकिन यह तय है कि ढाई साल में प्रधानमंत्री मोदी की विश्वसनीयता पर आंच नहीं आई है।

भाजपा को वोट न देने वाले भी उनका नाम आते ही प्रशंसा जरूर करते हैं। सोशल इंजीनियरिंग के अलावा भाजपा की यह सबसे बड़ी ताकत है। यह चुनाव राहुल गांधी और मायावती का भी राजनीतिक भविष्य भी तय करेगा। मायावती का चुनावी सफर 2009 के बाद से लगातार ढलान पर है। इस चुनाव में यह गिरावट थमी नहीं तो राज्य की राजनीति में नए जातीय समीकरण देखने को मिलेंगे। राहुल गांधी और कांग्रेस को यह पता था कि इस चुनाव में हार का क्या अंजाम होगा और इसीलिए व अखिलेश की साइकिल पर सवार हो गए हैं। यदि वह साइकिल पर बैठकर भी न जीते तो पार्टी पर सवारी गांठना कठिन हो जाएगा। सपा हारे या जीते, अखिलेश यादव उत्तर प्रदेश के कद्दावर नेताओं में अपने पिता से आगे निकल गए हैं। देखना यह है कि पंजा उनकी साइकिल को आगे बढ़ाता है या पीछे खींचता है?

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