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जनादेश को समझने से इन्कार

06_04_2017-5pardeep-singhउत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के नतीजों के बाद गैर भाजपा राजनीतिक दलों की प्रतिक्रिया से ऐसा लगता है कि वे इस परिवर्तन के पैमाने और परिमाण को अभी तक समझ नहीं पाए हैं। जनादेश और उसके बाद योगी आदित्यनाथ का मुख्यमंत्री बनना पूरे देश के पैमाने पर वैचारिक परिवर्तन की ठोस शुरुआत है। यह आजादी के बाद का सबसे बड़ा बदलाव है। आजादी के बाद जवाहर लाल नेहरू ने पश्चिम के प्रभाव में जिस धर्मनिरपेक्षता को अपनाया था वह अपनी प्रासंगिकता खो चुकी है।

इस बात को राजनीतिक दल ही नहीं, देश के लेफ्ट लिबरल बुद्धिजीवी भी समझने या कहें कि स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं। 11 मार्च 2017 के बाद अब देश की राजनीति वैसे नहीं चलेगी जैसे चलती थी। राजनीति दक्षिण मार्गी हो गई है, जिसकी जड़ें भारत की चिरंतन धार्मिक परंपरा से जुड़ी हैं। जिस विचारधारा को देश के लेफ्ट लिबरल बौद्धिक समुदाय ने छह दशक तक रत्ती भर जगह देने से इन्कार किया उसे देश के मतदाता ने स्थापित कर दिया है। इसकी तुलना महाभारत के उस प्रसंग से की जा सकती है जिसमें कृष्ण समझौते के आखिरी प्रयास में एक प्रस्ताव लेकर जाते हैं कि दुर्योधन पांडवों को पांच गांव दे दें तो युद्ध टाला जा सकता है परंतु दुर्योधन इसके लिए भी तैयार नहीं हुआ। उसने कहा कि पांच गांव क्या, सुई की नोक के बराबर भूमि भी नहीं देंगे। यही काम इन बुद्धिजीवियों ने दक्षिणपंथियों के साथ किया। यह लड़ाई भी कुछ ऐसी ही थी। भारत में ही भारत की मूल परंपरा को घर निकाला दे दिया गया। जो कुछ भी भारतीय संस्कृति से जुड़ा है वह हेय, दकियानूसी और प्रतिगामी घोषित हो गया। अल्पसंख्यकों खासतौर से मुसलमानों के हितों की रक्षा की बात करते समय इस बात को भुला दिया गया कि हिंदू धर्म में हजारों साल से सभी धर्मों और मतों को सम्मान देने की परंपरा रही है।
भारत इसलिए धर्मनिरपेक्ष नहीं है कि हमारे संविधान में ऐसा लिखा है। धर्मनिरपेक्षता अर्थात सभी धर्मों को बराबर सम्मान की नजर से देखना हिंदू धर्म की स्वाभाविक प्रवृत्ति है। इस बात को दुनिया के सामने रखने और उस पर गर्व करने की बजाय उसे हिंदू राष्ट्र के नाम से डराने और बदनाम करने की कोशिश हुई। यही वजह है कि योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री बनने से यह वर्ग हतप्रभ है। उसे यह देश में मुसलमानों के लिए खतरे की तरह नजर आता है। योगी के पदारूढ़ होने के दो हफ्ते में जितनी बड़ी संख्या में मुस्लिम महिलाएं तीन तलाक के मुद्दे पर अपनी फरियाद लेकर मुख्यमंत्री के दरबार में पहुंची हैं वह ऐसे दावों की पोल खोलने के लिए काफी है। जो घर से बाहर पैर नहीं रखती थीं वे बाहर निकल कर किसी मुस्लिम या कथित धर्मनिरपेक्ष नेता की चौखट पर नहीं जा रही हैं। इसका एक ही कारण है कि उन्हें भरोसा है कि उनकी बात सुनी जाएगी और न्याय दिलाने का प्रयास होगा।

