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रोचक:जानिए क्या है कैलेण्डर का इतिहास? किसे आया था इसे बनाने का विचार

देव श्रीवास्तव
लखीमपुर-खीरी।
कमरे की दीवार पर टँगा कैलेण्डर एक पूरे वर्ष के दिवसों एवं माहों को सुव्यवस्थित एवं समायोजित ढंग से प्रस्तुत करता है। कैलेण्डर सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक आदि घटनाक्रमों को में सार्थक समन्वय स्थापित करता है। ‘कैलेण्डर’ शब्द यूनानी भाषा के ‘कालेंड’ से बना है। लेटिन भाषा ‘र’ के जुड़ने के साथ पूरा शब्द ‘कैलेण्डर’ बना। जिसका अर्थ ‘मैं चिल्लाता हूँ’ होता है। प्राचीन रोमवासियों में विशेष दिनों जैसे अमावस्या एवं पूर्णिमा आदि की सूचना चिल्लाकर दी जाती थी। बदले परिवेश में बहुत कम ही लोग यह जानते हैं  की कैलेंडर का एक बहुत पुराना इतिहास है।  इसी इतिहास के बारे में  हमने जानकारी जुटानी चाहिए तो हमारी मुलाकात हुई  लखीमपुर स्थित लखनऊ पब्लिक स्कूल के गगणित शिक्षक अतुल सक्सेना से जिन्होंने हमसे अपने रिसर्च से जुड़ी तमाम बातें साझा की। चलिए उन्हीं की भाषा में जानते हैं कैलेंडर का पुराना इतिहास।

कैलेण्डर बनना,थी बड़ी चुनौती 

कैलेण्डर में काल गणना की लघुत्तम इकाई ‘एक दिन’ होती है। पृथ्वी का अपनी धुरी पर एक पूर्ण चक्कर लगना, एक दिन की कालावधि के तुल्य है। पृथ्वी का सूर्य के चारों ओर पूर्ण चक्कर लगाने की कालावधि जो लगभग 365.242218 सौर दिवसों  के तुल्य है। चन्द्रमा का पृथ्वी के चारों ओर एक पूर्ण चक्कर लगाने की कालावधि जो लगभग 29.53059 सौर दिवसों के तुल्य थी। इन तीनों में समन्वय स्थापित कर पूर्णाकों में सौर दिवसों और माहों को एक वर्ष के तुल्य स्थापित करके एक व्यवहारिक कैलेण्डर बनना, तत्कालीन एक बहुत बड़ी चुनौती थी।
प्राचीन काल में दिन, माह व वर्ष की कालावधियों सही एवं स्पष्ट जानकारी न होने के कारण उनके कैलेण्डर वास्तविक घटनाक्रमों से मेल नहीं खाते थे। प्राचीन सभ्यताओं में निर्मित कैलेण्डरों में काल गणना का मुख्य आधार चन्द्रमा की गतियों पर निर्भर था। विभिन्न सभ्यताओं, धर्मों, सांस्कृतियों, देशों एवं प्रान्तों में अनेकानेक कैलेण्डर बनाने का प्रयास होता रहा। आज भी दुनिया में लगभग चालीस कैलेण्डर प्रचलित है। आज पूरे विश्व में लगभग सभी जगह ग्रेगोरियन कैलेण्डर मान्य ही है। इसका मूलाधार रोमन कैलेण्डर था। रोमन कैलेण्डर मिस्र कैलेण्डर का ही संशोधित रूप ही था।
लगभग 2781 ई0पू0 सर्वप्रथम मिस्रवासियों ने यह ज्ञात किया कि एक सौर की कालावधि 365Ľ वर्ष होती है। उनकी यह काल गणना नील नदी में आने वाली वार्षिक बाढ़ एवं सोथिस् तारे के पूर्वी क्षितिज पर ठीक सूर्यादय से पहले उदित होने पर आधारित थी। तात्कालिक मिस्री कैलेण्डर में 360 दिन ही होते थे। जिनको 30 दिनों के 12 माहों में विभाजित किया गया था। वर्ष के पांच अतिरिक्त दिवसों को उन्होंने अपने प्रमुख देवताओं के नाम पर जोड़कर एवं विशेष पर्व-दिवस के रूप में घोषित कर पूरा कर लिया। साथ ही प्रत्येक चौथे वर्ष में, एक अतिरिक्त पर्व दिवस जोड़कर, लीप वर्ष की संकल्पना के साथ अपने कैलेण्डर को सार्थक आधार दिया।

