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तीन तलाक पर कानून की दरकार

फैज अहमद फैज ने लिखा था,‘‘लाजिम है कि हम भी देखेंगे, वो दिन कि जिसका वादा है.सब ताज उछाले जाएंगे, सब तख्त गिराए जाएंगे।’’ मुस्लिम महिलाओं की अगुआई में लड़ी गई तीन तलाक के खिलाफ जंग ने हकीकत में कई स्वयंभू फैसलाकुन ओहदेदारों के तख्त गिरा दिए हैं। एक बार में तीन तलाक पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद मुस्लिम महिलाओं को वह दिन देखने को मिल गया जिसका उन्हें वर्षो से इंतजार था। इस जंग को किसी भी सियासी पार्टी ने नहीं लड़ी इसलिए यह सिर्फ और सिर्फ मुस्लिम औरतों की ही जीत है। तीन हफ्ते पहले मिठाई की दुकानों पर बुर्कापोश महिलाओं की भीड़ बता रही थी कि कोर्ट के फैसले में कुछ तो ऐसा है जो उनके मन को छू गया है।

देशभर से आई तस्वीरें यह बयान कर रही थीं कि मुस्लिम औरतों के लिए वह दिन ईद के जश्न जैसा रहा। सुप्रीम कोर्ट के फैसले का एक फायदा यह रहा कि यह बात दूरदराज के इलाकों तक भी फैल गई कि देश की सबसे बड़ी अदालत ने तीन तलाक बंद कर दिया है, वरना पिछले 20 सालों में विभिन्न हाईकोर्ट के फैसलों में भी यही बात कही गई थी। तब मीडिया, राजनीतिक दलों और सिविल सोसाइटी में यह बात उतनी तवज्जो नहीं पा सकी। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के पहले कई उच्च न्यायालयों ने मुस्लिम समाज के रूढ़िवादी तबके को आईना दिखाते हुए मुस्लिम औरतों के हक में फैसले दिए थे। 1हालांकि सुप्रीम कोर्ट के फैसले को एक जीत की तरह देखा जा रहा है, लेकिन यदि आज तीन तलाक की शिकार कोई महिला मदद के लिए मेरे पास आए तो मैं क्या कर सकूंगी?

क्या मैं यह मान लूं कि सुप्रीम कोर्ट की ओर से तीन तलाक पर रोक लगाने के बाद कोई मुस्लिम मर्द ऐसा करेगा ही नहीं और इसलिए मेरे पास कोई ऐसा मामला आएगा ही नहीं, लेकिन अगर यह मान लें कि यदि ऐसा कोई मामला आता है और मैं पीड़ित महिला को थाने ले जाती हूं तो क्या थानेदार उसकी मदद करेगा? उसके पति को किस प्रकार की सजा मिलेगी और कैसे? ये वे सवाल हैं जिनके जवाब जरूरी हैं। वैसे भी सच यह है कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद भी तीन तलाक के मामले रुके नहीं हैं। पिछले तीन हफ्तों में भारत सरकार की ओर से नोटिफिकेशन जारी होने के बावजूद जैसलमेर, सहारनपुर, मेरठ, अहमदाबाद, जयपुर, बिजनौर, मुजफ्फरनगर से तीन तलाक के लगभग एक दर्जन केस आ चुके हैं।

चूंकि सबसे बड़ी अदालत का फैसला महज घोषणा नहीं हो सकता इसलिए इस सवाल का जवाब चाहिए ही कि तीन तलाक देने वाले मुस्लिम पुरुषों की सजा कैसे मिलेगी? ध्यान रहे कि दो दशक पहले जब राजस्थान की भंवरी देवी से कुछ दबंगों ने दुष्कर्म किया था तो विशाखा एवं अन्य महिला समूहों की मांग पर सुप्रीम कोर्ट ने कार्यस्थलों पर महिला उत्पीड़न रोकने के लिए जो दिशानिर्देश दिए थे वे एक बड़े बदलाव का वाहक बने थे। उस समय तक कार्यस्थल पर यौन हिंसा के खिलाफ देश में कानून नहीं था। जब तक कानून नहीं बना तब तक यानी 2013 तक वही दिशानिर्देश ही कानून के रूप में इस्तेमाल होता रहा। तीन तलाक पर सुप्रीम कोर्ट ने महज रोक की ही घोषणा की है।

यदि कोई महिला अभी भी तीन तलाक की शिकार होती है तो उसे कैसे न्याय मिले, इसके लिए कोई दिशानिर्देश जारी नहीं किए हैं। यह सही है कि मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड कुछ भी कहे, वह एक हारी हुई लड़ाई लड़ रहा है, लेकिन यदि सुप्रीम कोर्ट तीन तलाक की रोकथाम के लिए कानून आने तक कोई दिशानिर्देश जारी नहीं करता तो उसका फैसला ऐतिहासिक होते हुए भी बेअसर ही रह जाएगा। सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने के बाद कानून मंत्री ने बयान दिया था कि इस विषय पर कानून बनाने की जरूरत नहीं है। सरकार के अन्य मंत्री भी ऐसे ही बयान दे चुके हैं। इस तरह के बयान से सरकार की मंशा पर सवाल उठना लाजमी है। क्या वह मुस्लिम औरतों को न्याय दिलवाना चाहती है या फिर महज प्रचार-प्रसार पाकर कर्तव्य की इतिश्री करना चाहती है? यह सवाल इसलिए, क्योंकि तीन तलाक के खिलाफ कानून बनाने की जरूरत है।

मुस्लिम पारिवारिक कानून को संहिताबद्ध किया जाना भी समय की मांग है, क्योंकि अभी भी मुस्लिम लड़कियों के विवाह की न्यूनतम उम्र तय नहीं है। इसके अलावा तीन तलाक के साथ बहुविवाह और हलाला निकाह भी जारी है। मेहर की रकम तय करने का कोई प्रावधान नहीं है। बच्चा गोद लेना अभी भी मुमकिन नहीं है। मुताह निकाह यानी अस्थाई विवाह भी हो रहे हैं। शरीयत एप्लीकेशन एक्ट 1937 में शरीयत शब्द भी परिभाषित नहीं है। यदि सरकार कानून बनाने का इरादा नहीं रखती है तो फिर मुस्लिम महिलाओं को अपने सवालों के जवाब कैसे मिलेंगे?1सरकार को मामले की गंभीरता को समझते हुए एक नए और इंसाफपसंद कानून बनाने की पहल करनी ही होगी। 1937 में बना कानून नाइंसाफी पर टिका है, जिसे लोकतांत्रिक देश की मुस्लिम औरतें चुनौती दे रही हैं। इसे सुना जाना जरूरी है वरना तीन तलाक के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट के फैसले का कोई मतलब नहीं रह जाएगा।

 

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