हैरानी इस पर है कि जो बात भारत से बाहर बैठे लोगों को दिख रही है वह देश के लेफ्ट लिबरल बुद्धिजीवियों को नहीं दिख रही। अमेरिका स्थित मशहूर इंडोलॉजिस्ट और वैदिक स्कॉलर डेविड फ्राउले भाजपा के नए नेतृत्व के बारे में कहते हैं कि नए नेतृत्व की जड़ें अथाह धार्मिक परंपराओं में निहित हैं और इससे भारत को लाभ होगा। हमारे बुद्धिजीवी और अधिकतर राजनीतिक दल इस साधारण सी बात को समझने को तैयार ही नहीं हैं कि देश की आबादी का दो तिहाई हिस्सा युवा है और वह अपनी परंपराओं, अपनी संस्कृति और रीति-रिवाजों को गर्व की नजर से देखता है। यह युवा ही देश की राजनीति की दिशा बदल रहा है। वह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को बदलाव के कारक के रूप में देखता है। योगी को मुख्यमंत्री बनाकर प्रधानमंत्री ने यह संदेश दिया है कि वह अपने रास्ते से भटके नहीं हैं, बल्कि और दृढ़ता से चल रहे हैं।
इस पृष्ठभूमि में भाजपा विरोधियों के रवैये को देखकर लगता है कि वे अभी तक इस जनादेश को समझे ही नहीं हैं। वरना बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्ष मायावती चुनाव नतीजों के तुरंत बाद ईवीएम में गड़बड़ी का मुद्दा न उठातीं। मायावती के इस मुद्दे पर बोलते ही अखिलेश यादव और कांग्रेस को भी लगा कि जनादेश के प्रभाव को कमतर दिखाने के लिए यह मुद्दा मुफीद है। हर चीज की अति करने वाले अरविंद केजरीवाल तो जैसे सन्निपात की अवस्था में हैं। दिल्ली नगर निगम के चुनाव में पता ही नहीं चल रहा है कि वह भाजपा और कांग्रेस से लड़ रहे हैं या निर्वाचन आयोग से? विपक्षी दल हर उस मुद्दे को उठाने को तैयार हैं जो यह आभास दे सके कि उत्तर प्रदेश में भाजपा की जीत वास्तविक जनादेश नहीं है। ऐसी हर कोशिश उन्हें मतदाता की नजर में और गिरा रही है, लेकिन इससे वे गाफिल हैं।
नब्बे के दशक में एक अंग्रेजी दैनिक में संघ विचारक गोविंदाचार्य ने लिखा था कि भाजपा और कुछ नहीं गुलाबी छटा वाली कांग्रेस ही है। वह भाजपा की तुलना पचास और साठ के दशक की कांग्रेस से कर रहे थे। उस समय उनकी यह बात ठीक भी लग रही थी। यही वजह थी कि सत्ता में आने के बाद भाजपा का शीर्ष नेतृत्व मध्यमार्गी होने की कोशिश करता था, लेकिन उस पटरी पर कांग्रेस पहले से खड़ी थी। मध्यमार्ग पर कांग्रेस की विश्वसनीयता ज्यादा थी। इसलिए भाजपा की कोशिश कभी सिरे नहीं चढ़ी। नरेंद्र मोदी और अमित शाह की भाजपा नब्बे के दशक वाली भाजपा नहीं रह गई है। वह गोविंदाचार्य की गुलाबी छटा वाली कांग्रेस नहीं केसरिया बाने वाली पार्टी है। वह अपने को भारत की सांस्कृतिक, धार्मिक और सामाजिक परंपराओं से जोड़ कर देखती है, बिना शर्मिंदा हुए। ऐसा न होता तो योगी आदित्यनाथ उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री कभी न बनते। इससे भी बड़ी बात यह कि ऐसा न होता तो भाजपा को उत्तर प्रदेश की विधानसभा में सवा तीन सौ सीटें भी न मिलतीं। यह विकास में जाति धर्म के आधार पर भेदभाव न करने की मोदी सरकार की नीति में भरोसे का जनादेश है।
भाजपा से निपटने के लिए विपक्षी दलों को अपनी रणनीति और लड़ाई के औजार बदलने होंगे। भाजपा को सांप्रदायिक और अपने को धर्मनिरपेक्ष बताकर वोट मांगने की राजनीति का समय चला गया। उत्तर प्रदेश में इस समय बसपा, सपा और कांग्रेस के गठबंधन की चर्चा चल रही है। इस समय इन दलों की जो हालत है उसमें महागठबंधन संभव भी लगता है लेकिन सवाल है कि साथ आने का मुद्दा क्या होगा? कौन सी वैचारिक प्रतिबद्धता इस गठबंधन को जोड़ कर रखेगी? भाजपा को रोकने के लिए एक होने के फॉर्मूले का दौर खत्म हो गया है। मतदाता ने राष्ट्रीय विमर्श के विषय बदल दिए हैं। अब भाजपा से मुकाबले के लिए विरोधियों को उसकी ही पिच पर आकर खेलना होगा। ईवीएम और निर्वाचन आयोग पर हमला करने वाले दल चुनावी राजनीति के हाशिये पर जाने को तैयार रहें।

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