मिस्र के कैलेण्डर में हुआ दाशमिक प्रणाली का प्रयोग

उल्लेखनीय है कि मिस्र कैलेण्डर में काल-विभाजन में दाशमिक प्रणाली का भी प्रभाव था। दस-दस दिनों के तीन सप्ताहों के 30 दिन का एक माह होता था। प्रत्येक दिन को भी दस घण्टों में विभाजित किया गया था। पूरे वर्ष को चार-चार महीने की तीन ऋतुओं में बांटा गया था।
48 ई0पू0 जूलियस सीजर ने मिस्र पर विजय प्राप्ति के साथ ही एक व्यापक, व्यवस्थित एवं व्यावहारिक कैलेण्डर की आवश्यकता महसूस की। इस हेतु उन्होंने सिकंदरिया के तत्कालीन मिस्री खगोलविद सोसिजेनस ) के मार्ग दर्शन में एक वृहत कैलेण्डर का निर्माण किया। यह कैलेण्डर भी मूलतः प्राचीन रोमन कैलेण्डर में संशोधन करके बनाया गया था। कैलेण्डर में सामान्य वर्ष की कालावधि 365 सौर दिवस थी। हर चौथा वर्ष 366 सौर दिवसों का ‘लीप वर्ष’ बनाया गया। मिस्र कैलेण्डर के 30 दिवसों वाले 12 माहों के कई माहों को 31 दिन का बनाया गया। फरवरी को सामान्य वर्ष में 29 दिन का एवं लीप वर्ष में 30 दिनों का बनाया गया। नववर्ष का प्रारम्भ 1 मार्च से बदलकर 1 जनवरी से किया गया। ‘किवन्तलस’ माह का नाम बदलकर जूलियस ने अपने नाम पर रखा जो आगे चलकर ‘जुलाई’ माह कहलाया।
8 ई0पू0 रोमन सम्राट अगस्तस सीजर ने अपने प्रथम संशोधन द्वारा कैलेण्डर के आठवे माह ‘सेक्सटिलस’ का नाम परिवर्तित कर अपने नामानुसार ‘अगस्त’ कर दिया। जूलियस के नाम पर बने ‘जुलाई’ माह के 31 दिनों के समान ही ‘अगस्त’ माह को भी 31 दिनों का बनाया गया। यह अतिरिक्त एक दिन उन्होंने फरवरी माह से ले लिया। इस तरह से फरवरी माह सामान्य वर्ष में 28 दिन की एवं लीप वर्ष में 29 दिन की हो गयी थी।
‘जुलाई’ एवं ‘अगस्त’ माहों के नामों की उत्पत्ति का आधार तो उपरोक्त था। माह ‘जनवरी’ रोमन देवता ‘जेनस’, ‘फरवरी’ रोमन पर्व ‘फेब्रुआ’, ‘मार्च’ देवता ‘मार्श’, ‘अप्रैल’ लेटिन शब्द ‘एपाइरर’ जिसका तात्पर्य ‘फूलना’ माना जाता था कि इस माह में फूल अधिक फूलते हैं। ‘मई’ रोमन देवी ‘माइना’, ‘जून’ स्वर्ग की देवी ‘जूनों’ के नाम पर आधारित था। पुराने रोमन कैलेण्डर में नववर्ष का प्रारम्भ ‘मार्च’ माह से था। इसी क्रमानुसार सातवें, आठवें, नवें एवं दसवें माहों के नाम ‘सितम्बर’, ‘अक्टूबर’, ‘नवम्बर’ तथा ‘दिसम्बर’ क्रमशः रखे गये थे।

‘नाइसिन कौंसिल’  ने दी मान्यता

सम्राट जूलियन सीजर द्वारा प्रारम्भ किये गये उपरोक्त कैलेण्डर ही ‘जूलियन कैलेण्डर’ कहलाया। यह शीघ्र ही पूरे रोमन साम्राज्य में अपनाया जाने लगा। सन् 325 ई0 में ‘नाइसिन कौंसिल’ से मान्यता मिल जाने के साथ ही यह कैलेण्डर सभी ईसाई देशों में भी प्रचलित हो गया था। ईसाइयों ने प्रचलित वेबीलोनी-यहूदी मूल के सात दिनों के सप्ताह को ही प्रयुक्त करना शुरु कर दिया था। सप्ताह के दिनों के नाम भी रोमन देवी-देवताओं के नामों से प्रेरित थे।

525 ई0 में विशप डायोनियसस एक्सिगसĽक्पवलेपने म्गपुनने ने तत्कालीन उपलब्ध तथ्यों के आधार पर ईसा मसीह के जन्म दिवस (Ľ25 दिसम्बर 1 ई0) एवं ईस्टर दिवस (Ľ25 मार्च 31 ई0) को निर्धारित किया। किन्तु, उनकी गणनाओं एवं तथ्यों का ठोस आधार नहीं था। उन्होंने ईस्टर के दिनांकों से सम्बन्धित अनेक सारणियां बनायी। इन सारणियों में प्रथम बार ईसवी (Ľ।क्त्र।दवव क्वउपदप) का प्रयोग किया था। जबकि ईसा पूर्व Ľठब्त्रथ्मइवतम ब्ीतपेज) का प्रयोग काफी बाद में आया था।जूलियन कैलेण्डर के एक वर्ष में औसत 365.25 सौर दिवस की कालावधि, एक सायन वर्ष (Ľज्तवचपबंस लमंत) की कालावधि 365.242218 के सन्निकट थी। जिसे लगभग 0.007782 दिन अर्थात् 11 मिनट 12.36 सेकेण्ड की प्रतिवर्ष वृद्धि हो रही थी। यह अल्प कालावधि की वृद्धि 128 वर्षां में 1 पूर्ण दिवस के लगभग तुल्य थी। सोलहवीं सदी तक खगोलवेत्ताओं ने यह ज्ञात कर लिया था कि कैलेण्डर में 10 दिन का अन्तर आ गया था। जूलियन कैलेण्डर का प्रयोग ईसाई देशों में 325 ई0 से प्रारम्भ हुआ था। तबसे लेकर सोलहवीं सदी तक कैलेण्डर में दस दिन अतिरिक्त बढ़ गये थे।

इस समस्या के निस्तारण हेतु 1582 ई0 में पोप (ग्रेगोरी-तेरह) ने अपने आदेशानुसार कैलेण्डर में महत्वपूर्ण संशोधन लागू किये गये। प्रथम संशोधन के अनुसार 4 अक्टूबर 1582 दिन- गुरुवार के बाद अगली तारीख 15 अक्टूबर 1582 शुक्रवार होगा। इस प्रकार बढ़े अतिरिक्त दस दिनों की समस्या को बिना सप्ताह के दिन चक्र को बदले, समाप्त कर दिया गया। द्वितीय संशोधन के अनुसार सायन वर्षĽज्तवचपबंस लमंत) की कालावधि को सन्तुलित करने के लिए प्रत्येक चौथी शताब्दी-वर्ष को लीप-वर्ष तथा शेष तीन शताब्दी-वर्षां को सामान्य वर्ष घोषित किया गया। अर्थात शताब्दी-वर्ष जो 400 से पूर्णतया विभाजित हो उन्हें लीप-वर्ष माना जाये। अतः आगामी आसन्न शताब्दी-वर्ष 1600 को लीप-वर्ष माना गया था।

ऐसे बना लीप वर्ष

प्रचलित कैलेण्डर में 0.007782 दिन की अल्प कालावधि का अन्तर 400 वर्षां में 3.1128 दिन की वृद्धि के तुल्य था। इस प्रकार 400 वर्षां में बढ़े 3 दिनों को हटाने के लिये पहले तीन शताब्दी-वर्षां को सामान्य वर्ष एवं चौथे शताब्दी वर्ष को ही लीप-वर्ष माना गया। चूंकि सामान्य वर्ष में फरवरी 28 दिन की एवं लीप वर्ष में फरवरी 29 दिन की होती है। अतः 400 वर्षां में चार शताब्दी-वर्षां में केवल एक शताब्दी-वर्ष को लीप वर्ष मानकर बढ़े अतिरिक्त 3 दिवसों को हटा लिया गया। स्पष्ट है कि 1700, 1800, 1900, 2100 आदि को चार से विभाजित होने के बावजूद इन्हें लीप-वर्ष नहीं माना गया है। जबकि वर्ष 1600, 2000, 2400, 2800 आदि को 400 से पूर्णता विभाजित होने के कारण इनको लीप-वर्ष माना गया।

उपरोक्त संशोधन से युक्त कैलेण्डर ग्रगोरियन कैलेण्डर कहलाया। पूरी दुनिया में समय-समय पर इन संशोधनों को अपने प्रचलित कैलेण्डर में समाहित किया जाने लगा। सबसे पहले कैथोलिक देशों ने इसे अपनाया। यूरोपीय देशों ने वर्ष 1582 में, इंग्लैण्ड में, वर्ष 1752 में जापान में वर्ष 1873 में, चीन में वर्ष 1912 में, रूस में वर्ष 1918 में, टर्की में वर्ष 1927 में अपनाया गया था। भारतवर्ष में 1757 में यह कैलेण्डर अंग्रेजी शासन के साथ प्रारम्भ हुआ था।
एक लम्बे ऐतिहासिक दौर से गुजरे कैलेण्डर में कई पड़ाव आये, जिससे कैलेण्डर को ठोस आधार मिले। कैलेण्डर दिनोंदिन, व्यापक, व्यवस्थित एवं व्यावहारिक बना। शायद यही वजह है कि यह कैलेण्डर आज भी पूरी दुनिया में प्रचलित, सर्वमान्य एवं लोकप्रिय है।